मेरा जन्म देश में एलपीजी आने से पहले हुआ था.. नहीं-नहीं एलपीजी का अर्थ रसोई गैस नहीं, बल्कि लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन है। उस दौर में हमें सिर्फ एनसीईआरटी की किताबें पढ़ाई जाती थी.. जिसके पहले पन्ने पर महात्मा गांधी का एक लेख था जिस पर लिखा होता था कि *'जब बाजार जाए तो कोई भी सामान खरीदने से पहले यह जरूर सोच लें कि, कहीं आपसे ज्यादा वह किसी और के लिए जरूरी तो नहीं और जरूरी ना हो तो ना खरीदें'* उस वक्त उपभोक्तावाद बाज़ारू अर्थव्यवस्था का चलन नहीं था..शायद मौजूदा दौर की तरह... जब बाजार में जरूरी वस्तुओं खत्म होती जा रही है। तनख्वाह घटती जा रही है, नौकरियां जाती जा रही है, और लगने लगा है कि बाजार से सिर्फ वही खरीदे जिसके बिना जीना मुहाल हो जाए.. हां सड़कों पर इसी तरह के लोग डाउन या कर्फ्यू जैसे हालात थे तब भी.. लेकिन वह भी सिर्फ चंद मिनटों के लिए जब टीवी पर रामायण सीरियल आता था।
आज भी रामायण आती है, कर्फ्यू जैसे हालात है सड़कों पर सन्नाटा भी.. पर यह सन्नाटा ऐसे सपने के समान है जो इतना बुरा है मानो अभी नींद खुल जाए और सपना टूट जाए... पर शायद इंसानों को छोड़कर बाकियों के लिए यह ख्वाब हसीन है, क्योंकि हम दो पैरों के जानवरों को छोड़ बाकी धरती प्रकृति पर्यावरण और जीव जंतु ज्यादा खुशहाल है।
दोपहर के आसमान का रंग बरसों बाद नीला नजर आता है। सड़कों पर गाय, हिरन जहां तक की बारहसिंघा भी चहल कर्मी करते हुए दिख जाते हैं। प्रदूषण मानो बीते जमाने की बात लगती है। शायद इसे ही प्रकृति का न्याय कहते हैं। जो जवाब है अध्यात्म से दूर होते आधुनिकता के मद में चूर उन मानवों के लिए जो अपने इंसानियत को कोसों पीछे छोड़ आए हैं। यह सिद्धांत डार्विन के उस नियम का भी है कि जो जिंदा रहने योग्य है वह जीवित रहेगा। आजादी के वक्त हिंदुस्तान की औसत आयु 38 साल थी और अब करोना के कहर में यह वायरस उन सब को शिकार बना रहा है जो बुजुर्ग है या बीमार...और कई बार तो हमने खुद को जवानी में ही जीवन शैली से बीमार बना लिया। चाहे वह गाड़ियों के धुएं से जन्मा अस्तमा हो, चाहे शराब के नशे में चूर होता लीवर क्लासेस ,अनियमित खान-पान से पैदा हुए मधुमेह से लेकर ना जाने ऐसी कितनी बीमारियां हैं जिनका जन्म प्रकृति से दूर होकर हमने खुद किया।
बहुत से लोग कहते हैं की 1970 के अकाल के बाद चीनी सरकार ने चमगादड़ और सांप खाने की इजाजत देती है.. बहुत से लोग कहते हैं कि कोविड-19 एक बायोलॉजिकल हथियार है, जिसे चीन ने ब्रह्मास्त्र की तरह चला और जिसे जानबूझकर डब्ल्यूएचओ के कवच ने रोका नहीं। ऐसे में याद आती है तो.. दो विश्वयुद्ध, दो महायुद्ध, जिसने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया..
