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शुक्रवार, दिसंबर 3

बलात्कार - सेक्स और समाज का चश्मा

आज सुबह की बात हैं मेट्रो से दफ्तर का सफर तभी किसी दोस्त का फोन आया बोली मैं बहुत खुश हूं आज के दिन पर.. मैनें सोचा आज तो भोपाल गैस कांड की बरसी है तो आज के दिन खुश होने वाली भला क्या बात? फिर वो बोली अख़बार पढ़कर खुश हुई, उसमें धौलाकुआं रेप के केस के दो आरोपियों की गिरफ्तारी की ख़बर छपी थी। वो बोली “चलो कम से कम पुलिस के हत्थे तो चढ़े..लेकिन अगर रेप होता ही नहीं सुरक्षा इतनी पुख्ता होती तो अच्छा रहता।“ मैनें कहा “ बेहतर होता कि बलात्कार पीड़ित लड़कियों को समाज स्वीकार ले ” उसने कहा कि exceptions से रेप होने बंद हो जाएंगे, मेरा जवाब था नहीं लेकिन परिवर्तन जरुर आएगा। हरियाणा में सबसे ज्यादा भ्रूण हत्या क्यों होती हैं ? क्योंकि वहीं रोटी-बेटी का रिश्ता सबसे व्यापक है, दहेज बहुत चलता हैं। जब बेटी होना महंगा और घाटे का सौदा है तो भला कौन मोल ले इस मुसीबत को !! जवाब सीधा सा है अगर दहेज रुकेगा तो लड़ियां भड़ेगी..फिर चाहे उसके बदले हुड्डा अपने चुनावी मैनेफ्सटो में लिखवाये कि हरियाणा में किसी को कुंवारा नहीं रहने देंगे या शीला लाडली सी योनजा चलाए कुछ नहीं बदलने वाला...।

वो बोली दहेज से रेप का क्या रिश्ता, मैनें जवाब दिया कि देख रेप एक Sexual-Physical मुद्दा है और दहेज-भ्रूण हत्या एक Socio-economical ममला पर दोनों में स्त्री समान है और सामान भी...। दहेज़ रोकने के बेटियों की बलि रुकेगी और रेप पीड़ित लड़कियों को दिल और समाज (शादी) अपनाने से दर्द कम होगा। ठीक वैसे ही जैसे जब हमें बुखार होता है, तो हम चाहते हैं कि घरवाले हमारी केयर करें और अगर किसी लड़की का रेप हो तो उसे भी लाइफ में उस वक्त सबसे ज्यादा जरुरत अपने पति-पिता या प्यार की ही होगी..क्योकि इसमें उसका कोई कसूर नहीं था, जो उसे मौत सा दर्द सहना पड़ा कम से कम पुरुष उसके दर्द पर दवा का काम तो कर सकते है नमक की जगह...।

मेरी दोस्त बोली कि ऐसा तो exceptional नहीं मुनिंग है, मेरा जवाब था – “आज हम दोनों लव-मैरिज़ करने जा रहे हैं, 100 साल पहले ये मुनिंग नहीं था। उससे 100 साल पहले विधवा-विवाह सम्भव नहीं था, लेकिन राममोहन राय ने करके दिखाया। और आज लड़के के मर जाने पर उसके मां-बाप ही अपनी बहु की शादी की वकालत आमतौर पर रहते हैं। दोस्त ये कोई रुसी क्रातिं नहीं है, जो पल भर में हो जाये और क्षण भर में बर्लिन की दीवार की तर्ज पर ढह जायें..परिवर्तन एक दिन में नहीं होता लेकिन सदा के लिये होता हैं।“ मेने एक नॉवल पढ़ा। कारगिल के किसी अफसर का, जिसमें 99 की जंग में देश के लिये वो अपाहिज हो गया था। अपनी पत्नी को सेक्सव्ल खुशी नहीं दे सकता था। उसने अपनी पत्नी के लिये जिगोलो (मेल-कॉल बॉय) बुलाना शुरु किया आज वो दोनो (पति-पत्नी) साथ है और खुश भी...ये प्यार है और परिवर्तन भी..। जो रेप के बाद अपनाने से किसी भी तरह कमतर नहीं ।

यहां सवाल सिर्फ धौलाकुआं रेप केस तक सीमित नहीं है। हर रेप के बाद ऐसे लोगो की कमी नहीं होती जो कभी वक्त और कभी वस्त्रो को बहाना बनाकर लड़की के क्रकट्रर पर सवाल खड़े करते रहते हैं। लेकिन रेप भी दो किस्म के होते है गैरकानूनी रेप और कानूनी या सामाजिक रेप। मेरी एक बंगाली दोस्त थी आर्कुट-फ्रेंट उसने बताया था कि, बच्चपन में उसके मामा उसके साथ रेप करते थे। लेकिन वो कुछ बोल नहीं पाती..आज भी उसे हर लड़के से डर लगता हैं, मानो वो यमदूत हो..। मेरे बहुत समझाने पर वो एक लड़के से शादी के लिये राज़ी हो गई..लेकिन शादी के बाद वो कभी खुल कर जी पाई होगी या नहीं मै नहीं जानता...। यह फैमेनिस्टा के लिये मुद्दा हो सकता है लेकिन समाज के लिये सवालह हैं कि मामा से लेकर पति के भाईयों तक इसे कहते हैं Social rape। मेरी कुछ दोस्त ऐसी भी है जिनके साथ Legal Rape होता है..यानी जब periods या pregnancy में उनका पति बिना रज़ामंदी के सैक्स करता हैं। और वो चिल्लाकर, रोकर, मरकर सो जाती हैं, अगर दिन का दर्द सहने के लिये..।

एक लड़की थी, किसी जमानें में मेरे सबसे करीब, उसकी जाति या मज़हब बनाना नहीं जरुरी वरना पाढक उसमें भी वज़ह डूंडनें लगेगें। उसका बच्चपन छोटे परिवार में गुज़रा था, जवानी की दहलीज पर किसी कारण जौवांइट फैमली में जाना पड़ा। वो बताती थी कि उसके संयुक्त परिवार में जब लड़कियां 14-15 साल ही होती है, उनके कज़न (चचेरे-भाई) कई बार उन्हें पीछे से आकर पकड़ लेते थे। अगर विरोध किया तो बोलते “ बहन डर गई, बहन डर गई” और अगर नहीं किया तो बहुन......द बन गये..। ये किसी भी लड़के या लड़की की वो उमर होती है, जब सेक्स की फीलिगं अपने शबाब पर होती हैं जब परिवार चोखट से बाहर ना जाने दें भाई-दूज से कुछ और भी बन जाता हैं। जब मेनें पहले-पहल ये बात उसके मुह से सुनी तो आखों से आसु निकल पड़े...। मेरे उसे कहा कि कभी तुमनें ऐसी बात मम्मी को नहीं बताई..वो बाली एक बार उसके अपने भाई और एक कज़न को सेक्स करते देख लिया था। दोनो गै वाले काम कर रहे थे..रोती-रोती मम्मी के पास गई, सारी बात बताई..मम्मी बोली अनदेखा करे दो...।“ ये कहकर उसकी आखें छलक गई..मेनें उसे लगें से लगाया, क्योकि उस वक्त उससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं करता था..पढ़ रहा था, नौकरी नहीं थी..अगर होती तो यकीन्न उसी समय उससे शादी कर लेता और उस घर लौटनें नहीं देता। यह था Social Rape, जब IPC377 हुआ करती थी। गै होना कानूनी अपराध था लेकिन परिवार पापी हो जायें तो पार्थना भला किसेसे कीजिऐंगा..। जो एक परिवारिक इज्जत का दरीचा बनाकर, उस गलीचे के नीचें औरत का सम्मान की समाधी लगा देते हैं..।

लड़कियों की आप बीती हो बहुत पढ़ ली अब एक लड़के का किस्सा भी सुन लीजियें..राजौरी का रहीस, गाड़ी-बंगले में बसर करनेवाला..। हम लड़को के सामनें हमेशा शैखी बखार्ता था, कि मैं जब चाहु अपनी किसी गर्ल-फ्रेंड के साथ सेक्स कर सकता हु..कभी-कभी तो दोनो लड़कियों के साथ एक साथ..। फिर एक दिन उसने इसका राज़ बताया।। बाला “ देखो यार जब आप किसी भी लड़की से स्मूच (लिप-किस) करते हैं तो उसकी आंखे बंद हो जाती है..उसी टाइम में अपने सैल-केमरे से MMS बना लेता हु..फिर तो जब चाहे जो मर्जी करों..एक के साथ या दोनो की मार लो..” । ऐसे लड़को की कमी नहीं है जो पहले तो लड़कियों का कस्में देते नहीं थकते फिर उसकी इज्ज़त पर थूक कर आगे भड़ जाते हैं..इसे करते है रज़ामंदी से रेप...। जब लव-यू, किस-यू कहें तो आप और मना करना तो बाप..कि मेरा परिवार नहीं मानेगां और मैं अपने परिवार का साथ नहीं छोड़ सकता..। लड़की अकेली..ठगीं सी..बेबस..क्योकि ये रेप धोलाकुआं पर किसी अंजान ने नहीं उसके प्यार ने किया था..।

देखियें, बलात्कार - सैक्स और समाज का चश्मा जवाब मेरें पहले कथन में ही छीपा है कि ये एक Sexual-Physical मामला हैं। क्योकि एस ताकतवर हमेशा कमजौर को दबाता आया है चाहे मुद्दा मुल्क का हो या मनुष्य का..। Physically हो सकता है कि एक लड़की मार्शल-आर्ट सीखकर दस लड़को को मजा-चखा सके लेकिन दसों लड़िया एक नहीं हो सकती..। Sexual इसलिये कि अगर आमतौर पर लड़किया ज्यादा बलशाली होती हो बलात्कार लड़को का ही होता..। अगर आपको मेरे बातों पर भरोसा नहीं तो मेरे पुरुष-पाठक कभी देर-रात दिल्ली के किसी पांचसितारा होलट, राजपथ, पंडारा रोड़, सीपी या अशोक मार्ग पर ठीक-ठाक कपड़े पहनकर खड़े होकर देखें..। कम से कम दस आलिशान कार को आपने रास्ते पर आकर खड़ी हो ही जाएगीं..। जिसमें से 30-40 उमर की औरतें निकल-कर आपको पैसा ओफर करेगीं..एक रात के 15000 तक मिल सकते हैं। यानीं Sexual मुद्दा पर कोई मतभेद नहीं चाहें मामला जेपी-रोड़ का हो या पंडारा-रोड़ का लड़के और लड़ियां दोनो समान है और सामान भी..खरीदार चाहियें..।

आपके मन मैं दो सवाल उठ करे होगें पहले पंडारा-रोड़ का रहस्य मैं कैसे जानता हु..क्या मै भी जीगोलो को नहीं तो साहब पैशे के पत्रकार होने की वजह से रात भर मीडियां की मंडी और सेक्स का बाजार चलता रहता है और दुसरा सवार बलात्करा पर बहस और ब्लॉग लिखना बहुत आसान होता है..अगर खुद की पत्नी या प्यार के साथ हो तो अक्सर जनाब के पास जबाव नहीं रहता..तो जान लीजियें मेरा जवाब हैं हा..साथ-संबध और शादी भी..डंके की चोट पर..अंतिम सांस तक क्योकि परिवर्तन हमारे बस में हैं....!!!

गुरुवार, नवंबर 11

कनपुरा टू वाशिंगटन – ओबामा लाइव

मैं किसान हूं..पढ़ा-लिखा किसान, सोच के चश्मे से सच को देखना वाला इसलिये नाम बताना जरुरी नहीं समझता क्योंकि नाम में जाति की ज़जीर और मजहब के मायने तलाश लिये जाते है। जगह बताना लाज़मी है क्योंकि ये कहानी का मेरे गांव से वांशिगटंन तक का वास्ता है। मैं कनपुरा का निवासी हूं..नाम अंजान लगा..होता है आप दिल्ली-मुंबई वालो को वैगस और वैनिस के होटलों का नाम पता है देश के दर-दर का नहीं...लेकिन जैसे राहुल के जाने से कलावती का घर ससंद में फेमस हो गया ठीक वैसे ही आबोमा का मेरे गांव से नाता है। नाता रोटी या बेटी का नहीं, कमप्यूटर और इंटरनेट का...। वो महारे गांव प्रधाने 14*14 इंच के मॉनिटर से..क्या दिन था वो..।

मैं रोज़ सुबह अख़बार पढ़ता हूं..पता चला ओबामा साहब इस दफा 250 कंपनियों के मालिकान के साथ भारत आये हैं..निवेशक आये हैं, भला हो अमेरिका का..बीते चुनावों में महारानी मुख्यमंत्री मेरे गांव आईं थी..सड़क बनी थी, नलकूप में पानी था, बच्चों को भरपेट मिड-डे मील मिली थी...सो सोचा इस दफा जब आबोमा आन-लाइन आवेंगे तो महारी तक्दीर ही संवर जावेगी..। वो शिक्षा-कृषि और स्वास्थय की बात करेंगे..यानी बिहार में अब बच्चे जन्मजात अंधे पैदा नहीं होंगे, गांव की पाठशाला में छपला होगा, मेरे लड़की छठी में पढ़ने जावेगी क्योंकि स्कूल में बच्चियों के लिये अलग शौचालय बनेगा..। तभी जयपुर वाले भाई का फोन आया, बोला भाई बाहर देखो तुम्हारा गांव टीवी पर है। मैं निकला तो ईटीवी और सहारा के फटेहाल पत्रकारों की जगह..एनडीटीवी और टाइम्स नाउ के लोग खड़े हैं, कुछ फिरंगी चहरे भी हैं, और गोल-गोल छतरी वाली मोटर-गाड़ी भी...। लगा हो गई काया पलट, दिल्ली और जयपुर से अफसरान आये थे, सबको राम-राम किया और सोचा बराक जी के मै भी सवाल करुंगा आखिर हम दोनों में गांधीवाद का रिश्ता है, मैं शहर से पढ़कर आया हूं, टूटी-फूटी ही सहीं अंग्रेजी आती है।

ये क्या पंचायत घर में जाने के लिये कोई खास आईटी चाहिये मुझे रोका, भला हो चौधरी साहब का जो उनके टोकने पर अंदर जाने दिया। अंदर कुछ जवान बच्चे जोधपुर से मंगवाये हुऐ थे और हमारे गांव के पंच थे जिन्हें दिल्ली वाले साहब नये उजले कपड़े दे रहे थे...। चुप रहने का इंशाला हुआ, लगा ये कैसा दोनो सबसे बड़े लोकतंत्रों का मिलन जहां बोलने की आज़ादी तक नहीं, ओबामा आये अंग्रेजी में बोले मेरे पल्ले तो बस इतना पड़ा की आने वाले मौनसून से पहले हमें उसकी जानकारी की तकनीक मिल जाएगी..। मुझे रहा नहीं गया मेंने पाकिस्तान पर सवाल दागा पर ओबामा ने अनसुना कर दिया..भला ये कैसे गांधीवाद, ओबामा की कलाकारी किसी स्ट्रेसमेन जैसी लगी गाधींगिरी सिखाने की “ पाकिस्तान कि तरफ बुरा मत देखा, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो, चीन के लिये वो माओवदी दबंग है बुरा मत बोलो और भारत गांधीवादी गधा..” जिसे अरबो डालर के रक्षा सौदे करते है दुश्मनों का मारने के लिये लेकिन कृषि पर दिलचस्पी नहीं जिससे उसकी जनता जिंदा रह सके। करोड़ो के एयरक्राफ्ट चाहिये उड़ने के लिये पर बीमारियों से लड़ने के लिये अमेरिकी पेटेंट पर ढील नहीं...।

उसके दस मिनट बाद मीडिया के लोग चले गये, आधे घंटे में अफसरान लौट लिये, एक घंटा होते-होते पंचायत घर पर लगा नया-नवेला वॉल-पेपर उखड़ गया अब वो शाम तक सरपंच के घर की शोभा बढ़ाएगा..फिर मुझसे रहा नहीं गया और घर को लौट लिया..। बालक बताते है कि उस कम्पयूटर पर जिस पर एसएसपी के बच्चे खेलते है, मानों ठेठ देसी शादी की रसमें पूरी हो गई आबोमा की बारात बीत गई और नेट के साथ-साथ रोटी-बेटी का रिश्ता भी टूट लिया। रात में फिर से जयपुर वाले उसी भाई का फोन आया, बोल्यो मैने तुम्हे टीवी पर देखा था, खंडूवा मैला लग रहा था..मै बोला यहां तो लोग या तंत्र क्या सबमें मैल है..उसका बेटा बंबई के ताज़-होटल में काम करता है। वहीं टेलीफोन पर बता रहा था बोला चाचाजी ओबामा ने 2 मिनट का मौत 26/11 वालो के लिये रखा था..ऐसे 257 मौन पहले ही रखे जा चुके है..जब भी होटल में जब भी कोई कोई बड़ा जलसा होता है तो जन-गण-मन की तरह रतन टाटा के निर्देश पर बार-बार मौन होते है..माना हमे सिखाया जाता हो की मौन रहना ही बेहतर है और यहां मुर्दे को नौकरी मिलती है और जिंदा का ठोकरें..।

