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गुरुवार, जुलाई 15

सपेरो के देश नहीं, संसान का गुरु है - भारत

संसार भारत को विश्वगुरु की संज्ञा देता है, अर्थात विश्व को ज्ञान और विज्ञान का पाठ पढ़ाने वाला अध्यापक। समूचे विश्व धरातल के रंगमंच पर हमारे मुल्क का किरदार भी एक टीचर जैसा ही रहा है। उसके कभी प्रीचर बनने की कोशिश नहीं की। भारत ने कभी नहीं विश्व को कभी नहीं बताया कि उसके विज्ञान का अविष्कार मिस्र के फैरो से पहले, मसोपोटामिया की कब्रों से पहले, एथेंस के शहरों से पहले, चीन की दीवार से पहले, रोम की रियासत से पहले, सिधुं और गगां के मैदानो में हुआ था।

दुनिया के बेहतरीन शहर न्यूयार्क के नगरों में जल निकास(नालियों) की व्यवस्था के पीछे हड़प्पा की जल निकास व्यवस्था का हाथ है। जिसकी नालियां सात से दस फुट चौड़ी और दो फुट गहरी थी, उसे कपास और पत्थर से ढका जाता है। न्यूयार्क ही नहीं महोब्त और नाव के शहर वेनिस की सोच भी सिधुंघाटी सभ्यता के विज्ञान की देन हैं । जिसमें 2700 ईसापुर्व में ही संसार के सबसे बड़े स्नानागार का निर्माण किया गाया था। चीन की महान दीवार बनने से दो हज़ार साल पहले ही बालाकोट में मजबूत ईटो की भट्टियां रहा करती थी। सिकंदर का देश स्पाटा खुद को युद्ध कला का सबसे बड़ा कलाकार भले ही माने लेकिन तलवार की खोज भारत ने 2300 ई.पू में ही कर ली थी। रोमनो की खेती की नींव भी भारत के हल से पड़ी थी, जिसका अविष्कार 1900 ई.पू में हो चुका था। जिस पेरिस के आइफिल टावर को सात अजूबो में शुमार किया गया है। लोहे की इस इमारत में जंग ना आने की वजह कभी किसी के जहन में नहीं आई। इस संदर्भ में आपको बता दें कि इसके पीछे भी भारत का विज्ञान है। ठीक वैसे ही जैसे अशोक का लौह स्तंभ हजारों साल पुराना होकर भी जंग से अछूता है।

लेकिन फिर भी अगर आपको यह अविष्कार और खोज शुद्ध विज्ञान नहीं लगते तो याद रहे भारतीय विज्ञान की फेहरिस्त किसी फलसफे से भी लम्बी है। आधुनिक चिकित्सा के जन्म से पहले 1500 ई.पू में ही भारत में मोतियाबिंद का ईलाज मुमकिन था, जिसके लिये गर्म मक्खन की पट्टियों का इस्तेमाल किया जाता था। रोम के लोग कांच के गिलास को भारत में आकार लेते थे, नैश का पशु चिकित्सा विज्ञान उस वक्त अतुल्य था, अजंता की गुफाओं में उखेरे चित्रों के रंग बेजोड़ थे। यह प्रमाण है की भारत सदा से विश्वगुरु रहा है चाहे वो लिच्छवी-गंणतंत्र की कला हो, चाणक्य के अर्थशास्त्र की राजनीति, तक्षशिला-नांलगा का ज्ञान या आर्यभट और भास्कराचार्य का विज्ञान।

प्राचीन भारत से नहीं मध्यकालीन हिन्दुस्तान भी विज्ञान के ज्ञान से अछूता नहीं रहा। जब समूचा युरोप अंधकारयुग में लीन था, चर्च के घंटो के आगे गैलिलियों की गोल धरती चपटी हो जाती थी, न्यूटन के नियमों को रोमन सामंत झूठा करार दे रहे थे, तब भी इस मुल्क ने विकास के नये पैमाने तय किये गये थे। दुनियां बारुद की खोज का श्रेय भले भी चीन को देती हो, लेकिन दक्षिण भारत के विजयनगर राज्य में इसके खोज चीन से कहीं पहले की गई थी। प्रशा तलकालीन जर्मनी, ब्रिट्रेन और नेपोलिनय बोनापाट के फ्रांस के पहले कागज़ के नोट दिल्ली में चलते थे। दुनियां में पहली बार महुम्द बिन तुगलक ने काग़जी मुद्रा की शुरुआत करवाई थी। 1782 में टीपू सुल्तान के पिता हैदरअली अपनी सेना में शॉट गन का इस्तेमाल करते थे, जिसकी ताकत को दुनिया प्रथम-विश्वयुद्ध तक पहचान भी नहीं पाई। उसी दौर में मराठा सेना राकेट के प्रयोग में निपुण हो गई थी, हालांकि संसार इसे चलाना एडॉल्फ हिटलर के काल में सीख पाया। दिल्ली और जयपुर के जंतर-मंतर खगोल विज्ञान की प्रयोगशाला ही नहीं, उस काल में संसार की सबसे सटीक घड़ी भी रहे है।

