जो फर्क शायद घर और मकान मे है वहीं..कलोनियों और महोल्लों में भी नज़र आता है। एक रिश्तों का ताना-बाना है तो दूसरा दरकते संबधो और सपनों के बीच खड़ा ठूठ नुमा कंक्रीट का जंगल हैं। जहां एक रंगीन डिब्बे के आगे, फेसबुक के नागरिक हम लोग, गूगल से चश्मे से वर्चुवल-समाज में ब्रोडबैंड के ज़रियें ताना-बाना बुनते है।
मेरा पैदाइश दिल्ली के एक मिडल-क्लास इलाके सुभाष नगर में हुई नहीं लेकिन छुटपन में ही राजौरी-गार्डन में हम रहने लगे। पहली-पहल नगर से गार्डन रहते हुये डर लगता था। कि यहां के बच्चे अंग्रेजी बोलते होंगे, छुरी-काँटे से खाते होगें और गर्ल-फंड बनाते होगें। बहुत कुछ जुदा ही था, नगर में घरेलू-जेन सेट रखना हैसियत की बात थी, गार्डन में उसे हकीकत की निगांहो से देखा जाने लगा। जेंनसेट से काला-धुंआ निकलता है, पड़ोस की आबो-हवा में खलल डालता है, इस्तेमाल करना है तो इंनवर्टर करें। 90 के दौर में ये बात बहुत उम्दा लगती थी कि चलो किसी को तो पर्यावरण की परवाह है..लोग के घरों में बगीचे। लेकिन मेरी नंनी-आँखें उन बगीचों के अंदर से गरीचें देख नहीं पाई। आखिर गमलों में चार पौधे लगाने वाले लोगो का घर लड़की से फर्नीचर से पटा हुआ है। ठीक वैसे सी जैसे बिजली की कमी पर जेंनसेट की जगह इंनवेटर का जुगाड़, मानो इंनवेटर तो हवा से चलता है। ठेठ अमरीकी शैली..अपने मोहल्ले अच्छा दिखता रहे, मुल्क और मानवता की किसे पड़ी है।
पड़ोसी की एक लड़की बोली मुझसे दोस्त करोगें और किस करके चली गई। उस वक्त हम बच्चे Car 2 Car खेलते थे, इसे Plant 2 Plant का नवीन शहरी संस्करण कहा जा सकता है, जब पड़े कम और गाड़ियाँ ज्यादा होने लगे तो खेल का क़िस्से बदलने लगते हैं। हालाकी गाड़ियों संख्या आज जितनी नहीं थी। सरकारी अफ़सर अम्बेस्डर की सवारी करते थे, अमीर लोग फेयट पर चलते थे और नवीन अमीरीत के देन मारुती पर घूमने लगे थे। फिर एस्टीम और सीएलओ का जमाना आया और उसके बाद Plant 2 Plant की तर्ज पर Car 2 Car खेल भी ग़ायब हो गया। कारें ज्यादा हो गई थी और पार्किगं छोटी कोई आउट ही नहीं होता था।
महोल्ले के खेल फिर भी अपनी आखिरी सांसे से रहे थे, सामने का पार्क में जब शादियाँ नहीं होती थी तो किक्रिट का मेच लगता था। पड़ोस के मैदान में सर्कस का खेल होता था। आज उस पार्क में कंक्रीट का झरना लगा है और शादियाँ महोल्ले में नहीं हो सकती । कुल मिलाकर खेलना हो तो स्पोर्टस क्लब में दस हजार की फ़ीस देनी होगी और शादी रचानी ही तो दस लाख में होटल का बॉलरुम बुक कराना होगा। अब तो महोल्ले में रामलीला नहीं होती, रावण नहीं जलता, जलसा नहीं दिखता..फिर भी इसे पॉश ही सही महोल्ला कहा जाता है। जहां सर्कस लगती थी आज वहां दिल्ली के सबसे ज्यादा मॉल खड़े है, चौराहे की लाल-बत्ती खत्म करके फ्लाई-ओवर बना है, उसके उपर से ही मेट्रो गुजरती है मानो 20वी सदी का महोल्ला, 20 सास में हक्का-बक्का होकर ग्लोबल हो गया।