मेने बचपन में काबुलीवाले की कहानी पढ़ी थी..उस पर फिल्म भी देखी थी जयपुर जाकर शायद तब सोवियत हमले में लुटे-पिटे काबुल वाले अंकल भारत आकर करोबार करते थे आज भी एक सैल्समैन भारत यात्रा पर है..हमारे बिना वोट के पीएम बने मनमोहन उन्हें स्ट्रेसमैन की संज्ञा देते हैं आखिर हमारे सियासी रहनुमाओं को राष्ट्रनिर्माता अर्थ पता होगा भी या नहीं कोई नहीं जानता। और ओबामा सोचते होंगे कि काश मेरे मुल्क को ये आवाम मिल जाये और मुझे Statesman से salesman बनने की जरुरत नहीं होती...हावर्ड को आईआईटी से डर नहीं लगता, बैंगलुरु सिलिकॉनवेली को मात नहीं देता, गिरते वॉलस्ट्रीट की हालत उठते दलाल-स्ट्रीट जैसी होती और चप्पले-जूते चलने वाले संसद में खबर पढ़ने वाली मशीन (teleprounter) लगी होती।

आज कम से कम राहुल गांधी मध्यमवर्ग के लिवाज़ में नज़र आते है, प्रियंका डीयू की स्टूडेंट से कपड़े पहनती है। लालू-मुलायम-शरद परकटियों से खौफ खाते है, आरटीआई से मनमोहन के मंत्रिमंडल महल सा दिखता है, वरुण बंगाली बाला से शादी करते है, गडकरी साहब बीजेपी को पार्टी से एनजीओ बनाना चाहते है ये अंतर है। यहीं फर्क कॉमनवैल्थ के घोटाले के बावजूद खेल हिट हो जाते है, क्योंकि एक भारत वो भी है जो अपनी काबलियत के दम पर अमेरिका में नौकरी पाता है, यूरोप की अर्थव्यस्था को चलाता है, जिसकी दक्षता और डेड-लाइन से चीन भी चौंक जाता है। पर दोनों में अन्तर बहुत है जैसे मेरे कानपूरा के ओबामा और वांशिगटन के ओबामा। एक को तो गांधी के बंदर जैसे मेरे खेत नहीं दिखते, हथियार बेचने का ख्याल नज़र आता है, दवाई नहीं हवाई जहाज बेच जाता है और दूसरे वाशिंगटन के लिये 50 हज़ार रोजगार, अरबो डालर का निवेश ले आता है।

ओबामा एक ही है कनपुरा टू वांशिगंटन, वो सेलसमैन भी है और स्टेसमैन भी पर हमारे नेता उसे समझ नहीं पाते..जैसे आप AC में बैठकर BC करने वाले महिला आरक्षण का रागभैरवी गाते है पर आधी-आबादी की आजादी का नहीं, मुंबई को शांघाई बनाने की धुन है पर विदर्भ को हरियाणा और बुंदेलखंड को पंजाब नहीं..। बस मेरा कनपुरा एक दिन के लिये ही सही पिपली बनकर ओबामा लाइव हो गया.........?

शुक्रवार, अक्टूबर 8

भारत के बदलते भगवान : भोलेबाबा से सांईबाबा

मेरे किसी दोस्त ने फेसबुक पर एक सवाल पूछा था.. “शहरों में भोले बाबा की जगह, सांईबाबा क्यों ले रहे हैं ?“ सवाल बेवजह का लग सकता है, लेकिन बड़ा जरुर हैं। क्या भारत अपने भगवान बदल रहा हैं ? देखियें मै किसी बाबा से निजी सरोकार नहीं रखता। आपकी आस्था का सम्मान है पर उसमें विश्वास नहीं..। फिर भी इस सवाल पर सोचनें लगा – भला क्यों शहरों के बाबा शिव से सांई हो गये..जबकि आज से 20-30 बरस पहले सांई भग्तों की संख्या इतनी नहीं थी।

भोलेभंडारी नाग लपेटे है, राख रमायें है, धूणी चढ़ाये है तो क्या शहरी सभ्यता इसे स्विकार नहीं कर पा रहीं, लेकिन अगर ऐसा हो तो कृष्णा से सुन्दर भगवान भला कौन हो सकते है ?...और सांई भी तो कोई पॉप-स्टार नहीं रहें। फिर सोचा शिव को पंसद करना शायद ज्यादा जटिल रहा होगा..सोमवार का व्रत रखना, बेल-पत्ते से दुध तक की आहुती देना..कॉसमों-कल्चर शहरियों से लिये सरल रही रहता..।

सांई ज्यादा सहज भगवान है..एक साजसेवक की तरह उसका दर्शन है जो आम आदमी के दर्पण को प्यारा लगता है। उन्हें प्रेम से कुछ भी देदें तो वो आपकी मनोकामना पुरी कर देते है..। उसके चमत्कार भी कुछ हद तक अंग्रेजी फिल्मी की तर्ज पर लॉजिकल होते है..हिन्दी फिल्मी-फसाने जैसे नहीं...जिसका कोई सर पैर ना हो..। शिव गंगा को जटाओं में धारण कर सकते है, सागर का विष्पान भी..लेकिन आम आदमी आज इससे सरोकार कम रखता हैं। वो तो अपने रुपयों से कुछ पैसें दान कर समाजसेवा का संवाग रच लेता है और सांई का भग्त कहलाता हैं।

एक दुसरी कारण भी हो सकता है..श्रि.डीं के सांई-संस्था बहुत ओग्नाइंज़ड हैं। समाजसेवा के काम करती है, सांई प्रचार भी और भग्तों से दर्शन तक का टेक्स लिया जाता हैं। ये सांई-धर्म प्रचार की रीत हैं..ठीक वैसे ही जैसे ओग्नाइंज़ड तकनीक से अमेरीका आगे भड़ा..। कभी शैवमत भी इसी तर्ज पर तरक्की पर था। जब शैव अखाड़ें, वैष्णों अखाड़ों से भी आगे थे। चारों शकंराचार्य शिव-उपासक थें और भारत शिवमय हुआ करता था।

इतिहास देखे तो महोम्द-गज़नवी की सोमनाथ-मंदिर पर चड़ाई याद आती है, कैसे शैव-अखाड़ों ने महोम्द की सैना तो दो महिनों तक सोमनाथ को फतह नहीं करने दिया। कैसे किसी सैनिक-लश्कर से चंद हजार भग्तो से लौहा लिया। वो भोलेबाबा के स्वर्ण युग था। मेंने खुद हरिद्वार के कुंभ में देखा था, आज के लोक नागा और शैव अखाड़ो से खौफ़ खाते है। उन्हें देख ऐसे नांक-मुह सिकोड़ लेते है, मानों दिल्ली के किसी वयस्त चौराहे पर भीख मांगते किन्नर को देख लिया हो। उसके लिये बनी श्रृद्धा खो चुकी है और भूत जैसी दिखती काया से लोग खौफ ही खाते हैं।

हांलाकि आज भी कवड़ियों से ट्रेफिक जाम होता है, लोग अपना कर्म करने के लिये दफ्तर लेट पहुचतें हैं..लेकिन अब युवाओं में कवड़ियों के लिये वो भाव नहीं बचा..कैलाषखेर के गानों में मस्ती करनेवालो को, जबरन लीफ्ट लेने वालो को..भला कोई भग्त की संज्ञा दें भी तो कैसे ?

वहीं सांई के नाम पर समाजसेवा कम से कम शहरों में तो जोरों पर हैं। जहां सेवा होगी वहीं शिव होगें और सांई भी...। जहां भगवान और भग्त में दूरियां होगी, पूजा-विधि किसी आफत सी लगेगी। तो उसका हाल वहीं होगा, जो कभी जैन धर्म का हुआ था..बोद्ध ज्यादा सरल धम्म था..उसे भारत से जापान ने चीन, थाईलेड, लंका होते हुऐ धारण किया और जैन दिग्मंबर बनना सबके बुते की बात नहीं थी।

नानी की कहानी याद है - आपको..मीठा खाकर रात में मत निकलना, भूत चिपट जाएगा । आज भी कुछ ऐसा ही होता है। कभी SMS और कभी E-MAIL के नाम पर कहा जाता है कि अगर ये मैसेज आगे नहीं भेजा तो बुरा होगा और भेजा तो आपका प्यार – आपके पास..। नानी की कहानी ..से intel-core-2010 तक बहुत कुछ बदल गया है लेकिन इंसानी फितरत नहीं बदली।

धर्म को मैं मार्कस की तरह अफीम तो नहीं कह सकता लेकिन जब तक धर्म जोड़ने की बात करता हैं, समाज से सरोकार रखता है मै उसके साथ हु..लेकिन 47 का देश, 84 की दिल्ली, 92 के यूपी और 2003 के गुजरात के साथ नहीं..। मेरा वास्ता उस कन्जको से हो सकता है जिससे कुछ गरीब लड़कियों को भर-पेट भोजन मिल जाऐं लेकिन उस नवरात्रों के व्रत से नहीं, जिसके चलते फल-सब्जी और दूध के दाम आसमान पर हो..क्योकि मेरे मुल्क में आज भी आधा-भारत अधुरा पेट सोता है। बात भले ही भोलेबाबा और सांईबाबा से शुरु हुई हो लेकिन इस मुल्क में बातों और बाबा-बापुओं की कोई कमी नहीं..। कुछ जेल में है और कुछ ई-मेल में.. मुझें याद है, बच्चपन में एक ही सरकारी-चैनल होता था दूरदर्शन और एक ही बापू – मोहनदास कर्मचंद गांधी..आज चैनल और बापू बहुत हैं....क्योकि भारत बदल रहा है...!!

गुरुवार, सितंबर 23

बारिश में भीगी-बिल्ली – दिल्ली

मॉनसून मोहब्बत का वक्त या मातम का मंज़र, मैं बाढ़ या बहार की बात नहीं कर रहा केवल आम बारिश और हम लोगो की बात बता रहा हूं। मेरी दो महिला मित्र रही हैं। एक कॉलेज के जमाने में थी और दूसरी जब मैं नौकरी पेशा बन चुका हूं। कॉलेज के जमाने में हम आम युवओं की तरह हम बारिश का इतज़ार करते हैं, उसमें भीगने का, खेलने का, हसंने का और घूमने का...भीगी दिल्ली धुली-धुली सी लगती थी...खासतौर पर विजय-चौक (इंडिया गेट) पर, फिज़ा में गर्मी के बाद की ठंडक थी, रास्तों पर मस्ती की रंगीनियां। डीयू में दोस्तों के साथ पंडित की चाय– शर्मा की कचौड़ी खाना... उसमें पानी छलकना, बरिश में बाइक रेसिगं, रिग रोड पर हल्ला-गुल्ला... बहुत याद आता है।

बमुश्किल तीन-चार साल गुज़रे होगें लेकिन मस्ती का वो मज़र बदल चुका है। आज मेरी महिला मित्र को मॉनसून मातम सा लगता है, पानी मानो मुसीबत की एसिड-रेन, कार है तो ठीक वरना सब बेकार है। आखिर भीगने के बाद मैट्रो की सवारी नहीं हो सकती, मॉल के एसी से ठंड लगने का खतरा है, कपड़े चिपचिपें हो जाते है। लेकिन क्या महज़ चंद सालों में मॉनसून का मंज़र बदल गया?

आपको ये कहानी मेरी लग सकती है, लेकिन इस बेगानी कहानी का सरोकार बुद्धू डिब्बे (कम्पूटर) के आगे बैठे आप से भी है। यकीन नहीं आता, तो चलो आपको थोड़ा फ्लैश-बैक में लिये चलता हूं। छुटपन में मां हमें बताती थी, कि जब चींटी के पंख निकल आयें या चीड़ियां रेत में नहाने लगे तो समझो बारिशों का मौसम करीब हैं। कुछ याद आया !! अख़बार के उस पन्नें में बारिश में नहातें गरीब बच्चो की तस्वीरें, मस्ती करती लड़कियों के फोटो..कितना सुकून देता था। पास के सोम-बाज़ार से हरियाली-तीज की शॉपिगं, सरकारी चैलन (डीडी-न्यूज) पर रोज़ रात देखना कि, मॉनसून कितने दिनों बाद आ रहा है। पहली बारिश में मद-मस्त होकर नहाना..घर पर पूरे परिवार के साथ गर्मा-गर्म पकोड़े खाना। ये पढ़कर ही चहरे पर चमक आ जाती है ना !!

मैं स्कूल में हुआ करता था बॉबी देओल की एक फिल्म आई थी– बरसात। हिन्दी फिल्मी-फंसाने में भी बरसात बहार का सिम्बल हुआ करती थी..आज तो मुबंई में हुई आफती-बारिश पर इमरान हाशमी की फिल्मों का चलन है। कभी कक्षा पहली की किताबों में मुल्क का मासूम बच्चपन पढ़ता था, कि भारत एक कृषि-प्रधान देश है जिसकी लाइफ-लाइन मॉनसून है। त्योहार इसी शुरु होते थे..हसीं भी और खुशी भी...

आज कि किताबों में भारत कृषि-प्रधान देश से वैश्विक-आर्थिक महा-शक्ति बन गया हैं। दिल्ली का यमुना-खादर जहां कभी फसलें लहराती थी, बारिश में बच्चे तैरते थे, आज अक्षरधाम मंदिर और खेल-गांव खड़ा है। बारिश अब बहार नहीं ब्रेकिंग न्यूज बनकर आती है। कल किसी चैनल पर आ रहा था – ब्रेकिगं न्यूज राजधानी में बारिश, आफत में दिल्ली। मेरे भाई मॉनसून में बारिश नहीं होगी तो क्या रेत की आंधिया चलेगी, और बारिशों में पानी गिरना भला कौन सी ब्रेकिंग-न्यूज है? ट्रैफिक जाम तो आये दिन होता है तो क्या भगवान पानी बरसाना छोड़ दें..यमुना आपके घरों तक बाढ़ लेकर नहीं पहुची है साहब, आपके उसकी ज़मीन छीनकर वहां अपना बसेरा बना लिया है। पता नहीं आज-कल अख़बारे से वो बारिश के पानी में खुशी में भीगती युवतियां और तैरते बच्चे कहा खो गये।

हम लोगों को एसी की आबो-हवा इतनी बेबस बना चकी है, कि ठंडी पुर्वा (बरसाती हवा) रास नहीं आती। डर तो इस बात का कि कहीं आते वाले पढ़ी पहली बरसात में भीगने के स्वाद ही भूल ना जाये। अपनी कार के शीशा को जरा उतारकर देखो नन्ही-बूदें कुछ कहना चाहती है। बारिश में आज भी पंछी अपने गीत गाते है, लेकिन हम एफएम के दीवानों का उनका सुर सुनाई नहीं देता। सुने भी तो कैसे, हमारे कान तो ईयर-फोन से बंद हो गये हैं। चिड़ियां के घोसलों को फ्लैटो में रहकर हम लोग बादलों को निहारना ही भूल चके हैं। भूल चुके ही बादलो में कभी परियों की कहानी दिखती थी..शक्ले पुरानी दिखती थी।

बारिश से बाहार आज भी आती है, दिल्ली पानी से धुली-धुली हो जाती है। मॉनसून मस्ती और मुहब्बत की राग-भैरवी गाता है, चंद दिनों के लिये सही गंदा-नाला बन चुकी यमुना नदीं सी नज़र आती है। परिवार वालो के पास एक दूसरे के लिये वक्त हो तो सरोईघर में पकोड़े तले जा सकते है। बेबस ट्रैफिक जाम में फंसे हम लोग अगर एक पल लिये बच्चे बन जाऐं, तो ये पानी आज भी प्यारा हैं, काग़ज की किश्ती की तरह, रिम-झिम फुहारें सनम की यादें आ भी दिलाती है, बारिश का शोर में मां की लोरी याद करते देखो.. मॉनसून के फिर मुहोब्बत हो जाएगी।

शुक्रवार, सितंबर 17

जातिगत – सच, सवाल और सरोकार

मै पहले ही आपको बता दूं, जो एतिहासिक थ्योरी मैं रखने जा रहा हूं..उससे मै भी पूरी तरह सहमत नहीं हूं और न ही वो परिपूर्ण है। किसी जाति का उत्थान कैसे होता है ? ये सवाल भारतीय समाजशास्त्र में गूढ़ रहस्य है। सविंधान सभा के कुछ सदस्यों को इसका जबाव बिट्रिश-लोकतंत्र की देन - आरक्षण में नज़र आया..हालांकि कुछ जानकार आरक्षण को महज बिट्रिश या पश्चिम की देन नहीं मानते..जब मुनस्मत्रि को पढ़ने का हक केवल सवर्णों और खासतौर पर पंडितो को दिया गया था, वहीं अगर कोई स्त्री या शूद्र इसे देख या सुन भी ले तो उसके उपर अनेक दंड दिए जाने के विधान थे, वो भी एक तरह का आरक्षित विधान ही था। जैसे हिन्दु इतिहास में परशुराम से पहले राज अधिकार महज क्षत्रियों को था..बाद में मौर्य (मयूर पालक), फिर गुप्त (गुप्ता) भी राज के ताज से नवाज़े गए।

