हमारे शहर एंथेनस से अलग दिखने होगें, गावं भी स्पाटा से जुदा है, लेकिन फिर भी हम भारत के लोगो का सरोकार सुकरात से सबक लेने वाल है। सियाने कहते हैं कि भारत में मीठे जहर का काम जातियां करती है और जाति है की जाती नहीं..। अल्लाह जाने की मुन स्मृति में ऐसा क्या राज़ है। सियाने ये भी समझाते है कि अगर मनु महारजा को नहीं जाना तो जाति नहीं जान पाओगे और उसका जाल भी नहीं..। लेकिन मुझे अग्रेजी के ISM और हिन्दी के वाद से नफरत है, ये जिस सिद्धांत के पीछे लग जाते हैं, उस सोच को चश्मा बना देते है..जिससे आपको दुनियां रंगीन नहीं काली या सफेद दिखने लगती है। हर चीज में बुराइयां ही बुराइयां नज़र आती है, भलाईयां नहीं..।
माक्सवादी निजी-पूंजी को बुराई मानते हैं और फेमिजिस्ट्र (नारीवादी) आदमियों को आवश्यक बुराई का दर्जा देते हैं। मानो दो प्यार करने वालों को ही नहीं, भाई-बहन और मां-बेटे के रिश्तें को गाली दे रहे हो..। मनु कथित हो या काल्पनिक लेकिन बड़े वाले जरूर रहे होंगे..आखिर उसके चलते हिन्दु ही नहीं इस्लाम और सिखों में भी जाति का जाल बुन गया..। हालांकि आजादी के बाद इस मज़र को बदले के लिये बड़े-बड़े मजमें लगे, जिसमें में एक हमारी संविधान सभा भी थी। जिसने जाति के जोतो को तो नहीं तोड़ा आरक्षण का पौधा जरुर बो दिया। अब आरक्षण का ये पौधा पेड़ बन गया है, जिसे मंडल और कमंडल से खुराक ने सीचा था। आज इस पेड़ पर फल भी लगने लगे है, क्या हुआ उससे गरीबों का पेट नहीं भरता पर नेताओ का वोट-बैंक तो भर ही जाता है।
वहीं हम भारत के लोग पालतू कुत्तों की तरह, जो खुद को पिछड़ा साबित करने के लिये लाइन में अगड़े होकर आरक्षण की पैडीगिरि खाने को बेताब है। मानो पूरा भारत बीपीएल कार्ड और रिजर्वेशन की खैरात खातिर करार में खड़ा हो..। इतने सलीखें की कतार यूपी के आश्रम या दिल्ली के रेवले-स्टेशन पर लगती हो, भीड़ की भगदड़े सैकड़ो बेगुनाहं मारे नहीं जाते। अगर जाति की ज़जीर को तोड़ने की कोई कोशिश भी करें, तो खाप-पंचायतों का खौफ है। आखिर उनके लिये तो सवाल जाति का नहीं, रोटी और बेटी का है। मानो दोनो सामान हो, एक भोजन की वस्तु और दूसरी भोग की।
एक खासियत और है हमारे देश में कि यहां सुधारक चाहे कोई ना हो सियाने सभी है..कुछ सियाने कहते हैं शिक्षा के फैलाव से जाति-जाती रहेगी। लेकिन ऐसा दिखना नहीं है, राजस्थान को ही ले-ले अलवर से जौधपुर तक सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों में जाति के जोते आपको दिख जाएंगे। ब्राह्णमणों का, राजपूतों का, जाटो का, गुर्जरों का और मीणाओं का अलग-अलग समुह इस सियानी सोच के चीथड़े उड़ाते नज़र आता है..।
इसके लिये दिल्ली से दूर जाते की भी जरुरत नहीं है साहब, हर साल डीयू के चुनावी अखाड़े में जाटो और बिहारियों (ठाकुरों) की दगल की नंगी-नुमाई होती है। आखिर दोनो सैनानी है, लड़ाई तो बनती ही है। एक दलितों के घर जलाकर, जल्लाद बनने को बेताब है तो दूसरे रणबीरसैना और ना जाने कितनी सैनाये बनाकर पिछड़ो का मारकर खुद को खुदा समझने लगें हैं।