कुछ लोगों का भारत के लिये मानना है की जब सूर्य पश्चिम में उदित होता है तो पूर्व में काली रात की शुरुआत हो जाती है। अर्थात जब पूंजीवाद और उद्योगीकरण से लंदन और पेरिस आबाद हुये तब तक भारत का विज्ञान बर्बाद हो चुका था। ऐसे विज्ञानों को भारत के विज्ञान से पहले अपने ज्ञान की खोज-खबर कर लेनी चाहिये। पेड़ो-पोधो में जान होती है, इस ज्ञान को बुद्घ और माहावीर जी सदियों पहले ही अपने अनुयायियों को दे चुके थे। लेकिन 1920 में जगदीश चंद्रबोस ने विश्व में पहली बार अपने वैज्ञानिक प्रमाण से साबित कर दिया। सी.वी.रमन, होमी भाभा, विक्रम साराभाई के हुनर और विज्ञान का लोहा सारा संसार मानता है।

आजादी के बाद भारत के कदम भविष्य के रास्ते पर जब नहीं रूके तो पश्चिम ने उसके रास्ते पर रोड़े डालने की कोशिशें जरुर की। पश्चिम के देशों का मानना था कि आखिर तीसरी दुनिया का पिछड़ा देश, कैसे दुनिया के विज्ञान में आगे हो सकता है। जब अमेरिका ने अपने बेकार लाल गेंहू यानी पीएल-480 हमें भीख में मुहैया कराये तो हमने हरित-क्रांति की राह खोज ली। जब खेती के लिये हमें बिजली की कमी खली तब हमने भाखड़ा-नांगल बाधं बनाया जो दुनिया भर में बेजोड़ है। जब पाकिस्तान और चीन कश्मीर की सीमा पर अपनी सेनाओं को बढ़ाने लगे तो हमने संसार के सबसे ऊंचे लेह-लद्दाख हाइ-वे के निर्माण कर डाला। तारापुर में न्यूक्लियर इंधन देने में विदेशी सरकारें आना-कानी करने लगी तो भारत ने पोखरण-एक में खुद ही परमाणु परीक्षण कर डाला। 1998 के पोखरण-दो के बाद जब पश्चिम अपनी पूजीं और विज्ञान पर अकड़ जमाकर भारत पर प्रतिबंध लगा रहा था तो हमने स्वदेशी लड़ाकू हवाई जहाज तेजर, बीजींग तक मार करने वाली अग्नि-3 और अंतरिक्ष में भारत को उड़ान भरने के लिये जीएसएलवी और पीएसएलवी लॉच सेटेलाइट बना दिये।

भारत के विज्ञान की गाथा यहीं नहीं रुकी। दुनिया का तीसरा सुपर कम्प्यूटर – परम2000 हमारे देश में बना, एम्म का नाम एशिया के बहतरीन मेडिकल-कॉलजों में शुमार है। आईआईटी और आईआईएम की धाक समूचा विश्व मानता है। बीएचयू, डीयू, जेएनयू ज्ञान और विज्ञान के महान केंद्र है। नासा में 34% , माईक्रोसोफ्ट में 31% , आईबीएम में 27% भारतीय वैज्ञानिक और इंजीनियर हैं। यूरोप और अमेरिका में हर तीसरा डॉक्टर हिन्दुस्तानी है। आज भारत दुनिया की छठी अंतरिक्ष शक्ति, पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, चौथी सैन्य ताकत है। यह तो महज आगाज़ है प्रथम पंक्ति के भारत का। भारत में ज्ञान दिलों में और विज्ञान दिमाग में दौड़ता है। सुई से लेकर एटम बम इस देश में बनाये जाते है। संसार इसे विश्वगुरु यू ही नहीं कहता। भारत बीते हुये कल से आने वाले कल की तरफ एक बार फिर समूचे विश्व को भविष्य के विज्ञान के रास्ते पर लेकर आगे बढ़ रहा है।

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