लेकिन सवाल जस का तस है, कि कैसे किसी जाति का उत्थान सम्भव होता है। इसके लिये कुछ तथ्यों को भी लिया जा सकता है। जैसे गुप्त काल (350ई) तक राजपूतों (ठाकुर) को उदंड लड़ाके माना जाता था, उस दौर में वो हूर्ण कहलाये। लेकिन 606ई में राजा हर्षवर्धन के पतन के बाद राजपूतों से साथ भी राजवंश जुड़ने लगा..चौहान, पाल आदि। जब पहले-पहल अरबी हमलावर (मुस्लिम) ने भारत का रुख किया तो उसका सामना राजपूतानी तलवारों से हुआ। उस वक्त जाटों (चौधरी) को आदिवासी जाति माना जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कुछ सौ साल पहले राजपूतों के लिये कहा गया था। एतिहासिक शाक्षय है, कि जब मुहम्मद गजनवी का लश्कर लौट रहा था.. तो जाट कबीलों से उन पर पीछे से हमला किया..हालांकि उसमें जाटों को मुंह की खानी पड़ी..लूट की कीमत उनकी औरतों तक को चुकानी पड़ी।

वक्त कभी एक सा नहीं रहता.मुगलो के उत्थान में जिस तरह पृथ्वीराज, राणा सांघा और महाराणाप्रताप की कहानियां किस्से बन चुकी थी..तब तक राजपूतों के सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा जाने लगा था..वैसे ही मुगलों के पतन के करीब मर्द-मराठा (शिवाजी), चंद्रवशीं-जाट (सूर्जमल) और खालसा-जटसिख (रंजीतसिहं) के राज्यों और करनामों ने भी इन जातियों को भी क्षत्रिय समाज का अभिन्न अंग बना दिया। इन्हें ब्रिटिश आर्मी में भी मार्शल रेंज माना गया।

1857 के पहले हुई आदिवासी क्रांतियों से गुर्जर लुटरे से वीर कहलाने लगे, खुद को वासुदेव कृष्ण के जोड़कर अहिर (यादव) की यदुवंशी क्षत्रिय मानने लगे..लेकिन राज ना होने की वजह से गुर्जरों और यादवों को, ठाकुर (राजपूत)- चौधरी (जाट) का सम्मान नहीं मिल पाया।

1947 में मुल्क-बंटा, नया वोटबैंक भी बना सो जातिगत सियासत ने उन्हें सम्मान दिलाने की कोशिश भी की..मैने अपने जीवनकाल में देखा, कि जब मुलायम सिंह यादव सूबे के वजीर (उत्तर-प्रदेश) बने तो उनकी सुरक्षा में लगा कोई भी जवान अहिर नहीं था। यादव (राव-साहब) ने फिर एक मुहिम चलाई और यूपी पुलिस में यादवों का आकड़ा बढ़ने लगा, कुछ लोग उसे यूपी-पुलिस में हुई भर्तियों के घोटाले से भी जोड़ते हैं। बिहार में लालू जी की सत्ता-स्थापित हुई तो..तथाकथित भूमिहार कहा - अब गाय चराने वाले लल्लू भी सूबे की सरकार संभालेंगे...। लेकिन दोनों यादवों ने यादव जाति को राज और राजनीति में स्थान दिला दिया। आज यादव भले ही ओबीसी का अंग हो, लेकिन किसी भी तर्क (आर्थिक-सामाजिक) पर पिछड़े नहीं कहलाये जा सकते हैं।

अब बात करें गांधी के हरिजनों की या बाबा के दलितों की..बाबासाहब और बहजनी को छोड़कर कोई बड़ा उलटफेर करने वाली शख्सियत इनके लिये नहीं रही। हालांकि राममोहन राय, गांधी जैसे अगड़ो-पिछड़ो के उत्थान का बीड़ा उठाया या फिर साहूजी मानंद्य कुछ समाजसुधार कार्य हुई। लेकिन बड़ा उलटफेर पूना-पैक्ट (1942) के वक्त देखने में आया। जब देश के सबसे बड़े नेता गांधी के समकक्ष अम्बेडकर ने बैठक की..और जातिगत आरक्षण की नींव भी कहीं ना कहीं उसी से पड़ी। फिर मायावती ने अपने गहनों-सियासी सोच (मनुवाद से मानववाद) और प्रशासनिक शक्ति से, ये जता दिया कि पैसा, बुद्धी और शौर्य किसी खास जाति की जागीर नहीं है।

हालांकि कुछ सियाने इसमें में कमियां निकाल लेते है, कि दलित होने की वजह से व्यक्तित्व मजबूत नहीं होता। जिस तर्ज पर सुभाष-भगत सिहं ने गांधी की आंधी के खिलाफ वैचारिक लड़ाई लड़ी थी। वो मादा बाबासाहब में नहीं था, वो तो धर्म की जंग भी हार गये और मरने से पहले हिन्दू धर्म को त्याग कर बुद्धं धर्मं गच्छामि बन गये थे। जिस जोश के साथ जेपी, चरणसिंह कांग्रेस राज के खिलाफ खड़े हुये थे वो ताकत बहनजी की बसपा ने कभी नहीं दिखाई, वो तो बीजेपी, सपा और कांग्रेसी समेत सभी घाट का पानी पी चुकी हैं। लेकिन जन्नत की हकीकत तो यही है कि, इन दोनों के अपनी जाति का जलवा पहले-पहल भारतीय लोकतंत्र में दर्ज जरुर करवा ही दिया। आज पंजाब-हरियाणा में दलित-गुरुओं के डेरो का डंका है। रोटी-बेटी का रिश्ता चाहें अभी दूर की कौड़ी हो लेकिन छुआछूत का कलंक मिट चुका हैं।

जो जातियां खुद को अगड़ी मानती है, वो भी आरक्षण की हड्डी के आगे, अपनी लालची लार टपकाये, दुम हिलाती दिखाई देती है..उसका उत्थान भी राज्य से हुआ था और दलितो का भी राजनीति से हो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे नंदवंश ने पालि, मौर्य ने प्राकृत, गुप्त ने संस्कृति, खिलजी-तुगलक ने अरबी, मुगलों से खारसी और कांग्रेस ने हिन्दी को बढ़ावा देकर राज-भाषा बना दिया। लेकिन क्या इस जातिगत अवतार का रास्ता आरक्षण की नीति से तय होगा क्योंकि विश्व इतिहास साक्षी है कि सोवियतसंघ में जिन मजदूरो-किनासो की CPSU से बुरजवा कार्ति की नींव रखी थी..बाद में वहीं अभिजात वर्ग बन गये और रुसी विभाजन का कारण बने। आरक्षण भी एक जाति में एक अभिजात वर्ग का रचयिता है। कैसे रामविसाल के बेटे को आरक्षण किया जा सका है? कैसे दलितो पर जुल्म करने वाले, अमीर किसान जात OBC हो सकते हैं? क्योंकि पढ़ा लिखा मुस्लमान कहता है कि काश वो हिन्दू होता और पिछड़ा हिन्दू होता?

इन सावलो के जवाब मेरे पास नहीं है, ऐसा नहीं है की मेने इसका जवाब खोजने की कोशिश नहीं की Y4E और आरक्षण विरोधी मुहिम, समान भारत की जंग में मैं भी लड़ा था, लेकिन जाति का जंजाल बहुत-बलवान हैं। ये सवर्णों में (बाहमण-क्षत्रिय) में लड़ाई करवा जाता है, दलितो में (अभिजात और पिछड़े) में बंटवारा कर जाता है। जाति है कि जाती नहीं..ना रोटी से ना बेटी से..ना लोकतंत्र से ना भीड़तंत्र से..ना लव-मेरिजों से ना इंटरनेट से...। इसका जवाब मेरे पास नहीं, आपके पास हो प्लीज बता दें..जाति क्यो नहीं जाती ???

गुरुवार, सितंबर 2

ये बाबरी लीला किसके लिये - इंसान, भगवान या सियासी शैतान?

दिसम्बर 1992 में, मै बहुत उत्साहित था घर के ब्लैक एंड वाइट टीवी में सरकारी डीडी पर खबरें महीनें की शुरुवात से दिखाई जा रही थी,कि देश में बहुत बड़ा होने वाला है। दिल्ली की सबसे बड़ी कोर्ट उसे रोकना चाहती थी और दिल्ली(केंद्र)के साथ साथ लखनऊ(राज्य)सरकारें उसे रोकने के दिखावें का दम भर रही थी। मैं उत्साहित था, क्योकि 5-6 साल की उम्र में आम बच्चों की तरह मुझे भी रामलीला देखना का शौक था। खासतौर पर आखरी 3-4 दिन क्योंकि उस वक्त राम-रावण का युद्ध होता है..सभी बच्चो की तरह मुझे भी मज़ा आता और मैं तालियां बजाता था। रामलीला हुये महज दो मास गजुरें थे, सो बाबरी-विवाद पांच साल के बच्चे को तमाशा या नौटकीं सा लगता था।

मै नहीं जानता था ये मोहल्ले का मेला नहीं मुल्क का मातम होगा। राम-रामण का युद्ध नहीं राम-रहीम की मानवता की मौत होगी। जिसकी लपटों में दशहरें का दहन नहीं गोधरा की रेल जलेगी, दिपावली के पटाखें नहीं मुबंई में बंम फटेंगें, ईद की सेवइयां नहीं गुजरात का सन्नाटा मिलेगा और हिन्दू-मुस्लिस (हम) से हिन्दुस्तान बनेगा नहीं हिंसा-मातम (हम) से हिंद बंटेगा। अख़बर जो खुद को बादशाहं ऐ हिन्दौस्तान कहलवा कर खुश होता था, उसी हिन्दौस्तान को आडवनी अपनी वाणी में हिन्दुस्तान कहकर कोमी खुशी का अंत करेगा। अयोध्या तो बस झांकी है अभी मधुरा-काशी बाकी है जैसे नारों पर चंद भगवा बदावत करेगें, साधवी-प्रज्ञा आंतकी बनेगी और जिहाद के जहर से कहफेआज़मी का आजमगढ़ं आतंक का अंधा कुवा बना जाएगा।

बचपन की रामलीला में तीर नकली होते थे, जिसे चलाने पर तालियां मिलती थी फिर आज अमन का अंत करने वालो को गालियो की जगह वोट क्यो मिल जाते है। मै बच्चे से बड़ा हो गया, पहली कक्षा से पत्रकार बन गया लेकिन ये इसका जवाब आज तक नहीं मिला। गांधी के रामराज्य और बीजेपी के रामराज्य में फर्क हो सकता है, लेकिन राम दोनो में कॉमन फेक्टर है। क्यों राज्य के चलाने लिये हमें राजा (राम जैसा अच्छा या रावण जैसा बुरा) की जरुरत पड़ती है, चाहे वो हिन्दुओं का राम हो या मुसलिमों का खलीफा। प्रजा, जनता क्यो नहीं बनती ?

रामलीला का एक और वाक्या याकीन याद है। जब राम-सीता की शादी होती है, रिक्षी ज्यौतिष के हिसाब से जोड़े के मंगल भविष्य की आकाशवाणी करत है, सभी गुण मिलाते, कुणलियां दिखाते है। ठीक वैसे ही मीडियां और बुद्धीजीवी मनमोहन सरकार का मगंल गान करते है। खुद अर्थशास्त्री प्रजानमत्रीं हमें भारत का भविष्य लालकिले की प्राचीन के लिखा खाते हैं..लेकिन हम लोगों को वनवास की जगह महगांई डायन मिलती हैं। सुरपनाखा की तरह राजपुत्र लक्षमण यानी तथाकथित अगड़ी क्षत्रिये जातियों (खाप-पंचायतों) ने प्रेम-विवाह या गोत्र विवाह के नाम पर प्यार करने वालो की बलि दे दी और हमारे नेता राम के समान पास खड़े देखते रहे। बाली बने भुमाफिया-उद्योपतियों ने किसाने के उनकी जमीने छीन ली, लेकिन कोई राम नहीं पहुते। राम (नेता) पहुते भी तो कैसे वो तो बह्मास्त्र प्राप्ति के लिये न्यूकलियर बिल का हवन करने मे बिजी थे। परमाणु करवार पर कानून आ सकता है जिसका फायद दशको बाद मिलेगा पर जमीन-अधिगर्हन पर नहीं जिसकी कीमत किसान आत्महत्या करके, नक्सली रास्ता अपनाकर या शहरी-बंजारे बनकर चुका रहे है।

ऐसे राम का क्या फायदा तो अपनी स्त्री को सम्मान ना दिला पाये। आपने पास बैठना का हक उससे छीन ले। ठीक वैसे ही जैसे संसद में कुछ सिलासी लोग महिला बिल पर कर रहे है। आज कोर्ट का जजमेंट बाबरी मसले पर आने वाला है, लेकिन आज मैं उत्साहित नहीं हु..उससे पहले ही अपनी विचार-लीला की कहानी सा ब्लॉक लिख रहा हु..क्योकि शायद कुछ नहीं बदला चाहे बात हर साल की रामलीला की हो या पांच साल के चुनावो की..प्रजा का काम तालियां बजाना है गालियां सुनाने के लिये तो राम-राज्य के नेता मौजूद है। हो सकता है इस दफा भी रावण के पुतले की जगह मजहबी लहु की लंका जले..कोई हनुमान इसे भी हाई-जेक कर ले जाये..और तुलसीदास बने हम लोग (मीडियां वाले) इस कथा को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर अपना पैशा निभाये। पर आपका क्या ? तुलसी को तो राजकवि का दर्ज मिल जाएगा..राम-रावण की तर्ज पर सरकार और विपक्ष की कहानी चलती रहेगी और आपकी चितायें जलती रहेगी..!!

लेकिन फिर ना जानें क्यो इस दफा देश कुछ बदला बदला सा लगता है। गूगल कहता है, कि इंडिया और भारत अलग है। ठीक वैसे ही जैसे मेरे घर का टीवी ब्लैक एंड वाइट से रंगीन हो गया है। जिसमें काला-सफेद झूठ ही नहीं..इंसान और इमान के सभी रंग दिखते है। सियाने कहते है कि हमारे देश में दो तरह लोग रहते है - मूक प्रजा जिस जीने के लिये जंनत नहीं महज जमीन नसीब हो जाये तो वो सियासी हुकमारनों की वोट-वदंना करते नहीं थकेगें और दूसरी तरफ इक्बाल की जम्हूरी जनता जो सियासी गलियारों सा विकास अपनी गलियों में भी चाहते है। मेरा सवाल प्रजा और जतना दोनों से है, कि क्या राम-बाबरी विवाद पर कोर्ट के फतवे-फरमान या फैसले से आपकी जमीन या जन्नत में कोई बुनियादीं अन्तर आता है ? अगर नहीं तो ये बवाल पर किसके लिये ? इंसान, भगवान या सियासी शैतान? अगर हां, तो ज्यादा उम्दा बात है, कि कम से कम कोर्ट के कानून का काला रंग, मज़हबी हिंसा के लाल-लहु से तो यकीनन बेहतर होगा..!!!