जहन्नुम (ताथाकथित शिक्षा का मन्दिर) के जल्वे तो आपने देख लिये, अब जरा जन्नत की हकीकत पर निगहां मार लें। मरने के बात इंसासित रह जाती है, इंसान नहीं। और अगर वो जवान मुल्क की खातिर फना हुआ हो तो बात ही क्या है। लेकिन जाति वहीं भी जाति नहीं। 1962-65-71-99 या यू कहे सिख, मराठा, राजपुतानो और जाट रैजिमेंट अपनी जाति के नाम लेकर शहादत में भी सेधमारी करती दिखती है। और बड़े गर्व से अपनी-अपनी जाति की पलटन की बेहुगा नुमाईश करती है, कि जाटो के चलते टाइगर हिल पर कब्जा हो पाया था और ना जाने क्या-क्या कारनामें। क्यों, क्या कोई पडिंत, मुस्लिम या हरिजन मुस्क से महोब्त नहीं कर सकता, क्या ये प्यार भी क्षत्रियों (पृथ्वीराज) की जागीर संयोगिता है..। कम से कम माटी के लालो के लहू की लाज करो साहब..।
इस जमिदारीं और जाति के जुल्म के खिलाफ कभी नक्सलबड़ी में बगावत की मुहिम चली थी, आज वो भी जाति के जाल में फस चुकी है। जहां जेएनयू और कलकता युनिवर्सिटी के अभिजात छात्र, बह्माण के रोल में है, पुराने जमिदार इसके क्षत्रियें है तो आये दिन राज्यों की पुलिस की पैंट उतारतें रहते है, लैबी उघानें वाले इसके वैश्य है और बेचारे-बेकसूर आदिवासी इनके दलित जो आमतौर पर इनं शेरो का शिकार ही बनते है, फिर चाहे गोली माओवादियों की हो या सीआरपीएफ की..।
एक नहीं जाति और भी है इस देश मे, जो जवान होती चली जा रही है। जिसका परवानगी तब दिखी जब आईपीएल के मैदान पर एक चैयल लीडर को आने से मना कर दिया गया। क्योकि वो दक्षिण अफ्रीका की नीग्रो थी। क्योकि उसका रंग हम सावलों से भी काला था। और हमे आजकल गोली चमड़ी का नशा है। अगर गाधीं आज जिंदा होते तो हाट-अटेंक से मर जाते, कि जिस रंग-भेद के लिये वो दक्षिण अफ्रीका में जाकर लगे थे और आज उसी मुल्क की बाला के साथ अपने ही देश में वहीं हो रहा है।
हम लोगो को उज्ले कपड़े रिन से धुरे हुये पंसद है, चमड़ी को चमकाने के लिये लड़के और लड़कियों के लिये अलग अलग पैलिश नहीं फेयरनेस क्रीम भी मौजूद है। फिर चाहे दिल कितना भी काला क्यो ना हो पर शक्ल सफेद और गोरी होनी ही चाहिये। हमारे इस पंसद का अनांज़ा इंटरनेशनल माक्रिट को भी है। तभी तो नब्बे के दशक के बाद हमारी नारियां मिस-वल्ड, मिस युनिवर्स बनने लगी..। क्या इससे पहले हमारी बालायें बला की हसीनं नहीं होती थी..या यका यका दुलियां उन्हें भारत के बढ़ते बाजार के चश्मे से दिखने लगी..। ये आज की जाति है जो अग्रेजीं से शुरू होती है, उज्ले-कपड़ो से गोरी चमड़ी के रास्ते भारत के गावं तक बाछे फैलाकर पहुच जाती हैं।
अब सवाल उठता है..कि मनु, नक्सल और कास्मोपोलिटिनं जातियों के जाल से निकलने का रास्ता क्य है। जो जबाव को तो आप खुद ही देख रहे है..जी मेरा ब्लाक नहीं,ये इनटंरनेट। आर्कुट, फेसबुक के रास्ते मुल्क और सरकारों की सरहगें बोनी होनें लगीं हैं। जो काम मंडल और कमंडल नहीं कर पाये वो लव-मेरिजें दबे-पावं कर रही है। आखिर दिल किसी जाति के ठेकेदार की खैरात नहीं है, जिसपर उसके सरोकरा की इमारत ही बनें...ये तो प्यार की बोली है जनाब, जो क्लास और कास्ट के बधनों में नहीं बधंती..। पर लड़ाई अभी बहुत बाकी है मेरो दोस्तो..हम लड़ेगें साथी जाति से जाल के खिलाफ, महोब्त के मौनसून की खातिर..सुकरात और प्यार के पयाले के लिये आखिर रुकने झुकना और बिखर जाना, हम भारतीयों की नियती.. लगती तो नहीं...बाकि आप समझजार है साहब..।