पहले विश्व युद्ध को लोग केमिस्ट के द्वारा लड़ी गई जंग मानते थे। केमिकल और बायोलॉजिकल हथियारों का चलन तभी से शुरू हुआ। दुनिया ने स्पेनिस फ्लू को देखा और जाना कि कैसे एक बायोलॉजिकल हथियार लाखों लोगों की लीला समाप्त कर सकता है।
हालांकि सकारात्मक सोच वाले संघार में भी सृजन खोज सकते हैं, जैसे कुछ लोगों का दावा है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत की शक्ति को रोकने के लिए जैसे ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देश अमेरिका के सामने नतमस्तक हो गए वैसे ही अगर पूरी धरा पर चलाक चीन को कोई रोक सकता है तो सिर्फ हिंदुस्तान हैष जिसके सामने अमेरिका और यूरोप दोनों नतमस्तक होंगे और जो करोना के तीसरे विश्वयुद्ध के बाद चीन की चुनौती का सामना का सामना रुद्र के लिंग की तरह करेगा।
पर सवाल यह है कि क्या हिंदुस्तान अंदर से इतना शक्तिशाली है ? कहीं कोविड-19 की तरह हमारे अंदर भी इस कदर वायरस का संक्रमण है जो हमें बीमार, बहुत बीमार बनाने के लिए काफी है.. जमात का उदाहरण सामने है। उसके बाद ना जाने कितने उदाहरण आए जहां मानवता को जमातियों ने शर्मसार कर दिया, मैं यह नहीं कहता सिर्फ जमातियों को मुसलमानों का नंबरदार माना जा सकता है, पर यह जरूर कहता हूं कि जैसे 90 के दशक की शुरुआत में कश्मीरी पंडितों का पलायन आतंकवादियों की गोलियों की वजह से नहीं हुआ, बल्कि बहुसंख्यक कश्मीरी मुसलमानों की चुप्पी की वजह से हुआ.. इसीलिए अगर मुसलमान अपने ईमान को इंसानियत की मदद के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं तो जमातीयों के जहर को अपने मज़हब से काट देना चाहिए।
लेकिन यह सवाल तो सिर्फ एक कौम से नहीं बल्कि पूरे के पूरे समाज से है.. क्योंकि जब डॉक्टर आपके मोहल्ले में रहने आता है तो आप उससे छुआछूत करते हो, आपको लगता है कि यह करो ना का संक्रमण ना फैला दें ,पर जब आप अस्वस्थ होते हो तो वही डॉक्टर आपको देवदूत नजर आता है.. तो क्या यह हम सबका डबल स्टैंडर्ड नहीं है..।
इसमें कोई शक नहीं की करोना के खिलाफ जंग में सबसे पहली आहुति श्रमिकों की श्रम की हुई है, जो लोग पहले से ही गरीब है और अपनी मजदूरी को मजबूती से करते हुए मुफलिसी से निकलने की अंतहीन कोशिश कर रहे हैं पर इस महाशक्ति भारत ने आजादी के बाद सबसे बड़ा पलायन उन्हीं का ही देखा..
अस्तित्व का सवाल तो उस मिडिल क्लास के लिए भी है। जिसके दम पर विकास का चरखा चलाते हुए हिंदुस्तान वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बनने के पथ पर है। अगर वह गिरते हैं तो पूरा देश गरीबी की गर्त में चला जाएगा.. जिस मिडिल क्लास के दम से अर्थव्यवस्था का पहिया घूमता है, बाजारों में बहार आती है और जीडीपी में ग्रोथ, वह आज अपनी सैलरी के एक बड़े हिस्से को ईएमआई के हवाले कर रहा है..अगर सैलरी बंद हुई तो सोचिए वह तो दिवालिया होगा ही पर देश दिवाली मनाने लायक नहीं रह जाएगा..
दुनिया बदलने वाली है.. जैसे हर महा युद्ध के बाद बदल जाती है। सवाल यह है कि इस बदली हुई दुनिया में हम कहां होंगे ? क्योंकि वैश्विक ताने-बाने तो अभी से टूटने लगे हैं। अपने बुजुर्गों को बचाने की जंग में हार तय हुआ इटली यूरोपीय यूनियन की तरफ नम आंखों से देख रहा है, पर उसका साथ देने के लिए यूरोप के पावर हाउस माने जाने वाली जर्मनी से लेकर P5 के सदस्य फ्रांस तक तैयार नहीं..