गुरुवार, अगस्त 26

भारत के ब्याह में बेबस बाराती बने – हम लोग

भारत में किसका रिश्ता बड़ा है - जाति, धर्म, वर्ग और क्षेत्र नहीं, जी नहीं..यहां रोटी और बेटी का रिश्ता सबसे बड़ा होता है। रोटी दिलाने के लिये सरकारी मनरेगा है और बेटी बचाने के लिये सरकारी कानून लेकिन दोनों बिकाऊ हैं। दोनों का सौदा होता है, कभी लड़के का बाप करता है और कभी साहूकार माई बाप।

देशी शादी में रोटी के साथ बेटी के रिश्ता साफ साफ नज़र आता हैं। बराती रोटी खाते हैं, चाहे उस भोज से ज्यादा की कीमत के तौहफो के नज़राने अदा करने पड़े, लड़की का बाप कन्यादान करता है, चाहे साथ में साइकिल से कार तक दहेज देना पड़ें। फिर भी बाराती और बाप खुश होते..आप इसे खुद-खुशी भी कह सकते हैं। आज भारत का ब्याह है, दुनिया की बारात दिल्ली आएगी, सड़कें सजी हैं, स्टेडियम सवरें हैं। खेल मंत्री कहते हैं की ठेठ देसी शादी की तर्ज पर कॉमनवेल्थ निपट जाएंगे। मुख्यमंत्री कहती हैं दिल्ली की दुल्हन तैयार है। प्रधानमंत्री कहते हैं कि देश के सभी युवाओं को ये शादी का खेल देखने स्टेडियम में आना चाहिये।

आखिर रोटी (पैसा) हम लोगों की लगी है और बेटी (इज्जत) भी हमारी ही है। रोटी और बेटी के नाते मीडिया को खेलों की मुखाल्फत छोड़ देनी चाहिए। चाहे रोटी के सरकारी चूहों के कुतरा हो, भष्टाचार के गहनों से भारत की बेटी सजी हो..लेकिन आप चुप रहिए – भारत का ब्याह है, बाराती सिर पर हैं, इज्जत की चटाई मत निकालो। सवाल छोटा सा कि क्या इस खेल के लिये दहेज जुटाना का जिम्मा सिर्फ जनता की जेब का है। क्या इस शादी से हम लोगों को रोटी मिलेगी और क्या चंद भ्रष्ट लोगों की कालिख पर चंदन का टीका भर लगाने से भारत मां भाल ऊंचा हो जाएगा।

ऐसा नहीं है इस हमाम में सभी नंगे है, कुछ कम भ्रष्ट हाकिमों में कंडोम भी पहने हैं, वरना 300 किमी मेट्रो, 30 फ्लाईओवर, सीपी की सूरत, रिंग-रोड़ की सीरत नहीं बदलती। लेकिन हम लोगों को इससे बेहतर की चाहत है। हम लोग 90 के राम राज्य की प्रजा नहीं रहे, कुछ पढ़ें-लिखे हैं, गूगल के चश्में से बसरत का बच्चा भी ये शादी देख सकता है, बिहार में लड़कियां साइकिल पर सवार हैं, यूपी के किसान चंद दानों के बदले जमीन नहीं देना चाहते और दिल्ली की बेटियां ब्याह में दहेज नहीं देना चाहती।

कभी किसी विदेशी-वेब में पढ़ा था कि भारत में 90 फीसदी महिलाओं के साथ रेप होता है, जिसे करने वाला कोई और नहीं उसका पति होता है, जिसे बिना रंजामदीं के सेक्स यानी बलात्कार को पुरुषार्थ की संज्ञा देते हैं। आज भी इस शादी के खेल में हम लोग ही सरकारी हाकिमों को दहेज दे रहे हैं और उसके बाद भ्रष्टाचार का बलात्कार भी हमी से होगा..और रोटी मिलेगी हाकिमो को।

गांधी के नज़रियें इस निकाह के देखें तो हमें असहयोग का रास्त चुनना चाहिये, क्योंकि चुनाव के वक्त तक तो हम इस रेप के घाव भूल गये होंगे। अगर राष्टमंडल खेलों को देखने कोई देशी-दर्शक पहुचें ही नहीं तो? सड़कों पर सवियर-अवज्ञया हो तो? अगर आवाम अफसरो को जता दें कि सरकार देश के सम्बल नहीं है, ज्महूरी जनता रोटी और बेटी से ऊपर उठ गई है। काली रात में दीपावली देखने के लिये हम अपना घर जला नहीं सकते..हम से हिन्दुस्तान है, इस ब्याह से भारत नहीं...!!!

रविवार, जुलाई 25

मोहल्ला बदल रहा है – बेहतर या बदतर...!!!

जो फर्क शायद घर और मकान मे है वहीं..कलोनियों और महोल्लों में भी नज़र आता है। एक रिश्तों का ताना-बाना है तो दूसरा दरकते संबधो और सपनों के बीच खड़ा ठूठ नुमा कंक्रीट का जंगल हैं। जहां एक रंगीन डिब्बे के आगे, फेसबुक के नागरिक हम लोग, गूगल से चश्मे से वर्चुवल-समाज में ब्रोडबैंड के ज़रियें ताना-बाना बुनते है।

मेरा पैदाइश दिल्ली के एक मिडल-क्लास इलाके सुभाष नगर में हुई नहीं लेकिन छुटपन में ही राजौरी-गार्डन में हम रहने लगे। पहली-पहल नगर से गार्डन रहते हुये डर लगता था। कि यहां के बच्चे अंग्रेजी बोलते होंगे, छुरी-काँटे से खाते होगें और गर्ल-फंड बनाते होगें। बहुत कुछ जुदा ही था, नगर में घरेलू-जेन सेट रखना हैसियत की बात थी, गार्डन में उसे हकीकत की निगांहो से देखा जाने लगा। जेंनसेट से काला-धुंआ निकलता है, पड़ोस की आबो-हवा में खलल डालता है, इस्तेमाल करना है तो इंनवर्टर करें। 90 के दौर में ये बात बहुत उम्दा लगती थी कि चलो किसी को तो पर्यावरण की परवाह है..लोग के घरों में बगीचे। लेकिन मेरी नंनी-आँखें उन बगीचों के अंदर से गरीचें देख नहीं पाई। आखिर गमलों में चार पौधे लगाने वाले लोगो का घर लड़की से फर्नीचर से पटा हुआ है। ठीक वैसे सी जैसे बिजली की कमी पर जेंनसेट की जगह इंनवेटर का जुगाड़, मानो इंनवेटर तो हवा से चलता है। ठेठ अमरीकी शैली..अपने मोहल्ले अच्छा दिखता रहे, मुल्क और मानवता की किसे पड़ी है।

पड़ोसी की एक लड़की बोली मुझसे दोस्त करोगें और किस करके चली गई। उस वक्त हम बच्चे Car 2 Car खेलते थे, इसे Plant 2 Plant का नवीन शहरी संस्करण कहा जा सकता है, जब पड़े कम और गाड़ियाँ ज्यादा होने लगे तो खेल का क़िस्से बदलने लगते हैं। हालाकी गाड़ियों संख्या आज जितनी नहीं थी। सरकारी अफ़सर अम्बेस्डर की सवारी करते थे, अमीर लोग फेयट पर चलते थे और नवीन अमीरीत के देन मारुती पर घूमने लगे थे। फिर एस्टीम और सीएलओ का जमाना आया और उसके बाद Plant 2 Plant की तर्ज पर Car 2 Car खेल भी ग़ायब हो गया। कारें ज्यादा हो गई थी और पार्किगं छोटी कोई आउट ही नहीं होता था।

महोल्ले के खेल फिर भी अपनी आखिरी सांसे से रहे थे, सामने का पार्क में जब शादियाँ नहीं होती थी तो किक्रिट का मेच लगता था। पड़ोस के मैदान में सर्कस का खेल होता था। आज उस पार्क में कंक्रीट का झरना लगा है और शादियाँ महोल्ले में नहीं हो सकती । कुल मिलाकर खेलना हो तो स्पोर्टस क्लब में दस हजार की फ़ीस देनी होगी और शादी रचानी ही तो दस लाख में होटल का बॉलरुम बुक कराना होगा। अब तो महोल्ले में रामलीला नहीं होती, रावण नहीं जलता, जलसा नहीं दिखता..फिर भी इसे पॉश ही सही महोल्ला कहा जाता है। जहां सर्कस लगती थी आज वहां दिल्ली के सबसे ज्यादा मॉल खड़े है, चौराहे की लाल-बत्ती खत्म करके फ्लाई-ओवर बना है, उसके उपर से ही मेट्रो गुजरती है मानो 20वी सदी का महोल्ला, 20 सास में हक्का-बक्का होकर ग्लोबल हो गया।

महोल्ला चाहे कोई भी हो खाना-और-बजाना हम लोगो शोक में शुमार हैं..पड़ोस के सरकारी स्कूल की पीछे बहुतेरे पंजाबी-ढाबे थे..आज भी पड़ोस में एक ढाबा है..जिसमें कुआं है, चटाई, गुड और खाट भी..लेकिन दाल की कीमत महज 1000 रुपये है। आखिर उसमें खेतो सी हवा एसी से आती है, कुऐ में पानी बिजली से चलता है और खाट महज दिखाने के लिये है बैठने के लिये नहीं। महोल्ले के घरों में जब फर्ज़ की जगह आइस-बॉक्स होता था जो खाना हर दफा ताज़ा बनता था..अब तो पिज्जा-पास्ता डीलीवर-मेन के स्कूटर से आते-आते ही बासी लगता है पर चप्पल-जुते एसी शो-रुम में सजे तरो-ताज़ा प्रतीत होते है।

महोल्ले के मायने बदल रहे है, मुझे पता है की मेरे फेसबुक पर 1350 दोस्त है लेकिन सामने वाले घर में कितने लोगो का परिवार रहता है ये नहीं पता। शायद पड़ोसी अंकल से ज्यादा मुझे गेट का गार्ड पहचानता होगा...क्योंकि अक्सर रात को उसी के दर्शन होते है। आज बच्चे X-Box3 में खेलते मजबूर है..आखिर पार्क तो खेलने के लिये बचे नहीं, बिजली कम जाती, महोल्ला रोशन रहता है..इतना रोशन कि, आसमान के तारे भी नहीं दिखते..। शादियों में दसी-ठुमके नहीं क्यूबा का सालसा दिखता है..चलो कम से कम अभी तक शादियों का रियाज़ तो है कल हो ना हो..जैसे आज शेर सर्कस में ना सही चिड़ियां-घर में तो मिलते..क्या पता कल वहीं बस चिड़िया ही दिखे।

जो महोल्ले बदल नहीं बाते पाते, उनमें ठसक रहती है, ठाठ नहीं..जैसे दरीयांगंज से दरीया (यमुना) दूर हो गई और गंज (महोल्ला)से गंजा बन गया है। राजौरी ने अपने रंग और रगीनं रखे, तभी तो उसका नाम है..पर नाम की नुमाइश से महोल्ले का नाते दरक जाते है और दरकते रिश्तों की रहीसी से दिल लगाना न्यु डेली की फितरत हो सकती है..देसी दिल्ली की रवायत नहीं।

गुरुवार, जुलाई 15

सपेरो के देश नहीं, संसान का गुरु है - भारत

संसार भारत को विश्वगुरु की संज्ञा देता है, अर्थात विश्व को ज्ञान और विज्ञान का पाठ पढ़ाने वाला अध्यापक। समूचे विश्व धरातल के रंगमंच पर हमारे मुल्क का किरदार भी एक टीचर जैसा ही रहा है। उसके कभी प्रीचर बनने की कोशिश नहीं की। भारत ने कभी नहीं विश्व को कभी नहीं बताया कि उसके विज्ञान का अविष्कार मिस्र के फैरो से पहले, मसोपोटामिया की कब्रों से पहले, एथेंस के शहरों से पहले, चीन की दीवार से पहले, रोम की रियासत से पहले, सिधुं और गगां के मैदानो में हुआ था।

दुनिया के बेहतरीन शहर न्यूयार्क के नगरों में जल निकास(नालियों) की व्यवस्था के पीछे हड़प्पा की जल निकास व्यवस्था का हाथ है। जिसकी नालियां सात से दस फुट चौड़ी और दो फुट गहरी थी, उसे कपास और पत्थर से ढका जाता है। न्यूयार्क ही नहीं महोब्त और नाव के शहर वेनिस की सोच भी सिधुंघाटी सभ्यता के विज्ञान की देन हैं । जिसमें 2700 ईसापुर्व में ही संसार के सबसे बड़े स्नानागार का निर्माण किया गाया था। चीन की महान दीवार बनने से दो हज़ार साल पहले ही बालाकोट में मजबूत ईटो की भट्टियां रहा करती थी। सिकंदर का देश स्पाटा खुद को युद्ध कला का सबसे बड़ा कलाकार भले ही माने लेकिन तलवार की खोज भारत ने 2300 ई.पू में ही कर ली थी। रोमनो की खेती की नींव भी भारत के हल से पड़ी थी, जिसका अविष्कार 1900 ई.पू में हो चुका था। जिस पेरिस के आइफिल टावर को सात अजूबो में शुमार किया गया है। लोहे की इस इमारत में जंग ना आने की वजह कभी किसी के जहन में नहीं आई। इस संदर्भ में आपको बता दें कि इसके पीछे भी भारत का विज्ञान है। ठीक वैसे ही जैसे अशोक का लौह स्तंभ हजारों साल पुराना होकर भी जंग से अछूता है।

लेकिन फिर भी अगर आपको यह अविष्कार और खोज शुद्ध विज्ञान नहीं लगते तो याद रहे भारतीय विज्ञान की फेहरिस्त किसी फलसफे से भी लम्बी है। आधुनिक चिकित्सा के जन्म से पहले 1500 ई.पू में ही भारत में मोतियाबिंद का ईलाज मुमकिन था, जिसके लिये गर्म मक्खन की पट्टियों का इस्तेमाल किया जाता था। रोम के लोग कांच के गिलास को भारत में आकार लेते थे, नैश का पशु चिकित्सा विज्ञान उस वक्त अतुल्य था, अजंता की गुफाओं में उखेरे चित्रों के रंग बेजोड़ थे। यह प्रमाण है की भारत सदा से विश्वगुरु रहा है चाहे वो लिच्छवी-गंणतंत्र की कला हो, चाणक्य के अर्थशास्त्र की राजनीति, तक्षशिला-नांलगा का ज्ञान या आर्यभट और भास्कराचार्य का विज्ञान।

प्राचीन भारत से नहीं मध्यकालीन हिन्दुस्तान भी विज्ञान के ज्ञान से अछूता नहीं रहा। जब समूचा युरोप अंधकारयुग में लीन था, चर्च के घंटो के आगे गैलिलियों की गोल धरती चपटी हो जाती थी, न्यूटन के नियमों को रोमन सामंत झूठा करार दे रहे थे, तब भी इस मुल्क ने विकास के नये पैमाने तय किये गये थे। दुनियां बारुद की खोज का श्रेय भले भी चीन को देती हो, लेकिन दक्षिण भारत के विजयनगर राज्य में इसके खोज चीन से कहीं पहले की गई थी। प्रशा तलकालीन जर्मनी, ब्रिट्रेन और नेपोलिनय बोनापाट के फ्रांस के पहले कागज़ के नोट दिल्ली में चलते थे। दुनियां में पहली बार महुम्द बिन तुगलक ने काग़जी मुद्रा की शुरुआत करवाई थी। 1782 में टीपू सुल्तान के पिता हैदरअली अपनी सेना में शॉट गन का इस्तेमाल करते थे, जिसकी ताकत को दुनिया प्रथम-विश्वयुद्ध तक पहचान भी नहीं पाई। उसी दौर में मराठा सेना राकेट के प्रयोग में निपुण हो गई थी, हालांकि संसार इसे चलाना एडॉल्फ हिटलर के काल में सीख पाया। दिल्ली और जयपुर के जंतर-मंतर खगोल विज्ञान की प्रयोगशाला ही नहीं, उस काल में संसार की सबसे सटीक घड़ी भी रहे है।

कुछ लोगों का भारत के लिये मानना है की जब सूर्य पश्चिम में उदित होता है तो पूर्व में काली रात की शुरुआत हो जाती है। अर्थात जब पूंजीवाद और उद्योगीकरण से लंदन और पेरिस आबाद हुये तब तक भारत का विज्ञान बर्बाद हो चुका था। ऐसे विज्ञानों को भारत के विज्ञान से पहले अपने ज्ञान की खोज-खबर कर लेनी चाहिये। पेड़ो-पोधो में जान होती है, इस ज्ञान को बुद्घ और माहावीर जी सदियों पहले ही अपने अनुयायियों को दे चुके थे। लेकिन 1920 में जगदीश चंद्रबोस ने विश्व में पहली बार अपने वैज्ञानिक प्रमाण से साबित कर दिया। सी.वी.रमन, होमी भाभा, विक्रम साराभाई के हुनर और विज्ञान का लोहा सारा संसार मानता है।

आजादी के बाद भारत के कदम भविष्य के रास्ते पर जब नहीं रूके तो पश्चिम ने उसके रास्ते पर रोड़े डालने की कोशिशें जरुर की। पश्चिम के देशों का मानना था कि आखिर तीसरी दुनिया का पिछड़ा देश, कैसे दुनिया के विज्ञान में आगे हो सकता है। जब अमेरिका ने अपने बेकार लाल गेंहू यानी पीएल-480 हमें भीख में मुहैया कराये तो हमने हरित-क्रांति की राह खोज ली। जब खेती के लिये हमें बिजली की कमी खली तब हमने भाखड़ा-नांगल बाधं बनाया जो दुनिया भर में बेजोड़ है। जब पाकिस्तान और चीन कश्मीर की सीमा पर अपनी सेनाओं को बढ़ाने लगे तो हमने संसार के सबसे ऊंचे लेह-लद्दाख हाइ-वे के निर्माण कर डाला। तारापुर में न्यूक्लियर इंधन देने में विदेशी सरकारें आना-कानी करने लगी तो भारत ने पोखरण-एक में खुद ही परमाणु परीक्षण कर डाला। 1998 के पोखरण-दो के बाद जब पश्चिम अपनी पूजीं और विज्ञान पर अकड़ जमाकर भारत पर प्रतिबंध लगा रहा था तो हमने स्वदेशी लड़ाकू हवाई जहाज तेजर, बीजींग तक मार करने वाली अग्नि-3 और अंतरिक्ष में भारत को उड़ान भरने के लिये जीएसएलवी और पीएसएलवी लॉच सेटेलाइट बना दिये।