महोल्ला चाहे कोई भी हो खाना-और-बजाना हम लोगो शोक में शुमार हैं..पड़ोस के सरकारी स्कूल की पीछे बहुतेरे पंजाबी-ढाबे थे..आज भी पड़ोस में एक ढाबा है..जिसमें कुआं है, चटाई, गुड और खाट भी..लेकिन दाल की कीमत महज 1000 रुपये है। आखिर उसमें खेतो सी हवा एसी से आती है, कुऐ में पानी बिजली से चलता है और खाट महज दिखाने के लिये है बैठने के लिये नहीं। महोल्ले के घरों में जब फर्ज़ की जगह आइस-बॉक्स होता था जो खाना हर दफा ताज़ा बनता था..अब तो पिज्जा-पास्ता डीलीवर-मेन के स्कूटर से आते-आते ही बासी लगता है पर चप्पल-जुते एसी शो-रुम में सजे तरो-ताज़ा प्रतीत होते है।
महोल्ले के मायने बदल रहे है, मुझे पता है की मेरे फेसबुक पर 1350 दोस्त है लेकिन सामने वाले घर में कितने लोगो का परिवार रहता है ये नहीं पता। शायद पड़ोसी अंकल से ज्यादा मुझे गेट का गार्ड पहचानता होगा...क्योंकि अक्सर रात को उसी के दर्शन होते है। आज बच्चे X-Box3 में खेलते मजबूर है..आखिर पार्क तो खेलने के लिये बचे नहीं, बिजली कम जाती, महोल्ला रोशन रहता है..इतना रोशन कि, आसमान के तारे भी नहीं दिखते..। शादियों में दसी-ठुमके नहीं क्यूबा का सालसा दिखता है..चलो कम से कम अभी तक शादियों का रियाज़ तो है कल हो ना हो..जैसे आज शेर सर्कस में ना सही चिड़ियां-घर में तो मिलते..क्या पता कल वहीं बस चिड़िया ही दिखे।
जो महोल्ले बदल नहीं बाते पाते, उनमें ठसक रहती है, ठाठ नहीं..जैसे दरीयांगंज से दरीया (यमुना) दूर हो गई और गंज (महोल्ला)से गंजा बन गया है। राजौरी ने अपने रंग और रगीनं रखे, तभी तो उसका नाम है..पर नाम की नुमाइश से महोल्ले का नाते दरक जाते है और दरकते रिश्तों की रहीसी से दिल लगाना न्यु डेली की फितरत हो सकती है..देसी दिल्ली की रवायत नहीं।
मेरा पैदाइश दिल्ली के एक मिडल-क्लास इलाके सुभाष नगर में हुई नहीं लेकिन छुटपन में ही राजौरी-गार्डन में हम रहने लगे। पहली-पहल नगर से गार्डन रहते हुये डर लगता था। कि यहां के बच्चे अंग्रेजी बोलते होंगे, छुरी-काँटे से खाते होगें और गर्ल-फंड बनाते होगें। बहुत कुछ जुदा ही था, नगर में घरेलू-जेन सेट रखना हैसियत की बात थी, गार्डन में उसे हकीकत की निगांहो से देखा जाने लगा। जेंनसेट से काला-धुंआ निकलता है, पड़ोस की आबो-हवा में खलल डालता है, इस्तेमाल करना है तो इंनवर्टर करें। 90 के दौर में ये बात बहुत उम्दा लगती थी कि चलो किसी को तो पर्यावरण की परवाह है..लोग के घरों में बगीचे। लेकिन मेरी नंनी-आँखें उन बगीचों के अंदर से गरीचें देख नहीं पाई। आखिर गमलों में चार पौधे लगाने वाले लोगो का घर लड़की से फर्नीचर से पटा हुआ है। ठीक वैसे सी जैसे बिजली की कमी पर जेंनसेट की जगह इंनवेटर का जुगाड़, मानो इंनवेटर तो हवा से चलता है। ठेठ अमरीकी शैली..अपने मोहल्ले अच्छा दिखता रहे, मुल्क और मानवता की किसे पड़ी है।
पड़ोसी की एक लड़की बोली मुझसे दोस्त करोगें और किस करके चली गई। उस वक्त हम बच्चे Car 2 Car खेलते थे, इसे Plant 2 Plant का नवीन शहरी संस्करण कहा जा सकता है, जब पड़े कम और गाड़ियाँ ज्यादा होने लगे तो खेल का क़िस्से बदलने लगते हैं। हालाकी गाड़ियों संख्या आज जितनी नहीं थी। सरकारी अफ़सर अम्बेस्डर की सवारी करते थे, अमीर लोग फेयट पर चलते थे और नवीन अमीरीत के देन मारुती पर घूमने लगे थे। फिर एस्टीम और सीएलओ का जमाना आया और उसके बाद Plant 2 Plant की तर्ज पर Car 2 Car खेल भी ग़ायब हो गया। कारें ज्यादा हो गई थी और पार्किगं छोटी कोई आउट ही नहीं होता था।