माक्सवादी निजी-पूंजी को बुराई मानते हैं और फेमिजिस्ट्र (नारीवादी) आदमियों को आवश्यक बुराई का दर्जा देते हैं। मानो दो प्यार करने वालों को ही नहीं, भाई-बहन और मां-बेटे के रिश्तें को गाली दे रहे हो..। मनु कथित हो या काल्पनिक लेकिन बड़े वाले जरूर रहे होंगे..आखिर उसके चलते हिन्दु ही नहीं इस्लाम और सिखों में भी जाति का जाल बुन गया..। हालांकि आजादी के बाद इस मज़र को बदले के लिये बड़े-बड़े मजमें लगे, जिसमें में एक हमारी संविधान सभा भी थी। जिसने जाति के जोतो को तो नहीं तोड़ा आरक्षण का पौधा जरुर बो दिया। अब आरक्षण का ये पौधा पेड़ बन गया है, जिसे मंडल और कमंडल से खुराक ने सीचा था। आज इस पेड़ पर फल भी लगने लगे है, क्या हुआ उससे गरीबों का पेट नहीं भरता पर नेताओ का वोट-बैंक तो भर ही जाता है।
वहीं हम भारत के लोग पालतू कुत्तों की तरह, जो खुद को पिछड़ा साबित करने के लिये लाइन में अगड़े होकर आरक्षण की पैडीगिरि खाने को बेताब है। मानो पूरा भारत बीपीएल कार्ड और रिजर्वेशन की खैरात खातिर करार में खड़ा हो..। इतने सलीखें की कतार यूपी के आश्रम या दिल्ली के रेवले-स्टेशन पर लगती हो, भीड़ की भगदड़े सैकड़ो बेगुनाहं मारे नहीं जाते। अगर जाति की ज़जीर को तोड़ने की कोई कोशिश भी करें, तो खाप-पंचायतों का खौफ है। आखिर उनके लिये तो सवाल जाति का नहीं, रोटी और बेटी का है। मानो दोनो सामान हो, एक भोजन की वस्तु और दूसरी भोग की।
एक खासियत और है हमारे देश में कि यहां सुधारक चाहे कोई ना हो सियाने सभी है..कुछ सियाने कहते हैं शिक्षा के फैलाव से जाति-जाती रहेगी। लेकिन ऐसा दिखना नहीं है, राजस्थान को ही ले-ले अलवर से जौधपुर तक सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों में जाति के जोते आपको दिख जाएंगे। ब्राह्णमणों का, राजपूतों का, जाटो का, गुर्जरों का और मीणाओं का अलग-अलग समुह इस सियानी सोच के चीथड़े उड़ाते नज़र आता है..।
इसके लिये दिल्ली से दूर जाते की भी जरुरत नहीं है साहब, हर साल डीयू के चुनावी अखाड़े में जाटो और बिहारियों (ठाकुरों) की दगल की नंगी-नुमाई होती है। आखिर दोनो सैनानी है, लड़ाई तो बनती ही है। एक दलितों के घर जलाकर, जल्लाद बनने को बेताब है तो दूसरे रणबीरसैना और ना जाने कितनी सैनाये बनाकर पिछड़ो का मारकर खुद को खुदा समझने लगें हैं।
जहन्नुम (ताथाकथित शिक्षा का मन्दिर) के जल्वे तो आपने देख लिये, अब जरा जन्नत की हकीकत पर निगहां मार लें। मरने के बात इंसासित रह जाती है, इंसान नहीं। और अगर वो जवान मुल्क की खातिर फना हुआ हो तो बात ही क्या है। लेकिन जाति वहीं भी जाति नहीं। 1962-65-71-99 या यू कहे सिख, मराठा, राजपुतानो और जाट रैजिमेंट अपनी जाति के नाम लेकर शहादत में भी सेधमारी करती दिखती है। और बड़े गर्व से अपनी-अपनी जाति की पलटन की बेहुगा नुमाईश करती है, कि जाटो के चलते टाइगर हिल पर कब्जा हो पाया था और ना जाने क्या-क्या कारनामें। क्यों, क्या कोई पडिंत, मुस्लिम या हरिजन मुस्क से महोब्त नहीं कर सकता, क्या ये प्यार भी क्षत्रियों (पृथ्वीराज) की जागीर संयोगिता है..। कम से कम माटी के लालो के लहू की लाज करो साहब..।