भारत के विज्ञान की गाथा यहीं नहीं रुकी। दुनिया का तीसरा सुपर कम्प्यूटर – परम2000 हमारे देश में बना, एम्म का नाम एशिया के बहतरीन मेडिकल-कॉलजों में शुमार है। आईआईटी और आईआईएम की धाक समूचा विश्व मानता है। बीएचयू, डीयू, जेएनयू ज्ञान और विज्ञान के महान केंद्र है। नासा में 34% , माईक्रोसोफ्ट में 31% , आईबीएम में 27% भारतीय वैज्ञानिक और इंजीनियर हैं। यूरोप और अमेरिका में हर तीसरा डॉक्टर हिन्दुस्तानी है। आज भारत दुनिया की छठी अंतरिक्ष शक्ति, पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, चौथी सैन्य ताकत है। यह तो महज आगाज़ है प्रथम पंक्ति के भारत का। भारत में ज्ञान दिलों में और विज्ञान दिमाग में दौड़ता है। सुई से लेकर एटम बम इस देश में बनाये जाते है। संसार इसे विश्वगुरु यू ही नहीं कहता। भारत बीते हुये कल से आने वाले कल की तरफ एक बार फिर समूचे विश्व को भविष्य के विज्ञान के रास्ते पर लेकर आगे बढ़ रहा है।

बुधवार, जून 23

हम लड़ेंगे साथी – मुहब्बत के शहीदों के वास्ते

India is the nation of white man’s burden and a country of snake charmers. गोरो की इस कहावत को गूगल ने पलट कर रख दिया..आखिर गूगल के चश्मे से दुनिया को भारत का बाजार जो नज़र आता है। लेकिन शायद आज भी हम सपेरों और सांपो के देश में भी है। जो सांप (परिवार वाले) खुद अपने अंडों को (बच्चो) खा जाते हैं। सपेरे (खाप-पंचायत) उस सांपो को पालते है और सियासी सियाने इनका तमाशा बेतहाशा देखते हैं। दुनिया कहती है कि भारत बदल रहा है। ये मुहब्बत का मुल्क है, दौलत का देश भी..लेकिन महज समाजिक सांपों की केचुली उतार के देख लीजिये...नैतिकता का नंगा नाच समाने आ जाएगा..।

सांप भूख लगने पर अपने बच्चों का खा जाता है और जाति के ये ठेकेदार बुरा लगने पर..। केंचुली दोनों के पास है और जातिगत जहर भी। मैं हरियाणा चुनाव में जगह-जगह लाइव रिपोर्टिंग करता था। सड़को से समाज तक विकास देखा.. हरी खेती पर चलते महिंद्रा (ट्रैक्टर) और पक्की रोड पर चलती मर्सडीज गाड़ियां भी देखी..। हुड्डा जी के विज्ञापन पर पिज्जा का नाम आता था लेकिन प्यार के बोल नहीं..। अमेरिका के जो सियाने न्यूयार्क के टाइमस-स्वेर पर खड़े होकर चिल्लाते हैं, कि बाजार बांछे फैलाकर सबको समा लेता है...उन्हें जरा इस देश के अगड़ो की पिछड़ी सोच देखनी चाहिये..।

दिल्ली की पत्रकार को परिवार ये पढ़ाया तो सही लेकिन अगर वो सही-गलत का फैसला खुद करने लगे तो घरवाले खुद को खुदा मानकर उसे मारने का मन बना लेते है। हालांकि उनकी इस सोच के पीछे कई सिद्धांत भी मौजूद है। जैसे एक गोत्र में शादी करने से आने वाली नस्लों में खामियां आ जाती है। ठीक है वैज्ञानिक विचार है और ब्रिटेन के राज-परिवार का उदाहरण भी..। लेकिन कोई इन सियाने को समझाये कि जब ये गोत्र बने थे, तब जितनी आबादी दूर तलक के ईलाके की रही होगी, आज उससे ज्याद एक गोत्रों की है। हजारो और कहीं कहीं तो लोखों, फिर विज्ञान के ये ज्ञान उन्हें समझ भला क्यो नहीं आता..।


फिर ये सांप और सपेरे परम्पाओं की दुहाई देते हैं..। तो 4 वेद, 6 शास्त्र, 18 पुराण, 108 उपनिशदों में कहां लिखा है कि गोत्र विवाह करने वालो को मत्यु-दंड देना चाहिये। कम से कम वो प्यार करने वाले शादी तो करते है..। हमारे एक भगवान की तरह तो नहीं है जो रास रचायें किसी के साथ और रानी बनाये किसी और को..या दूसरे भगवान जैसे जिसे अपनी पत्नी से ज्यादा भरोसा अग्नि परीक्षा पर था और जिसने एक धोबी के करने पर गर्भवति स्त्री को जंगल का रास्ता दिखा दिया..। आपको मेरे बातें बुरी लग सकती है, बेहुदा भी..लेकिन मै तो लोक की बात करने वाला बेचारा हूं..क्या करुं, कभी परलोक देखा ही नहीं..। वो महान भगवान हो सकते हैं लेकिन बेहतर इंसान नहीं। बेहतर इंसान तो वो है जिन्होनें अपने प्यार को इस सांप और सपेरों के देश में शादी के मुकाम तक पहुंचाया..।

आम सांपो का फन दोहरा होता है..लेकिन इन आदम सांपो के फन के कई और-छोर हैं। जब इनकी दाल देश में गलती तो विदेशी माल को मानने में भी इन्हे मलाल नहीं..। Look West भी इनका एक फन है। आज-कल इस सामज के ठेकेदारो को David-Easton’s theory of right और UNO 1992 का चार्टर वो चार्टर जरा ज्यादा याद आने लगा है, जिसमें कहा है कि सरकार का फर्ज है कि वो उस क्षेत्र के लोगो की परमपराओं और मानव-अधिकारों की रक्षा करें। लेकिन एक और अंग्रेजी कहावत भी है, कि Less knowledge is more dangerous. वो 1992 के चार्टर को तो याद करते है, लेकिन सबसे पहले प्राकृतिक अधिकार (Natural Right) को नहीं..जो है “ जीने का अधिकार (Right to live) “ आप किसी की बलि नहीं ले सकते बड़ बोले भाईसाहब..। David-easton के साथ साथ Thomas hobbes, John locke और Rosso को भी पढ़े तो बेहतर होगा..।

लेकिन हम लोग अपने जवाब के लिये परदेश जाने की जरुरत नहीं हमारी मीडिया को चाहिये की खाप कि खबरों का बहिष्कार करें..ठीक वैसे ही जैसे प्रवीन तोगड़िया और राज ठाकरे सरीखे नेताओं के समाचारों के साथ किया जाता है। हमे चाहिये कि हमारी परमपारओं का शास्वत सच देखे कि,शिव के लिये के व्रत के पीछे सोमवार का वो मेला था..जिसमें कुंवारे लड़के-लड़कियां अपने साथी का चुनाव करती थे, ये ठेठ दिहाती सव्यंवर था। जिसे ये सांप सोचना नहीं चाहते। इतिहास देव-दासियों, नगर-वधुवो से पटा पड़ा है लेकिन ये पढ़ना नहीं चाहते। बसे इन्हें खाप और नेताओ की बीण सुनाई देती है..।

बलि और बलवान का इतिहास तो बरसो का रहा है। नारी की पूजा करो, पर उसे प्यार नहीं करने दो, वरण जाति के जहर से जान ले ली जाएगी। भला कोई समझाये कि लव-मैरिज में बराई क्या है। इससे जाति की जज़रीजें टूटती है, जो आपके मंडल और कमडल नहीं तोड़ पाये। दहेज का दर्द मिटता है, जिसे आपका काला कानून नहीं रोक पाया। जाति, रंग, क्षेत्र, भाषा और बोली एक होती है, जो काम आपके अनेकता में एकता के किताबी-बोल नहीं कर पाये। फिर बुराई भला है क्या , कोई नहीं जानता।

अरस्तु ने कभी कहा था कि, संपा के कान नहीं होते, उसे सुनाई नहीं देता और भगत सिंह ने कहा था, कि बहरो को सुनाने के लिये खमाका जरुरी है। विस्फोट विचारो का हो, कांति युवाओं की हो और इन्कलाब इष्क का..। आखिर एक गलत बात पर एक गलत बलि देखने से लड़-जाना बेहतर होगा..।

गुरुवार, जून 10

मीठा जहर पीते सुकरात बने – हम लोग

हमारे शहर एंथेनस से अलग दिखने होगें, गावं भी स्पाटा से जुदा है, लेकिन फिर भी हम भारत के लोगो का सरोकार सुकरात से सबक लेने वाल है। सियाने कहते हैं कि भारत में मीठे जहर का काम जातियां करती है और जाति है की जाती नहीं..। अल्लाह जाने की मुन स्मृति में ऐसा क्या राज़ है। सियाने ये भी समझाते है कि अगर मनु महारजा को नहीं जाना तो जाति नहीं जान पाओगे और उसका जाल भी नहीं..। लेकिन मुझे अग्रेजी के ISM और हिन्दी के वाद से नफरत है, ये जिस सिद्धांत के पीछे लग जाते हैं, उस सोच को चश्मा बना देते है..जिससे आपको दुनियां रंगीन नहीं काली या सफेद दिखने लगती है। हर चीज में बुराइयां ही बुराइयां नज़र आती है, भलाईयां नहीं..।

माक्सवादी निजी-पूंजी को बुराई मानते हैं और फेमिजिस्ट्र (नारीवादी) आदमियों को आवश्यक बुराई का दर्जा देते हैं। मानो दो प्यार करने वालों को ही नहीं, भाई-बहन और मां-बेटे के रिश्तें को गाली दे रहे हो..। मनु कथित हो या काल्पनिक लेकिन बड़े वाले जरूर रहे होंगे..आखिर उसके चलते हिन्दु ही नहीं इस्लाम और सिखों में भी जाति का जाल बुन गया..। हालांकि आजादी के बाद इस मज़र को बदले के लिये बड़े-बड़े मजमें लगे, जिसमें में एक हमारी संविधान सभा भी थी। जिसने जाति के जोतो को तो नहीं तोड़ा आरक्षण का पौधा जरुर बो दिया। अब आरक्षण का ये पौधा पेड़ बन गया है, जिसे मंडल और कमंडल से खुराक ने सीचा था। आज इस पेड़ पर फल भी लगने लगे है, क्या हुआ उससे गरीबों का पेट नहीं भरता पर नेताओ का वोट-बैंक तो भर ही जाता है।

वहीं हम भारत के लोग पालतू कुत्तों की तरह, जो खुद को पिछड़ा साबित करने के लिये लाइन में अगड़े होकर आरक्षण की पैडीगिरि खाने को बेताब है। मानो पूरा भारत बीपीएल कार्ड और रिजर्वेशन की खैरात खातिर करार में खड़ा हो..। इतने सलीखें की कतार यूपी के आश्रम या दिल्ली के रेवले-स्टेशन पर लगती हो, भीड़ की भगदड़े सैकड़ो बेगुनाहं मारे नहीं जाते। अगर जाति की ज़जीर को तोड़ने की कोई कोशिश भी करें, तो खाप-पंचायतों का खौफ है। आखिर उनके लिये तो सवाल जाति का नहीं, रोटी और बेटी का है। मानो दोनो सामान हो, एक भोजन की वस्तु और दूसरी भोग की।

एक खासियत और है हमारे देश में कि यहां सुधारक चाहे कोई ना हो सियाने सभी है..कुछ सियाने कहते हैं शिक्षा के फैलाव से जाति-जाती रहेगी। लेकिन ऐसा दिखना नहीं है, राजस्थान को ही ले-ले अलवर से जौधपुर तक सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों में जाति के जोते आपको दिख जाएंगे। ब्राह्णमणों का, राजपूतों का, जाटो का, गुर्जरों का और मीणाओं का अलग-अलग समुह इस सियानी सोच के चीथड़े उड़ाते नज़र आता है..।

इसके लिये दिल्ली से दूर जाते की भी जरुरत नहीं है साहब, हर साल डीयू के चुनावी अखाड़े में जाटो और बिहारियों (ठाकुरों) की दगल की नंगी-नुमाई होती है। आखिर दोनो सैनानी है, लड़ाई तो बनती ही है। एक दलितों के घर जलाकर, जल्लाद बनने को बेताब है तो दूसरे रणबीरसैना और ना जाने कितनी सैनाये बनाकर पिछड़ो का मारकर खुद को खुदा समझने लगें हैं।

जहन्नुम (ताथाकथित शिक्षा का मन्दिर) के जल्वे तो आपने देख लिये, अब जरा जन्नत की हकीकत पर निगहां मार लें। मरने के बात इंसासित रह जाती है, इंसान नहीं। और अगर वो जवान मुल्क की खातिर फना हुआ हो तो बात ही क्या है। लेकिन जाति वहीं भी जाति नहीं। 1962-65-71-99 या यू कहे सिख, मराठा, राजपुतानो और जाट रैजिमेंट अपनी जाति के नाम लेकर शहादत में भी सेधमारी करती दिखती है। और बड़े गर्व से अपनी-अपनी जाति की पलटन की बेहुगा नुमाईश करती है, कि जाटो के चलते टाइगर हिल पर कब्जा हो पाया था और ना जाने क्या-क्या कारनामें। क्यों, क्या कोई पडिंत, मुस्लिम या हरिजन मुस्क से महोब्त नहीं कर सकता, क्या ये प्यार भी क्षत्रियों (पृथ्वीराज) की जागीर संयोगिता है..। कम से कम माटी के लालो के लहू की लाज करो साहब..।

इस जमिदारीं और जाति के जुल्म के खिलाफ कभी नक्सलबड़ी में बगावत की मुहिम चली थी, आज वो भी जाति के जाल में फस चुकी है। जहां जेएनयू और कलकता युनिवर्सिटी के अभिजात छात्र, बह्माण के रोल में है, पुराने जमिदार इसके क्षत्रियें है तो आये दिन राज्यों की पुलिस की पैंट उतारतें रहते है, लैबी उघानें वाले इसके वैश्य है और बेचारे-बेकसूर आदिवासी इनके दलित जो आमतौर पर इनं शेरो का शिकार ही बनते है, फिर चाहे गोली माओवादियों की हो या सीआरपीएफ की..।

एक नहीं जाति और भी है इस देश मे, जो जवान होती चली जा रही है। जिसका परवानगी तब दिखी जब आईपीएल के मैदान पर एक चैयल लीडर को आने से मना कर दिया गया। क्योकि वो दक्षिण अफ्रीका की नीग्रो थी। क्योकि उसका रंग हम सावलों से भी काला था। और हमे आजकल गोली चमड़ी का नशा है। अगर गाधीं आज जिंदा होते तो हाट-अटेंक से मर जाते, कि जिस रंग-भेद के लिये वो दक्षिण अफ्रीका में जाकर लगे थे और आज उसी मुल्क की बाला के साथ अपने ही देश में वहीं हो रहा है।

हम लोगो को उज्ले कपड़े रिन से धुरे हुये पंसद है, चमड़ी को चमकाने के लिये लड़के और लड़कियों के लिये अलग अलग पैलिश नहीं फेयरनेस क्रीम भी मौजूद है। फिर चाहे दिल कितना भी काला क्यो ना हो पर शक्ल सफेद और गोरी होनी ही चाहिये। हमारे इस पंसद का अनांज़ा इंटरनेशनल माक्रिट को भी है। तभी तो नब्बे के दशक के बाद हमारी नारियां मिस-वल्ड, मिस युनिवर्स बनने लगी..। क्या इससे पहले हमारी बालायें बला की हसीनं नहीं होती थी..या यका यका दुलियां उन्हें भारत के बढ़ते बाजार के चश्मे से दिखने लगी..। ये आज की जाति है जो अग्रेजीं से शुरू होती है, उज्ले-कपड़ो से गोरी चमड़ी के रास्ते भारत के गावं तक बाछे फैलाकर पहुच जाती हैं।

अब सवाल उठता है..कि मनु, नक्सल और कास्मोपोलिटिनं जातियों के जाल से निकलने का रास्ता क्य है। जो जबाव को तो आप खुद ही देख रहे है..जी मेरा ब्लाक नहीं,ये इनटंरनेट। आर्कुट, फेसबुक के रास्ते मुल्क और सरकारों की सरहगें बोनी होनें लगीं हैं। जो काम मंडल और कमंडल नहीं कर पाये वो लव-मेरिजें दबे-पावं कर रही है। आखिर दिल किसी जाति के ठेकेदार की खैरात नहीं है, जिसपर उसके सरोकरा की इमारत ही बनें...ये तो प्यार की बोली है जनाब, जो क्लास और कास्ट के बधनों में नहीं बधंती..। पर लड़ाई अभी बहुत बाकी है मेरो दोस्तो..हम लड़ेगें साथी जाति से जाल के खिलाफ, महोब्त के मौनसून की खातिर..सुकरात और प्यार के पयाले के लिये आखिर रुकने झुकना और बिखर जाना, हम भारतीयों की नियती.. लगती तो नहीं...बाकि आप समझजार है साहब..।

बुधवार, जून 2

मुहब्बत का मुल्क या दौलत का देश

है प्रीत जहां की रीत सदा, हर 15 अगस्त और 26 जनवरी के आस-पास ये गाना फिज़ा में घुलनें लगता है। एक पुराना गाना और है जो ठीक मनोज कुमार की पूर्व-पश्चिम की तरह देर रात कभी-कभार एफएम में बज जाता है.. “मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमुना का बोल राधा बोल संगम होगा की नहीं” लेकिन आज इनं गीतों की तर्ज पर ये बाते भी पुरानी पड़ गई है। भारत कुमार बीत गये, राधा आज राखी बन गई, जिसका संवर बार-बार दोहराया जाता, दौलत की खातिर..कुल मिलाकर महोब्त का मुल्क दौलत के देश बन गया है।