ब्रिटेन ने तो करोना से लड़ने की जगह उसके साथ जीने की राह अपनाई, लंबे समय तक लॉक डाउन नहीं किया और जब किया..तब तक राजपरिवार से लेकर प्रधानमंत्री तक मंत्रिमंडल से लेकर आम जनता तक संक्रमण से हार चुके थे। जिस साम्राज्य का सूरज अस्त नहीं होता था ,आज इस महामारी के चलते उसे रोशनी की किरण तक नजर नहीं आ रही है।
विश्व शक्ति अमेरिका घुटनों पर है। वह नहीं जानता कि अगर करोना को चीनी वायरस बुलाए तो बीमार लोगों को वेंटिलेटर की सप्लाई कौन करेगा ? अगर भारत को आंखें दिखाएं तो दवाइयों का दान कौन देगा ?
शुक्र है कि अफ्रीकी देशों में अभी भी करोना का कहर कम हैष वरना उन मुल्कों के पास तो कमाने के लिए सिवाय जिंदगी के.. शायद कुछ है ही नहीं.. करोना का कर्ता और विजेता चीन भी रोशन भले ही दिख रहा हो पर ड्रैगन के मोटी खाल के अंदर क्या है कोई नहीं जानता..
जानकार कहते हैं कि बीते 3 महीनों में चीन के अंदर करीब दो करोड़ मोबाइल फोन के सिम बंद हो गए, करीब 10 लाख लैंडलाइन की घंटियां अब नहीं बजती.. आप सोच सकते हैं कि लोग गरीब हुए होंगे नौकरियां चली गई होंगी, इसलिए जिनके पास दो-तीन मोबाइल थे उन्होंने 1-2 सिम बंद करते हैं, पर चीन की स्थिति भारत से अलग है वहां आधार नहीं फेशियल एक्सप्रेशन आपकी पहचान है. जो आपके मोबाइल नंबर से जुड़ी होती है। लिहाजा सिम बंद होने का मतलब काफी हद तक यह है कि आपकी पहचान मिट गई या आप खुद ही मिट गए..।
फिर भी चीन करोना के बाद बदली हुई दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति होगी, जो अभी से अपना रंग दिखाने लगा है। अगर गरीब और अफ्रीकी मुल्कों को मास्क दवाइयां खरीदनी है तो उससे चीनी कंपनियों से ही सॉफ्ट लोन लेना होगा जिसे तकनीकी भाषा में क्रेडिट लाइन ऋण कहते हैं। जो देश आज भी खुद को शक्तिशाली समझने की गलतफहमी पाले हैं ,उनसे भी चीन इस शर्त के साथ वेंटीलेटर देने को तैयार है की जासूसी वाली हुवाई कंपनी के 5G के लिए अपने बाजार के दरवाजे खोलने होंगे।
बदलती दुनिया में सबसे बड़ा और अंतिम सवाल यही है कि हम अगर करोना के कहर से जिंदा बच गए तो कहां खड़े होंगे ? हमारी नौकरी हमारा शहर हमारा देश.. 1930 की महामंदी से बुरी मंदी का सामना हम कैसे मिलकर कर पाएंगे ? क्या जनसंख्या विस्फोट को रूप लेने से हालात बदलेंगे या फिर से हमें ग्रामीण गणराज्य की आत्मनिर्भरता और जजमानी व्यवस्था की तरफ लौटना होगा। क्या इसके बाद हम ऐसी ही किसी वायरस से निपटने के लिए तैयार रहेंगे या एक नया वायरस धरा से इंसानों को खत्म कर देगा या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ह्यूमन बॉड इसका विकल्प हो सकते हैं और सबसे मौलिक सवाल कि क्या इस महाप्रलय के बाद मानवता जिंदा रहेगी..।
निश्चित ही हम जियेंगे और जीतेंगे भी.. आजादी के साथ दशकों में हमने लाल गेहूं से अनाज में आत्मनिर्भरता पाई है। सपेरे वाले देश को आंतरिक शक्ति बनाया है। हम लड़ेंगे साथी करोना के खिलाफ, गरीबी के खिलाफ और जितेन भी.. क्योंकि रुकना, झुकना और बिखर जाना हम भारतीयों की नियति नहीं..
10 टिप्पणियां:
शानदार
अच्छा लेख, सुंदर, अतिसुन्दर
सार्थक लेखन शैली का उत्कृष्ट उदाहरण,उम्दा सोच के साथ।
बेहतरीन
अति उत्तम
शानदार लेखन
Excellent piece of writing!!
Behtareen
Good
Very nicely explained analysis.
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