इस जमिदारीं और जाति के जुल्म के खिलाफ कभी नक्सलबड़ी में बगावत की मुहिम चली थी, आज वो भी जाति के जाल में फस चुकी है। जहां जेएनयू और कलकता युनिवर्सिटी के अभिजात छात्र, बह्माण के रोल में है, पुराने जमिदार इसके क्षत्रियें है तो आये दिन राज्यों की पुलिस की पैंट उतारतें रहते है, लैबी उघानें वाले इसके वैश्य है और बेचारे-बेकसूर आदिवासी इनके दलित जो आमतौर पर इनं शेरो का शिकार ही बनते है, फिर चाहे गोली माओवादियों की हो या सीआरपीएफ की..।
एक नहीं जाति और भी है इस देश मे, जो जवान होती चली जा रही है। जिसका परवानगी तब दिखी जब आईपीएल के मैदान पर एक चैयल लीडर को आने से मना कर दिया गया। क्योकि वो दक्षिण अफ्रीका की नीग्रो थी। क्योकि उसका रंग हम सावलों से भी काला था। और हमे आजकल गोली चमड़ी का नशा है। अगर गाधीं आज जिंदा होते तो हाट-अटेंक से मर जाते, कि जिस रंग-भेद के लिये वो दक्षिण अफ्रीका में जाकर लगे थे और आज उसी मुल्क की बाला के साथ अपने ही देश में वहीं हो रहा है।
हम लोगो को उज्ले कपड़े रिन से धुरे हुये पंसद है, चमड़ी को चमकाने के लिये लड़के और लड़कियों के लिये अलग अलग पैलिश नहीं फेयरनेस क्रीम भी मौजूद है। फिर चाहे दिल कितना भी काला क्यो ना हो पर शक्ल सफेद और गोरी होनी ही चाहिये। हमारे इस पंसद का अनांज़ा इंटरनेशनल माक्रिट को भी है। तभी तो नब्बे के दशक के बाद हमारी नारियां मिस-वल्ड, मिस युनिवर्स बनने लगी..। क्या इससे पहले हमारी बालायें बला की हसीनं नहीं होती थी..या यका यका दुलियां उन्हें भारत के बढ़ते बाजार के चश्मे से दिखने लगी..। ये आज की जाति है जो अग्रेजीं से शुरू होती है, उज्ले-कपड़ो से गोरी चमड़ी के रास्ते भारत के गावं तक बाछे फैलाकर पहुच जाती हैं।
अब सवाल उठता है..कि मनु, नक्सल और कास्मोपोलिटिनं जातियों के जाल से निकलने का रास्ता क्य है। जो जबाव को तो आप खुद ही देख रहे है..जी मेरा ब्लाक नहीं,ये इनटंरनेट। आर्कुट, फेसबुक के रास्ते मुल्क और सरकारों की सरहगें बोनी होनें लगीं हैं। जो काम मंडल और कमंडल नहीं कर पाये वो लव-मेरिजें दबे-पावं कर रही है। आखिर दिल किसी जाति के ठेकेदार की खैरात नहीं है, जिसपर उसके सरोकरा की इमारत ही बनें...ये तो प्यार की बोली है जनाब, जो क्लास और कास्ट के बधनों में नहीं बधंती..। पर लड़ाई अभी बहुत बाकी है मेरो दोस्तो..हम लड़ेगें साथी जाति से जाल के खिलाफ, महोब्त के मौनसून की खातिर..सुकरात और प्यार के पयाले के लिये आखिर रुकने झुकना और बिखर जाना, हम भारतीयों की नियती.. लगती तो नहीं...बाकि आप समझजार है साहब..।
3 टिप्पणियां:
you write well rahul...
its all set true...
keep it up
sky is ur limit
Acha hai dear bht sateek shabdo aur udharano ka prayog kiya gaya hai... jaat-paat me bhed- bhaav karne wale log samaj ke sudhrak nahi balki samaj ko ujadne wale hain jo in dikhavati bandhno se samaj ko khokhla kar rahe hain...jarurat in dikhawati logon ko samjhane ki...aur aaj ke samay yani present me inhe jina sikhane ki ...kynki aaj bhi in logon ki jhoothi Aan-Baan aur Shaan ki vajah se bekasuro ko sikaar hona pad raha hai
bahut khoob
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