कभी इस देश की पहचान ताज महल और अजंता की गुफओं से थी, आज बीएसई और एनएससी से उसका दर्पण देखा जाता है। सोनी महिंवाल अब प्यार में डूबते नहीं, डूबे तो भी कैसे , नदियों में कचरा, पानी से ज्यादा है, इतना की आप कचरे के पुल से पैदल ही दरिया पार कर जाये। फिर गांगा और जमुना के मिलन में मुहब्बत कैसे आएगी। हीर-रांझा की लव-स्टोरी के सट के लिये हमारी सरकार ने जंगल छोड़े ही नहीं, अगर कहीं कुछ जगंल बचे भी हैं तो वहां वो प्यार करने वाले नक्सली गोली या खाप-पंचायतो की लाठी की भेंट चढ़ जाते हैं।


खुदाई ने निकल कर खुद की बात ही करु तो ऐसा नहीं है, कि मेरे किसी से प्यार किया नहीं या किसी को मुझे प्यार हुआ नहीं..। एक तरफा से लेकर दोनो तरफ की मुहब्बत भी देखी, लेकिन किसी दोस्त ने सच कहा था कि, कुछ लोग रिश्ते बना नहीं पाते और कुछ निभा नहीं पाते.। गलती किसी थी, कहां हुई भूल इसके बारे की फिर कभी बतियाएंगे, इस दफा तो बात महोब्त और दौलत जंग की है भारत बदल रहा है, सोच से तेज और हम दौड़ रहे है मन की रफ्तार से। कल किसी दोस्त के साथ रात के खाने पर गया था। बेचारी चाहती नहीं पर घर पर शादी की बात चल रही है। ऐसा नहीं है कि उसे किसी से प्यार है पर लड़को को रिजेक्ट कर देती है। आखिर क्यों..? तो जवाब था कि उन किस्म के लड़कों से शादी करके छोटे सहर की सैर करनी होगी और मैडम को बड़े शहर की शौहरत की आदत है।


मैने उसे कहा कि कितना अच्छा होता है वो छोटा शहर, जहां आप पूरे परिवार के साथ रात का खाना खा सकते हो, अखबार पढ़ने का वक्त मिलता है और फुर्सत के कुछ पल..। ठीक उसी तर्ज पर जैसे गोरे भारत आकर झोपड़ियो की फोटा उतारते है और कसीदें पड़ है..। लेकिन मै तो ठहरा ठेक देसी, सो रात को खुद से पूछो कि क्या मै ऐसे छोटे शहर की सवारी करना चाहुगां। जो जवाब मिला नहीं.., मुझे तो पांच दिनों में हिमालय कि वादियां भी काटने लगती है। दिल्ली के शोर की आदत तो पढ़ गई। तेज रफ्तार जिंदगी, मां की बातें कम और एफएम की बक्वास ज्यादा सुनने की..। पैसे नहीं पावर ही सही पर चाहिये तो बहुत कुछ..। शायद यहीं हाल आज के प्यार का है वो पहला, दूसरा या तीसरा नहीं होता, प्यार तो महज़ प्यार होता हैं। जो फेसबुक-आर्कुट या टि्वीट करने से शुरु होता है, वैब-कैम से परवान चढ़ता है फिर नेट की नौटंकी की तरह जल्दी ही उसका सरवर-डाउन हो जाता है। फिर नया कनेंक्शन लो और लगे रहो इंडिया...।।


फाइव-डे, ODI और 20-20 खेल की पींग पर प्यार भी बदल रहा है, कभी शादी सात जनम का संबध थी, फिर Life partner की बाते होने लगी, उसके बाद Living कल्चर का दौर आया और अब तो One Night stand का जमाना है। उसमें में कुछ सज्जन बोर हो जये और Copal shuffling trend भी आजमाया जाता सकता है। उसके लिये भी एक खेल है जो दिल्ली-मुंबई के पॉश ईलाको में खेल जा है। पार्टी के बाद लड़के अपनी गाड़ियों की चाबियां एक बाउल में डालते है, लड़ियां अपनी आखों में पट्टी बांधती है। फिर जिसके हाथ जिसकी चाबी लगी, वहीं रात का साथी। कुल मिलताकर अब जीवन रफ्ता-रफ्ता नहीं रफ्तरा से जलता है..।


कुछ संस्कृति के ठेकेदार इसे पश्चिम की बुराई बताते है। उन्हे फ्रेंडशिप डे और वेलनटाइन डे तो नज़र आता है पर अंजता की गुफाये नहीं दिखती, गुप्त काल की कामासुत्र भी नहीं, देवदासी और कालीबड़ी की वैश्याओ की माटी से बनी काली मां मुर्त भी नज़र नहीं आती। फिर कुछ हिन्दु बाबाओं की बाते भी याद आत है कि ये इस्लामी-नापाक हरकत है, जहां चाचा-मामा की लड़कियों से शादी हो जाती है। तो उन्हें भी रामयाण का वो पाठ पड़ना चाहिये जिसमें लक्षमण सीता भाभी को मां का रुप दर्शाते थे और आज के हिन्दु परिवारों में बड़े भाई मौत के बाद देवर का पल्ला उड़ा दिया जाता है। फिर उसी भाभी मां से उसके देवर के बच्चे पैदा होते है।


Copal shuffling और कथित संस्कृति में समानता क्या है ? तो जवाब मिलेगा पूंजी या दौलत। पहले कैस में अमीर युवा लोग दौलत और दारु के नशे में सोये हैं और दूसरे में हमारे सांस्कृतिक ठेकेदार स्त्री को परिवार की सम्पति मानकर खोये हैं। सरल अल्फाजों में औरत घर का माल है, जो घर पर ही रहना चाहिये, चाहे बड़े बेटे का पल्लू बांधकर या छोटे का सहांग बनकर। कुछ यहीं हाल है समाज के प्यार का भी है, जहां यूपी और बिहार में ठाकुर और भूमिहार, वहीं राजस्थान और हरियाणा में राजपूत और जाट पिछड़ो को अपना पानी नहीं देते तो प्यार की क्या बात करें। समाज से निकल कल ठेठ भारतीय शादी की बात करें तो प्राय पति, पत्नि की चाहत को ताक पर रखकर सेक्स करते है। फिर चाहे कैसी भी हालत और कोई भी दिन हो और बेचारी स्त्री अपने इस ताथाकथित रेप की शिकायत ना कानून से कर सकती है या समाज से..। आखिर समाज की जगह सोशल-साइट लेने लगी है। वैब-कैम पर बच्चे पैदा नहीं हो सकते वरना अल्ला जाने राम..।


कहते है जब बुद्धी से जवाब ना मिले तो बच्पन में लौट चलो, आखिर बच्चे मन के सच्चे..। मै भी मुनसीपार्टी के स्कूल में कच्ची पहली कक्षा में बैठक देखता हु। बच्चे पहाड़े दोहरा रहा है। “दो एकम दो, दो दुनी चार “ इससे एक बात का ख्याल आया कि, इतिहास भी तो खुद को दोहता है। जब दौलत की भूख से पेट में दर्द होने लगेगा है तो प्यार की प्यास जागे जायेगी।


भारत दुनियां की सबसे बड़ी आर्थिक शाक्तियों में एक है, जल्दी ही सोने की चड़िया फिर से बन जाएगा। तब जाकर सेक्स और सेंसेक्स से दूर कहीं सवेरा होगा। मुहब्बत रगं लाएगी। मां की ममता और जीवन साथी के प्यार के मोल को हम लोग दौलत से नहीं तोलेंगें। तब सोनो तो बहुत होगा पर सच्चा साथी नहीं..। आज भी इस सच्चाई की समझ हमे आने लगी है। एक घन्टे सैल और नेट बंद हो जाऐ तो एहसास होता की दुनियां में भीड़ है पर हम लोग कितने अकेले है..। खुदा से दुआ करुगा को महोब्त की महक से गांग-जमना छलक उठे और फिर से हम भारत के लोग प्यार की धरती का वहीं गाती गुनगुनाएं... है प्रीत यहां की रीत सदा।

शुक्रवार, मई 21

अनजानी अंग्रेजी आगे अंधे बने - हम लोग

हिन्दी फिल्मी फसानें में अंग्रेजी को बड़ा funny दिखया गया है..अमिताभ से धर्मेन्द्र तक..। लेकिन कपिल देव ने इस कया को हमेशा के लिये पलट दिया। आप सोच रहे होंगे क्रिकेट, कपिल और इस कायापलट का क्या मेल है। जी हुजूर वास्ता बड़ा गहरा है। कपिल जी ने क्रिकेट वर्ल्डकप जीता..। और कपिल बन गये उस वक्त के सचिन..जिनके आगे ना जानें कितनी ऐड-कम्पनियां लैड-कार्पट बिछायें खड़ी थी..। टीवी उस वक्त रामायण-महाभारत और हमलोक तक सीमित था। तो कपिल जी उठाये पिंट के विज्ञापन के वास्त कदम..फिर लो हो गई काया पलट।


कपिल देव ने जिस किताब का ऐड किया..वो आज की देवी बनी बैठी हैं। उसका नाम था - “रेपिड एक्शन इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स”। फिर क्या है फिल्मी अफसाना..हकीकत का फसाना बन गया। जब हरियाणा के पूत कपिल अंग्रेजी बोल सकते हैं तो पूरा भारत क्यों नहीं। I can walk English, I can laugh English से I Can Speak English हो गया। बड़े-बूढ़े और बच्चे अंग्रेजी पढ़ने लगें। कप्यूटर अंकल आये तो हम लोग कॉल-सेन्टरों के बादशाह बन बैठे। नेट की नौंटंकी से नया इंडिया बना गिया। जहां अंग्रेजी हमारी पित्र भाषा है..।


60 के दशक में हिन्दी के नाम उत्तर-दक्षिण में बटने वाला भारत..इंडियां हो गया। नोकरी चाहिये हो या छोकरी अंग्रेजी से मिलेगी...। आलाद्दीन का चिराग भी इतना फेमस कहां हुआ होगा..जो काम इस भाषा ने कर डाला। ज्ञान अब, अंग्रेजी का मोहताज बन बैठा है..। अंग्रेजी नहीं आती तो आप अनपढ़-गवार है, फिर चाहे ससंकृत में शास्त्री की पदवी क्यो ना मिल गई हो..।


हम हिन्दौस्तानियों में एक खूबी हमेशा से रही है। हम रह चीज का भारतीयकरण कर देतें हो..चाहे तुका हो या बेतुका, शील हो या अशलील। भाषा को मां कर दर्जा दिया जाता है, लेकिन हमने तो अंग्रेजी की ही मां ही.....दीं। कुछ अल्फाज सीख लिये, जिनका बेमतलब-बेकार इस्तेमाल करने को हम लोग..Gen-Next Style कहते है। जैसे chill कर..। दुख में सुख में, घर पर - दफ्तर पर, ब्रेक-ओफ से लेकिन पैच-अप तक। अगर कोई पूछे कि मौसम कैसा है..तो हम लोग style कहेगें chill hae या cool hae। भले आदमी, 45डिग्री की गर्मी chill या cool कैसे हो सकती है। कोई अंग्रेज सुन ले तो शर्म से मर जाये कि कैसे उनकी भाषा की वाट लगा रखी हैं।


ऐसी ही एक शब्द का जादू हो जो किसी को भी बच्चा बना देती है – Baby। ये है हमारा stylish प्यार। ohh Baby, chill it. कहना रिवाज बन गया है। लड़का हो या लड़की या फिर किन्नर सब बेबी है और बच्चे भी- बूढ़े भी। बेचारी अंग्रेजी किस देश में फस गई। जो कल तक “ चलो छोड़ो यार” कहते थे वो आज “ fuck off Man” हो गया है। गाली का भी नया अंदाज है, ये अगड़े और देसी भाषा बोलनें वाले भारतीये पिछड़े। ना या हा, कहना कितना आसान लगता है। लेकिन हमने उसे भी nupe-yup बदल दिया। जीं, चैकिंग सीखनी है तो नई अंग्रेजी भी सीखो और वो भी Made in India.
ऐसा नहीं है कि ये हाल मेट्रो का है, गांव भी इसी रास्ते पर चल रहे है। ठंडा का मतलब दंत्तेवाड़ से देहरादून तक एक ही है। बोले तो ठंडाई या लस्सी नहीं, soft drink. । आखिर Its happens only in India. । गर्मी में छाछ की जगह कोक ने ले ली और ठंड में मलाईमार दूध को चाय कोफी ने रिप्लेस कर दिया..।


ऐसा नहीं है कि हम लोगो ने इस अंग्रेजी या विलायती भाषा से कुछ सरीखे का सीखा नहीं। पंजाब में जहां देसी-घी की नंदिया बहती थी, हमारी कम्पियों से डालडा का चस्का चटा दिया। यूपी-बिहार में भी नीम का मंज़न नहीं होता, कोल्गेट की जाती है। हरियाणा-राजस्थान के माटी के पूत भी विलायती साबुन से स्नान करते हैं।


इसपर एक औऱ अंग्रेजी शब्द याद आता है – paradigm-shift , मतलब उल्टा परिवर्तन। भारत बदल गया है, अब सपेरों के देस में भी सवेरा हो चला है। ठीक उसी तरह जैसे कभी पाली-प्राकृत की जगह संस्कृत राज भाषा रहीं, गरीबों की खड़ीबोली के स्तान पर बादशाहों की फारसी, और फिर अंग्रेजी। भाषा हो या शेली वहीं राज करती हैं,जिसे बालने वाले बहुसंख्यक और अमीर हो,यानी सरल भाषा में जिस बोली का बड़ा बाजार हो। हमारे पास तो सो करोड़ लोगों का बाजार हैं। शायद तभी, आज हौलीवूड की सबसे सफस फिल्म का नाम “अवतार” है। यूरोप में लोग forest को जंगल कहने लगें है। कोक हमारा पीना है तो बांसमती अमेरिका का खाना, पूरा अमेरिका बांसमती चावल का दीवाना है और दुनियां भरे के क्रिकेट खिलाड़ी आईपीएल के..। भाषा बदलती है बदली की तरब, बहती है धारा की तरह, लेकिन किसी भाषा या शेली को अंधा होकर cut-copy-past नहीं करना चाहियें। ताकी हम लोगों को याद रहें कि “भाषा ज्ञान का माध्यम है, मापक नहीं..।“

शुक्रवार, मई 14

जाति है की जाती नही...।।

2001 से 2010, बीते दस सोलों में देश कई गुना आगे निकल गया है। बाजार से रोजगार तक, गांव से शहर तक और दलितों से सवर्णो तक ने विकास का स्वाद चखा है। लेकिन हमारी जातियां पिछड़ रहीं है। आजादी के वक्त कुछ कम पिछड़ी थे, 1991 में ज्यादा पिछड गई और अब इनं पिछड़ो की गणना करना चाहती है सरकार। शायद अंग्रेजों के समय से आज तक राज वहीं सकता है जो बाटनें की नीति पर चलता हो, चाहे बात गोरो की हो या नेताओं की। धर्म से जाति तक, शहर से गांव तक, आदमी से औरत तक बटते बटते हम लोग, हम से मैं हो गये है..फिर ये गिनती क्या..?