महोल्ले के खेल फिर भी अपनी आखिरी सांसे से रहे थे, सामने का पार्क में जब शादियाँ नहीं होती थी तो किक्रिट का मेच लगता था। पड़ोस के मैदान में सर्कस का खेल होता था। आज उस पार्क में कंक्रीट का झरना लगा है और शादियाँ महोल्ले में नहीं हो सकती । कुल मिलाकर खेलना हो तो स्पोर्टस क्लब में दस हजार की फ़ीस देनी होगी और शादी रचानी ही तो दस लाख में होटल का बॉलरुम बुक कराना होगा। अब तो महोल्ले में रामलीला नहीं होती, रावण नहीं जलता, जलसा नहीं दिखता..फिर भी इसे पॉश ही सही महोल्ला कहा जाता है। जहां सर्कस लगती थी आज वहां दिल्ली के सबसे ज्यादा मॉल खड़े है, चौराहे की लाल-बत्ती खत्म करके फ्लाई-ओवर बना है, उसके उपर से ही मेट्रो गुजरती है मानो 20वी सदी का महोल्ला, 20 सास में हक्का-बक्का होकर ग्लोबल हो गया।
महोल्ला चाहे कोई भी हो खाना-और-बजाना हम लोगो शोक में शुमार हैं..पड़ोस के सरकारी स्कूल की पीछे बहुतेरे पंजाबी-ढाबे थे..आज भी पड़ोस में एक ढाबा है..जिसमें कुआं है, चटाई, गुड और खाट भी..लेकिन दाल की कीमत महज 1000 रुपये है। आखिर उसमें खेतो सी हवा एसी से आती है, कुऐ में पानी बिजली से चलता है और खाट महज दिखाने के लिये है बैठने के लिये नहीं। महोल्ले के घरों में जब फर्ज़ की जगह आइस-बॉक्स होता था जो खाना हर दफा ताज़ा बनता था..अब तो पिज्जा-पास्ता डीलीवर-मेन के स्कूटर से आते-आते ही बासी लगता है पर चप्पल-जुते एसी शो-रुम में सजे तरो-ताज़ा प्रतीत होते है।
महोल्ले के मायने बदल रहे है, मुझे पता है की मेरे फेसबुक पर 1350 दोस्त है लेकिन सामने वाले घर में कितने लोगो का परिवार रहता है ये नहीं पता। शायद पड़ोसी अंकल से ज्यादा मुझे गेट का गार्ड पहचानता होगा...क्योंकि अक्सर रात को उसी के दर्शन होते है। आज बच्चे X-Box3 में खेलते मजबूर है..आखिर पार्क तो खेलने के लिये बचे नहीं, बिजली कम जाती, महोल्ला रोशन रहता है..इतना रोशन कि, आसमान के तारे भी नहीं दिखते..। शादियों में दसी-ठुमके नहीं क्यूबा का सालसा दिखता है..चलो कम से कम अभी तक शादियों का रियाज़ तो है कल हो ना हो..जैसे आज शेर सर्कस में ना सही चिड़ियां-घर में तो मिलते..क्या पता कल वहीं बस चिड़िया ही दिखे।
जो महोल्ले बदल नहीं बाते पाते, उनमें ठसक रहती है, ठाठ नहीं..जैसे दरीयांगंज से दरीया (यमुना) दूर हो गई और गंज (महोल्ला)से गंजा बन गया है। राजौरी ने अपने रंग और रगीनं रखे, तभी तो उसका नाम है..पर नाम की नुमाइश से महोल्ले का नाते दरक जाते है और दरकते रिश्तों की रहीसी से दिल लगाना न्यु डेली की फितरत हो सकती है..देसी दिल्ली की रवायत नहीं।
5 टिप्पणियां:
Ironic truth......
rahul, vry nice, bahut bahut bahut hi achha likha hai.......keep it up. ekdum bachpan ki yad aa gayi.
mast likha hai boss, ekdum mast, love many phrases ryt here. keep the excellent work continue :)
soch aachi hai par teek se piro to diya hota. tukbandi likhna bhi ek art hai jisme wakt lagega. baki sab teek hai
soch aachi hai par teek se piro to diya hota. tukbandi likhna bhi ek art hai jisme wakt lagega. baki sab teek hai
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