गिनतियां क्या - क्या गुल खिला सकती हैं , यह पंजाब के मामले में जनगणना के भाषाई पहलुओं की रोशनी में देखा जा सकता है। पंजाबी , जो हिंदुओं और सिखों की समान भाषा थी , तकनीकी रूप से सिर्फ सिखों की भाषा रह गई क्योंकि हिंदुओं ने राजनीतिक प्रभाव में आकर अपनी मातृभाषा हिंदी लिखाना मुनासिब समझा। विख्यात भारतविद् मार्क गैलेंटर का यह कथन एकदम सही है कि जातिगत सेंसस बेरोजगारी , शिक्षा और आर्थिक हैसियत से संबंधित सूचनाओं में भी गड़बड़ी पैदा करता। जो जाति खुद को जितना अशिक्षित , गरीब और बेरोजगार दिखाती , उसे राजनीतिक क्षेत्र में सरकार के संसाधनों पर उतनी ही बड़ी दावेदारी करने का मौका मिलता।

हर दस साल में होने वाली जनगणना के गले में एक बार फिर जाति अटक गई है। जनगणना में जाति को शामिल करने की मांग आज से दस साल पहले यानी 2001 में जनगणना शुरू होने के पहले भी उठी थी , पर तब इस मांग को बिना किसी दुविधा के खारिज कर दिया गया था और उस पर कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी। इस बार मामला कुछ अलग है।


सवाल यह है कि अपनी संख्या कौन जानना चाहता है ? केवल वही जिसे संख्या बल के आधार पर किसी तरह के फायदे की उम्मीद हो। भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को यह अहसास था। इसलिए शुरू से ही उनकी नीति संख्या के महत्व को एक हद से ज्यादा न बढ़ने देने की थी। उन्होंने संख्याओं का इस्तेमाल किया , पर पारंपरिक पहचानों के सेक्युलरीकरण के लिए। 1939 के बाद भारत की जनगणनाओं में जाति का उल्लेख करना बंद कर दिया गया था। आजादी के बाद यह परंपरा बदले हुए परिप्रेक्ष्य में जारी रखी गई। चूंकि संविधान निर्माताओं ने पूर्व - अछूतों और आदिवासियों की विशेष स्थितियों के मद्देनजर उन्हें उनकी जनसंख्या के मुताबिक राजनीतिक आरक्षण देने का फैसला किया था , इसलिए जनगणना में केवल उनकी संख्या का जिक्र किया गया। संविधान पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने के पक्ष में नहीं था। वह उन्हें सिर्फ नौकरियों और स्कूल - कॉलेजों में आरक्षण देना चाहता था। उसके लिए गिनती की बजाय शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाना ही काफी था। इसलिए पिछड़ी जातियों को जनगणना में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई।

आरक्षण , जाति और जनगणना के इस व्यावहारिक त्रिकोण को अपनाने के पीछे जो दूरंदेशी थी , उसकी कामयाबी आज आसानी से देखी जा सकती है। इस सफलता के तीन पहलू हैं : पहला , सरकारी लाभों को बांटने के मकसद से इसके आधार पर जातियों की पारंपरिक पहचान अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सेक्युलर श्रेणियों में बदलने की प्रक्रिया शुरू हुई। दूसरा , पिछड़ी जातियों ने चुनावी राजनीति के माध्यम से अपने संख्या बल को आधार बना कर आरक्षण प्राप्त किए बिना विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया। और , साथ में उन्हें नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण मिल गया। पिछड़ों को आगे बढ़ने के लिए न तब जरूरत थी और न अब अपनी गिनती जानने की जरूरत है। तीसरा , आरक्षण के दायरे में न आने वाली अगड़ी जातियां खुले दायरे में आधुनिक शिक्षा और बाजार के जरिए मिलने वाले अवसरों के माध्यम से सेक्युलरीकरण के दौर से गुजरीं। वे वैसे ही संख्या में बहुत कम हैं। इसलिए उन्हें अपनी संख्या जानने की उत्सुकता बहुत कम होती है।

यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता , तो उसके क्या परिणाम निकलते ? उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिए सामाजिक ऊंच - नीच की भावना में अब तक जो कमी आई है , वह काम नहीं हो पाता। दूसरे , जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते हैं , वह एक मोटी - मोटी अवधारणा ही है। दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है। चुनावी आंकड़े बताते हैं कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है , पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते हैं। इससे असल जमीन पर जातिगत समुदायों का कोई राष्ट्रीय एकीकरण नहीं हो पाता है और उनके सेक्युलरीकरण की व्यापक प्रक्रिया बिना धक्का खाए धीरे - धीरे ही सही , पर चलती रहती है। अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता। तीसरे , गिनती से जुड़े हुए मौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेश तो करते ही , उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करने के लिए उकसाता। आज उनके पास निश्चित संख्याएं नहीं है , इसलिए ऐसी कई मांगों को नजरअंदाज किया जा सकता है। मसलन , महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा शामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंघन करते हुए स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़ जाती। आज के जमाने में जातिगत सेंसस की प्रासंगिकता और भी कमजोर हो गई है। व्यक्तियों और समुदायों का आर्थिक विकास अब सरकारी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा , बल्कि इसमें प्राइवेट सेक्टर और बाजार की भूमिका ज्यादा है। बाजार एक सीमा तक ही अफरमेटिव ऐक्शन को अपना सकता है।

प्राइवेट और पब्लिक से दूर, दर्द तो इस बात का है कि हमारी सरकार ने भी गोरो की चाल अपना ली..बाटों और राज करों। वो भी राजा की तरह नेता की नहीं..। जाति के नाम पर प्यार करने वालो को सूली पर चढ़ा दिया जाता हैं, जनता को जला दिया जाता, जन्म से भेदवाद किया जाता, आरक्षण पर हिंसा होती है, और उसे जायज़ दिखानें के लिये जनगणना..। पर पापा ने तो बचपन में कहा था कि जाति जोड़ने का काम करती है, शायद जन की इस गणना का गणित मेरी समझ में नहीं आया..। पापा की बात ही नहीं...गांधी के हरिजन, टैगोर के आंनद, अम्बेडकर के दलित, मनु के मानव और जाति की जनगणना को भी, मै जानं नहीं पाया..। इंन सबसे बढ़कर हम लोग सोच भी मेरी समझ में नहीं आती, जो खुद को पिछड़ा साबित करने के लिये अगड़े होकर मरने-मारने सदैव तैयार है, मेने दुनियां में ऐसा कभी-कहीं नहीं देखा....आपक पता हो तो कृपया बता दें ….?

बुधवार, मई 12

2020 : पेज़ नम्बर 2611, कसाब का हिसाब

कहते है कि अगर आज सच्ची तस्वीर देखनी हो, तो आने वाले कल की खिड़की से उसे देखना। क्योंकि सोच के चश्मे झूठे हो सकते हैं, इतिहास के पन्ने नहीं सो सोच 2020 में ले चलें और टी-20 के तर्ज पर देखें कसाब का हिसाब।
राजधानी की सड़क खुदी है, पाइप-लाइन फटी है..आखिर कुछ सालों में इस शहर में ओलम्पिक गेम्स होने हैं। बच्चे बमुशिल स्कूल पहुंच पाते हैं। सोशल की क्लास चल रही है। क्लास में एसी है, ब्लैक-बोर्ड की जगह स्मार्ट स्क्रीन है, जहां चॉक से नहीं क्लिक से काम होता है। आज टीचर ने 2611 के पेज़ पर क्लिक किया हैं। लेकिन बच्चों को पसीना आ रहा है। जी ये बोर्ड का बुखार नहीं। वो तो इतिहास हो गया। अब सेमेस्टर सिस्टम है। बच्चों के लिये पिज्जा हट से मिड-डे मील भी आया है। पर पसीना बंद नहीं हो रहा। क्लास की सक्रीन पर कसाब का चेपटर चल रहा है।
क्या कसाब को देख पर बच्चे डर गये? या मुंबई हमले की तस्वीरों से बच्चे गश खा गये। जी नहीं, ये दवीं की क्लास है। बच्चों के सेलफोन में ना जाने कितनी ब्लू फिल्में है। घर के लेपटॉप में एक्शन-थ्रीलरों की फेहरिस्त हैं। रेप, मडर और टर्र देखकर तो उन्हें कुछ फील नहीं होता। यहां तक की ओलम्पिकं की तैयारियों में खस्ता हाल सड़कों में भी इन्हे एक्शन गेम्स नज़र आता है।
फिर भी पसीना-पसीना..तो हुजूर लेसन के बाद टीचर जी ने एक सवाल पूछा है। कि क्या हो गया कसाब का हिसाब? कसाब को फांसी लगें सालो हो गये, बच्चो ने फांसी पर सियासत और कानून की अठखेली भी अभी-अभी देखी है। अफजल और कसाब की फांसी में महज़ सात दिनों का फर्क था। फासीं का फांस पर दो सरकारें बदल गई। लेकिन बच्चे बेचैनं है। कि क्या कसाब का हिसाब हो गया?
मुंबई हमले का बाद भी मज़र नहीं बदला, हमले होते रहे, सियासत रेल चलती रही, रैलियों का रेला भी, पाक आज भी पड़ोसी है, पंसद हो या न हो। अंकल सैम ने ईराक के बाद, ईरान और उत्तर-कोरिया को बर्बाद कर दिया, कहते हैं कि, वो अंकल के घर में बंम फोड़ना चाहते थे। लेकिन हमे नसीहत देते हैं कि सब्र रखो, हमारे हुक्मरान आज भी उसे नेता मानतें और बंम-विस्फोटों को दिवाली के पटाखें। दिल्ली मेट्रो ने न्यूयार्क ट्यूब को कब का पछाड़ दिया। यूरोप बजारों का दाम, हमारे दलाल पथ से तय होता है, लेकिन कसाबो का आने की तारीख कराचीं तय करती हैं। और सब्र करते हैं।
बच्चों ने दस साल पहले के बुजुर्गों की बातें भी सुनी हैं। किलर मशीन है कसाब, 160 मौतो के बदले, 160 बार फांसी पर लटकाया जाए, हम लोग भी उसे फांसी देने की खातिर जल्लाद बनना चाहते थे। पर उसकी फासीं से कुछ नहीं बदला, ना पाक के नापाक इरादें, न अंकल सैम की सिफारिशें और न ही मालेगांव धमाके करने वालो का मन।

एक बच्चा बोला सरजी कराब का हिसाब हो गया। जैसी करनी वैसी भरनी ये, मैं नहीं कहता –गीता में लिखा, पापा बताते हैं। दूसरा बोला नहीं सर, मेरे पापा के दोस्त का नाम कसाब था, जामिया से मीडियां की पढ़ाई की, पर नौकरी नहीं लगी। क्योंकि उसका नाम कसाब है। बेचारे बेरोजगार ही रहे, नाम की चलते नौकरी नहीं मिली। अंकल कहते थे कि राष्ट्रवाद चंद कच्छा धारियों की जागीर नहीं है, उन्हे भी मुल्क से मोहब्बत है। नौकरी नहीं मिली तो, पूजा आंटी की शादी कहीं और हो गई। मेरे नटखट अंकल नक्सली बने बैठे।

सर बोले बच्चो टाइम नहीं बदला महज़ वक्त गुजरा हैं। दिल्ली आज भी खुदी है कोमनवेल्थ से ओलम्पिक तक, खून आज भी बहता है,1984,92 और 2006 तक के जख्म आज भी हरे है, कसाब जैसे जालिम आज भी जिदां है। लेकिन दुनियां को जीरो देने वाले हम लोग कसाब के हिसाब का जवाब नहीं तलाश पाया। यह बच्चो की नहीं भारत की बेबसी है। तो क्या एक फांसी से कसाब का हिसाब हो जाएगा। जरा सोचिये..।

शनिवार, मई 1

अमेरिकन दिल्ली का दिल देखो

कल रात मेट्रो में सफर ने सोचने पर मजबूर कर दिया। एक लड़का अमेरिकी झंडे की चड्डी (बरमूडाज) पहने हुये था। पास में एक गरीब आदमी धोती और कुर्ता पहने, सिर पर खंडुवा बांधे खड़ा था। जो उस लड़के के लम्बे बालों की लटाओं को देख भर रहा था। मानो सोच रहा हो कि गांव में तो लड़के-लड़की में पैदा होते ही फर्क कर दिया जाता है। यहां तो दिखने में दोनों में ही कोई फर्क ही नहीं लगता। लड़का उसके पास आया, उसे घूरा और वो डर से सिमट कर कोने में बैठ गया। उस अधेड़ गरीब की आखों में अजनबी दुनिया की दहशत साफ तौर देखी जा सकती थी। फिर वही लड़का उसे बोला, मेट्रो में जमीन पर बैठना मना है। बिचारा उठा और अगले स्ट्रेशन पर उतर गया। लड़के ने ये देख पास खड़ी लड़की को स्माइल दी।

शायद ये दो संसारो का मिलन था। जो बहुत बुरा रहा। कौन ज्यादा सभ्य निकला ये तो पता नहीं, लेकिन संस्कारी तो वो अधेड़ उम्र का आदमी ही था। जो उजले कटे-फटे पकड़े पहने डेलीआइटस् से दो पग दूर रहना ही पंसद करता था। कहीं शहरी नर उसे वानर समझकर नाराज़ ना हो जाये। पहले भी रेलवे-स्टेशनों पर ऐसे पल देखे थे, जहां शहरी लोगो के आगे, हमारे गरीब ग्रामीण सिमट जाते हैं। मानो गुलाल का वो गाना पीछ से कोई गुनगुना रहा हो कि “ हाथ से खादी बनाने का ज़माना लद गया, अब चड्डी भी है सिलती इंगलिशो की मिल में हैं। आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये, अपनी आजादी तो भईया लौंडिया के दिल में है।“ सर फिरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।


दिल्ली मेट्रो लंदन ट्यूब को टक्कर दे रही है और दिल्ली वाले अंग्रेजों को। यहां इज्जत किसी को हजम नहीं होती, सर कहो तो सिर पर बैठ जाते हैं, ताऊ-चाचा कहने का रिवाज तो रास ही नहीं आता। कभी बचपन में मां के साथ रेड लाइन में सफर करता था, जिसका नाम आज ब्लूलाइन पड़ गया है। तब तमाम लोग कहते थे, दिल्ली में दिल्लीवाला कोई नहीं कहलाता। यहां गांव में हरियाणा का टच है, विभाजन के बाद पंजाबी शहर में आ बसे। करोलबाग में बंगाल और आर.के पुरम में दक्षिण भारत के लोग रहते हैं। जमनापार यूपी और लुटियन ज़ोन में बिहार के कुछ अफसरान बसर करते है। पर दिल्लीवाला कोई कहलाना नहीं चाहता, सिवाये पुरानी दिल्ली के। आज का मंजर उलट है। दिल्ली 6 को नई दिल्ली से दूर पुराना शहर माना जाता है। जहां ठसक तो है पर डेलीआइट् नहीं। शहर में नई क्लास का जलवा है जो आये तो किसी भी कोने से हो पर उस कोने को काला सोचकर, उसे छोड़कर कहलाना तो डेलीआइट् ही चाहते हैं। पहले इस शहर को दिल्ली कहते थे अब दिखावी कहते हैं। अगर किसी को दिल्ली देखनी हो तो राजौरी-साकेत के मॉल्स देखे, चांदनी-चौक का बाजार नहीं।


ये शहर जबलपुर और नागपुर की तर्ज पर तरक्की कर रहा है। आप सोच रहे होगें की सिडनी या न्यूयार्क क्यो नहीं कहा। तो जनाब इन चारों शहरों में कोई खासा फर्क भी नहीं है। पहले दो शहरों में आदिवासी रहते थे और बाद के दो में रेड इंडियन। दोनो को निकाल कर निगल गये हम लोग। उनकी जमीन पर अपनी जामात बिठा ली। कहने को मुवावजा मिला पर भीख ने रोटी मिलती है समानता और सम्मान नहीं। ये देश का दिल है तो नक्सलबाड़ी तो बन नहीं सकता पर ज्यादा फर्क भी नहीं हैं। जिसकी जमीन पर कोमनवेल्थ गेम्स होने है, वो जाट-गूजर नक्सल राह पर है। गूजरो आरक्षण आन्दोंलन में हुई मौतो की सख्या दंतेवाड़े से कहीं ज्यादा है। जाट खाप-पंचायत समानतर-सरकार चला रही है। पंचायतें कानून नहीं मानती, खाप के नाम पर कोर्ट को ही लाठी जरुर दिखा जाती है। मुख्यमत्रीं गुरुजी (शिबू सोरेन) हो या हुड्डा जी सब इस समानतर सरकार को सलाम बजाना पड़ता है।


कभी दिल्ली के आसपास चंद जातियो की सत्ता चलती थी। आज सूर्यवंशी राजपूत से ठसक प्रेमी जाट, खुद को क्षत्रिये कहलवानें वाले गूजर हो या श्रीकृष्ण के वंशसज अहीर सबको अपनी जात पर गरुर जरुर है पर सबको आक्षण की बैसाखी भी चाहिये। कुछ उसी तरह ही जैसे नक्सली ईलाकों को केंद्र सरकार का आर्थिक पैकज चाहियें। दोनो के पास सिर और बाजू बहुत है, अपराध दोनो जगह है, शक्लें भी एक ही है, महज नामो का फर्क है, जो सोती-सरकार को नहीं दिखता। शक की सूई से फोन टेप यहां भी होते है। जामियां की जनता को यहां की पुलिस भी नक्सली स्लीपर सेल कम नहीं समझती। आखिर जब दिल्लीवाले अमेरिकी हो गये है तो सरकार गोरी सोच क्यो न रखें। जिसनें रेड इंडियनों को जंगल से निकाल कर चड़ियांघर में रखकर चमाशा बना दिया। क्योकि उन्हें कंक्रीट के जंगल में घोसले से घरो में रहना पसंद नहीं था।


एक अंग्रेजीं फिल्म याद आती है “अवतार” जिसमें सभ्यता के पुजारी दूसरी दुनिया के लोगों को सड़क देना चाहतें थे पर उन्हें अपने पैडो से प्यार था। आज भी गुड़गांव से गांव को दूर कर दिया हमने कि, हमारी राते वहां रगींन हो सकें। दिल्ली के वास्ते दारू राजस्थान से आती है, पत्थर पल्वल से, राजधानी जो जगमग रखने की बिजली के बादले यूपीवालो को अंधा-धूवा मिलता है। हमारे पृयावरणमत्रीं कोपनहेगन जाकर अमीर देशो शीशा दिखाते है पर अपना शीशमहल नहीं देखते। शीला जी भी दिल्ली के बढ़ते बोझ से परेशान है लेकिन इसका जवाब नहीं देती कि अगर गांव के हिस्से का पैसा वहीं ठीक से खर्च किया जाता, तो कोई पूरबवाला पेट की खातिर दिल्ली नहीं आता। चाहे आईआईटी हो डीयू या एम्स।


दिल्ली हमारे दिलो में है, होनी भी चाहिये। विकास सबको प्यारा है पर किसके लिये और किसती कीमत पर ये सोचना होगा, आखिर ये दिल्ली अमेरिकी नहीं अपनी है। हम लोगों की है जीके से सीलमपुर तक। दंतेवाड़ा से बस्तर तक ये सबकी राजधानी है, चंद अमीर राजाओ की नहीं देश की और देश से बढ़कर भी नहीं।

सोमवार, अप्रैल 26

लोन की लंका में ढाबे की खोज

वो शनिवार की रात मेरे लिये किसी पाठशाला से कमतर नहीं थी। किसी दोस्त के साथ देर रात हाईवे के ढाबे पर जाने का मन किया। सोचा घर का खाना और विलायती पकवान तो रोज ही खाते हैं। चलो आज देसी स्वाद को जरा फिर से चखा जाये। वो भी कॉलेज के अंदाज में।


घर से बाइक उठाई, दोस्त के साथ एनएच-8 की राह पर हो चले। राह तो वही थी पर रास्ते बदले-बदले से थे। ऐसा नहीं है कि गुड़ंगाव जाना कभी होता ही नहीं लेकिन इस तरह से तो नहीं ही होता। कभी चैनल की न्यूज़ के वास्ते वहां के मॉल्स की खाख छाननी पड़ती है, तो कभी दोस्तों के साथ पार्टी की पैमाशन। लेकिन इस बार गाड़ी की सवारी नहीं बाइक की राइडिंग थी, फ्रेंडली गर्ल्स नहीं दोस्तान का अंदाज। धौलाकूआं से चले और चलते रहे पर हाईवे पर ढाबा नहीं दिखा।


आखिर अब हाईवे, एक्सप्रेस-वे में तबदील हो गया है। खेतों पर ख्वाबों की इमारतें सजी है। तो भला ढाबा कैसे दिखे। पांच साल पहले अपनी जीएफ के साथ इस रोड से गुजरा करता था, आज वो लड़की गुजरा हुआ कल है। उसका दिल बदल गया है, रोड के दिन बदले गये हैं पर मेरी राय नहीं बदली। तलब आज भी ढाबे के खाने की ही लगी है। सो सड़क पर सवा सौ की रफ्तार से ढाबे की तलाश पर चलते चले। इफ्पो चौक मिल गया पर ढाबा नहीं। किसी सियाने से पूछा तो बोल साहबजी जिस सरीखे के ढाबा आप चाहते हैं, वो तो मानेसर के बाद ही मिले तो मिले।


फिर सोचा कॉलसेंटर में एक दोस्त काम करता है, अब यहां तक आ ही गये है तो उस दोस्त से भी मुक्का-लात कर लिया जाये। मिले तो उसकी सूरत चुसे हुये आम की माफित लग रही थी। पूछा क्या हुआ, बोला यार टारगेट-मीट नहीं हो रहा। गौरे भी साले गरीब है..कहते है की घर में कार है, फोन है, पीसी है पर पैसा नहीं और लोन नहीं लेंगे। अब अगर वो लोन नहीं लेंगे तो मेरा लोन कैसे उतरेगां। भाई साहब पेशे से पायलेट हैं, पर थोड़ा लेट हो गये, जब फ्लाइंग सीखने अमेरिका गये थे तो रुपया और बाजार दोनों मजबूत थे, लौटे तो मदीं और मंहगाई से एयरलाइन की हवा निकल चुकी थी। और वो अपनी कॉकपिट से निकलकर कॉलसेंटर पहुच गए। लेकिन अब अपना एजुकेशन लोन कैसे निकले इसका जवाब जनाब के पास नहीं। हां इससे सवाल का जवाब जरुर मिल गया कि बेबर किसान या भूखे मजदूर ही नहीं मोटर-गाड़ी में बैठ, एसी की ठंडी हवा खाने वाले शहरी लोग ही कर्ज की मर्ज के मारे है। बस उसकी बेबसी साहूकारो की पोथी में नहीं, बैंक की शीट पर दिखती है। हां दोनो तरह के हम लोग चिर निंद्रा में होते है फिर चाहे वो आत्महत्या की नींद हो या नींद की गोलिया खाकर जबरदस्ती की नशेमंद रात।


भाई बोला, पापा की नौकरी ही बेहतर थी..रिटायर होते-होते सिर पर छपरा तो बन जाता था..आज तो लोन पर जीना और लोन में मर जाना ही गलोबल जन्नत है। बोला अब ठेठ हिन्दुस्तानी जुगाड़ में लगा हूं। क्या पता किसी की मुठ्ठी भरकर मैं उड़ान भरने लगूं। खैर इस खस्ता हाल की खेती भी तो इसी तर्ज पर होती है। जब प्राइवेट में मुट्ठी का जलवा है तो सरकारी साहब की क्या बात करें। अफसर की कुर्सी, आईपीएस की तरह बिकाऊ है तो पैसा वसूली में कोताही क्यों। तभी को अन्दर नहीं आता क्योंकि ढाबे की बहस तो जेएनयू में ही सिमट गई है। और जो पैसे की प्यास में प्यासा है, वो पागल हैं बागी नहीं। क्रांति के लिये पागलपन, बागपन चाहिए, जो हम नशेमंद नौजवानों में नहीं मिलता।


अब समझ आता है की लोन की लंका के चलते ढाबे का डंका कहीं खो गया। कर्ज के मर्ज से मॉल्स बन गये और माटी के खाने काल में खो गये। कभी किस्सों में क्लोन के लोग सुने थे, आज लोन के लोग देख लिये। देश ही नहीं दुनिया का यही हाल है। सियासे सिसासी लोग, भले ही दंत्तेवाड़ा तो दिल्ली से दूर कहे, पर वो है नहीं। रात बहुत हो चुकी थी, तो घर वापस हो लिये। रिंग रोड पर आइडिया का ऐड देखा पर उसकी बत्ती गुल थी। शायद एमसीडी रात में बिजली बचा रही होगी या आइडिया, सर जी भी सो रहे होंगे। खैर इस आइडिए से एहसास हुआ कि कार के साथ भी हम बेकार है, सेल है पर नई सोच नहीं, पीसी से प्यार नहीं होता और हर हाईवे पर ढाबे नहीं मिलते।


घर जाकर चैन की बंसी बजाकर सो गया, हम मीडियावालों का सनडे ओफ नहीं होता। कल ऑफिस जाना है, घर लौटना। आइडिया चले ना चले काम हो चलता ही रहेगा। आंखे लगते ही लपकर उठा, या यू कहें जज्बाती होकर जागा। लगा कि, लोन की लंका जल चुकी है, समाजवाद का सवेरा है, फिर से कॉलेज की मीत और साथियों की प्रीत के साथ हाइ-वे पर खाना खा रहा हूं, पास खड़ा किसान खुश है, दूर खड़ा मजदूर भी। ट्रक ड्राइवर भी और हम लोग भी। फिर होश आया कि वो अपना था पर सपना था, रात अभी बाकी है, मेरे दोस्त...।

शुक्रवार, अप्रैल 23

मीडिया की मंडी में हम लोग

छुटपन में मां के साथ मंडी जाता था और बहुत बार मां पापाजी से कहती थीं, कि मंडी में सब्जी सस्ती तो मिलती है पर अच्छी नहीं। आज सालों बात पत्रकारिता के एक दिगज का ब्लॉग पढ़कर फिर से वो यादें जहन में ताज़ा हो गईं। आज सूचना समान बन गई है, ख़बरिया चैनल सौदागर, जो अपनी जादूगरी से नागिन के तमाशों से भी पैसे कमाने में माहिर हैं। अब ऐसी मंडी में अगर सस्ती की जगह अच्छी सब्जीनुमा ख़बरे परोस दी जाये तो भला बुरा क्या हैं।


इसी ख़बरियां मुद्दे पर फिल्म बनी थी रण लेकिन शायद उसका नाम रन होना चाहिये था। आखिर फिल्मी फसाने से खबरी अफसाने तक हम दौड़ ही तो रहे हैं। कभी पेड न्यूज़ के पीछे, कभी पॉलिटीकल पार्टी तो कभी बॉस की बात रखने के लिये। मेरा एक दोस्त कहने को तो किसी बी-ग्रेड चैनल में ब्यूरो-चीफ है, लेकिन उसका मालिक बच्चों के मिशन एडमीशन से घर में पानी की बोरिंग तक काम उसे सौंप दिया करता है। बॉस उसे आलाद्दीन का चिराग समझता है और वो खुद को पत्रकारिता का दलित दलाल।


ऐसे में वो ब्लॉग सटीक साबित होता दिखता है,कि मीडिया मिशन नहीं प्रोफेशन भर होनी चाहियें। कम से कम हम जनमत को बीटी बैंगन या सल्फाइट आलू के जगह साफ सुथरी खबरें तो परोसेंगे। जिसके धम्म को धारण करने से समाज सुधार हो या नहीं आप बीमार तो नहीं ही पड़ेंगे।


ब्लॉग की बहस में एक हालिया शिगूफा भी शुमार हो गया है कि जिस नाचीज के आगे कैमरा लग जाये उसमें कास्टिंग काउच की जैसी चीज चीपत हो जाती है। फिर चाहे फिल्मों के कलाकार हों या खबरों के अदाकार..आखिर अल्फाज़ो से अस्लियत तो बदले का पेशा तो दोनों का ही हैं। दोनो समाज का आइना है पर अपनी शक्ल उसमें देखना नहीं चाहते।


चलो अपनी सब्जी-मडीं में वापस चलते है। नानी की कहानी में एक खेत था जहां चंद अनाज के दानों के बदले ताज़ा खेत की सब्जी किसान दिया करता था। कोई बिचौलिया नहीं, बेइमानी, बस ओर्गेनिक फूड। नानी उसे जजमानी प्रथा कहती थी, आप कॉस्मोपोलिटिन लोग उसे बाटर-सिस्टम पुकार कसते है। उन्ही कहानियों में उस दौर की मीडिया की भी झलक मिलती है। किस्से युगान्तर और सन्धया के समाचारों के, तिलक के लेख और गांधी के हरिजन के। जिस वक्त पत्रकार कलम और झोला लिए, तन पर खादी और मन में मिशन के साथ काम करता था, जनता सहज ही जुड़ जाती थी। सेवा नहीं सुधार होता था और अनपढ़ आवाम भी उसकी आभा को महसूस करती थी। आज के नए दौर में मोटर-गाड़ी, दिलीप कुमार के तांगे तो पछाड़ चुकी है। पत्रकार, गांधी के ठपे वाले पत्रों के साथ कार में समाचारी सफर करता है। जो सियासी सौदागरों की खिलाफत करता था। आज उनका सिपाही बन गया है। शायद तभी जन दोनों सियानो में कोई भेद नहीं करती।


नेता, अभिनेता और उनकी नौटंकी दिखाने वाली मीडिया सब एक है। अगर ये सच है इस सच का सरोकार आप से है। दिल्ली की मेट्रो हो या मुंबई की लोकल। हम लोग कानों में इयर-फोन लगाकर मास-मीडिया के जरिए मदमस्त रहते हैं। पड़ोस में कोई बुजुर्ग बमुश्किल खड़ा है,तो खड़ा रहें, हमे क्या मतलब। सोशलनेटवर्किंग मीडियम से संसार को साथ लिये चलते है पर परिवार से दूर हो जाते है। कहने का मक्सद सिर्फ इतना है..जैसे लोक होगे वैसा लोकतंत्र और मीडिया भी। सास-बहू और बेटियों की बात से ज्यादा तवज्जो अगर सीरियस खबरों को मिलती तो..आज भी मीडिया मडी नहीं मिशन होता।


गलती हम लोगों की है लेकिन यहां हम लोग का अर्थ किसी टीवी शो की बहस से नहीं उस रुसो के कॉट से है जिसकी हम लोग की आवाज पर फ्रंच रैवूलुशन हो गया और समानता, स्वतत्रंता, बधुंत्व की बात होने लगी। इसलिए फिल्मी कलाकारों या खबरियां अगाकारों पर बहस करने से बेहतर होगा “हम भारत के लोग” अपनी सोच बदलें क्योंकि इस सब्जी मंडी का सरोकार समाज से है आप से है।

बुधवार, अप्रैल 21

हम अपंग हो गये है..अंधे, गूगें और बहरे भी...।

वो किताबो में पढ़ी बहुत पुरानी बात है, कि कैसे जमीदारों का विरोध करने पर बंगाल पुलिस ने 8 महिलाओं और 3 बच्चो को नक्सलवाड़ी में मौत के घाट उतार दिया था। फिर सीएम और केएस ने मिलकर एक पार्टी बनाई..वो भी ठीक उस दिन जब माओत्सेगंतुग का जन्मदिन होता है। चीन के चैयरमैन को अपना कहा..कार्ल के कपाल से विचार लिये, लेनिन से सोच और स्टालिन की तर्ज पर बगांल-बिहार में जमीदारों का सफाई का अभियान शुरु कर डाला। लेकिन सीएम और केएस, जेपी और लोहिया नहीं बन पाये। क्योकि जब जनता आपके साथ हो तो हिंसा के हथियार उठाने की नौबत नहीं आती। भूमि सुधार हुआ या नहीं ये तो विवाद के मुद्दा है पर विचार जरुर बिगड़ गये।

मिशन..मंडी बन गया, जहां बड़े-बड़े सियासी सियानें संसद तक पहुचने के लिये माले के दर पर दस्तक देते है। और लोकतत्रं के गोल मंदिर से उन्हे ही मिटाने की बड़-बोली बातें भी करते हैं, लेकिन उसकी लाल-बत्ती वाली गाड़ियां बस्तर तक पहुंचती नहीं है। शायद दंतेवाड़ा से दिल्ली बहुत दूर है। या फिर दिल में ही दिक्कत है कि अगर अनपढ़ पढ़ गये तो लोक लोकतंत्र के स्वामी बन बैठेंगे। जब प्रजा, जनता में बदल जाएगी तो नागरिकों के आगे नेता बौने साबित होने लगेंगे।

शायद तभी नरेगा निकम्मी साबित होती है, एनएच जगंल तक पहुंचने से पहले खत्म हो जाते है, मानो अटलजी फिर सड़को के रास्ते देश को जोड़ने का भाषण दे रहे हो और कमल की सत्ता ही सड़क पर आ गिरे। सड़क से ख्याल आते है डांडी के गांधी याद आते है, कि कैसे नमक के नाम पर कच्ची सड़क पर चलकर आजादी की राह मिल गई थी। आज तो सड़क बनने से पहले ही टूट जाया करती हैं, चाहें घटिया घोटाले से या नकली बारुद।

एक भोजपुरी गाना है “ जंगल छौड़त नाही” जिसे माओवादी जीते, बोय-बोय की तरह इस्तेमाल करते हैं। हो सकता है कि नक्लसी तत्वों के मानिंद जंगल बच भी रहे हो लेकिन फिर भी वो है तो चंदन के जंगलो के मशहूर डाकू के मार्फत ही। 70 के दशक में भूमि सुधार आंदोलन चला था लोहिया के साथ लोग जुड़े थे, क्योकि जन को खेती की खुराख में ही खुदा दिखते थे। अब तो किसान बच्चे भी अन्न बोने से बेहतर, शहरो के घोंसलो (फ्लैटो) में रहना समझते हैं। सिवाए उसके जो साहुकारों के ज़जीरों से बंधे है और परिवार को उनके पास गिरवी रखकर शहर की बस का टिकट नहीं खरीद सकते। फिर आरक्षण की बाड़ 90 में दिखी। हज़ारो छात्रो से करोड़ो की सरकारी सम्पत्ती को खाख में मिला गिया औऱ कुछ तो उस आग में जलगर खुद ही खाख बन गये। जब कथित रूप से देश को आगे जा रहा था लेकिन साल दर साल कुछ जातियां पिछड़ रही थी। खेर अब तो पेरंटस की भी दिली ख्वाईश होती है, कि उनका होनहार एमएनसी में काम करें सरकारी नौकरी नहीं। आखिर यह कैसा विकास, ये विवाद के सवाल बड़ा लगे पर सवाल इससे कहीं बड़ा सवाल यह है कि जेसिका लाल और नीतिश कटारा के लिये मोमबत्तियां जाने वाली शहरी सियानो को रैड कोरिडोर के लाल-खून क्यो नहीं दिखता। लेकिन जब यूरोप के ज्वालामुखी की तपिश आप अपने पड़ोस के हवाईअड्डे पर महसूस कर सकते है तो नक्सली द्वालानल की आग से कब तब बचेगें आप...। क्यो वो छोटा नागपुर इलाके को अफ्रीका का देश समझकर अपनी दुनिया से दूर कर लेते हैं। चिड़ियां के घोसलों (फ्लैट) में, बुद्धु डिब्बे (कम्प्यूटर) के आगे बैठ हम लोक गूगल से दुनियां तो देख लेते हैं पर पड़ोसी झुग्गी में देखना हमे गवारा नहीं। फिर क्या गलत करते हैं, हमें मूक बनाकर नेता और नक्सली।
(राहुल डबास)