मॉनसून मोहब्बत का वक्त या मातम का मंज़र, मैं बाढ़ या बहार की बात नहीं कर रहा केवल आम बारिश और हम लोगो की बात बता रहा हूं। मेरी दो महिला मित्र रही हैं। एक कॉलेज के जमाने में थी और दूसरी जब मैं नौकरी पेशा बन चुका हूं। कॉलेज के जमाने में हम आम युवओं की तरह हम बारिश का इतज़ार करते हैं, उसमें भीगने का, खेलने का, हसंने का और घूमने का...भीगी दिल्ली धुली-धुली सी लगती थी...खासतौर पर विजय-चौक (इंडिया गेट) पर, फिज़ा में गर्मी के बाद की ठंडक थी, रास्तों पर मस्ती की रंगीनियां। डीयू में दोस्तों के साथ पंडित की चाय– शर्मा की कचौड़ी खाना... उसमें पानी छलकना, बरिश में बाइक रेसिगं, रिग रोड पर हल्ला-गुल्ला... बहुत याद आता है।
बमुश्किल तीन-चार साल गुज़रे होगें लेकिन मस्ती का वो मज़र बदल चुका है। आज मेरी महिला मित्र को मॉनसून मातम सा लगता है, पानी मानो मुसीबत की एसिड-रेन, कार है तो ठीक वरना सब बेकार है। आखिर भीगने के बाद मैट्रो की सवारी नहीं हो सकती, मॉल के एसी से ठंड लगने का खतरा है, कपड़े चिपचिपें हो जाते है। लेकिन क्या महज़ चंद सालों में मॉनसून का मंज़र बदल गया?
आपको ये कहानी मेरी लग सकती है, लेकिन इस बेगानी कहानी का सरोकार बुद्धू डिब्बे (कम्पूटर) के आगे बैठे आप से भी है। यकीन नहीं आता, तो चलो आपको थोड़ा फ्लैश-बैक में लिये चलता हूं। छुटपन में मां हमें बताती थी, कि जब चींटी के पंख निकल आयें या चीड़ियां रेत में नहाने लगे तो समझो बारिशों का मौसम करीब हैं। कुछ याद आया !! अख़बार के उस पन्नें में बारिश में नहातें गरीब बच्चो की तस्वीरें, मस्ती करती लड़कियों के फोटो..कितना सुकून देता था। पास के सोम-बाज़ार से हरियाली-तीज की शॉपिगं, सरकारी चैलन (डीडी-न्यूज) पर रोज़ रात देखना कि, मॉनसून कितने दिनों बाद आ रहा है। पहली बारिश में मद-मस्त होकर नहाना..घर पर पूरे परिवार के साथ गर्मा-गर्म पकोड़े खाना। ये पढ़कर ही चहरे पर चमक आ जाती है ना !!
मैं स्कूल में हुआ करता था बॉबी देओल की एक फिल्म आई थी– बरसात। हिन्दी फिल्मी-फंसाने में भी बरसात बहार का सिम्बल हुआ करती थी..आज तो मुबंई में हुई आफती-बारिश पर इमरान हाशमी की फिल्मों का चलन है। कभी कक्षा पहली की किताबों में मुल्क का मासूम बच्चपन पढ़ता था, कि भारत एक कृषि-प्रधान देश है जिसकी लाइफ-लाइन मॉनसून है। त्योहार इसी शुरु होते थे..हसीं भी और खुशी भी...
आज कि किताबों में भारत कृषि-प्रधान देश से वैश्विक-आर्थिक महा-शक्ति बन गया हैं। दिल्ली का यमुना-खादर जहां कभी फसलें लहराती थी, बारिश में बच्चे तैरते थे, आज अक्षरधाम मंदिर और खेल-गांव खड़ा है। बारिश अब बहार नहीं ब्रेकिंग न्यूज बनकर आती है। कल किसी चैनल पर आ रहा था – ब्रेकिगं न्यूज राजधानी में बारिश, आफत में दिल्ली। मेरे भाई मॉनसून में बारिश नहीं होगी तो क्या रेत की आंधिया चलेगी, और बारिशों में पानी गिरना भला कौन सी ब्रेकिंग-न्यूज है? ट्रैफिक जाम तो आये दिन होता है तो क्या भगवान पानी बरसाना छोड़ दें..यमुना आपके घरों तक बाढ़ लेकर नहीं पहुची है साहब, आपके उसकी ज़मीन छीनकर वहां अपना बसेरा बना लिया है। पता नहीं आज-कल अख़बारे से वो बारिश के पानी में खुशी में भीगती युवतियां और तैरते बच्चे कहा खो गये।
हम लोगों को एसी की आबो-हवा इतनी बेबस बना चकी है, कि ठंडी पुर्वा (बरसाती हवा) रास नहीं आती। डर तो इस बात का कि कहीं आते वाले पढ़ी पहली बरसात में भीगने के स्वाद ही भूल ना जाये। अपनी कार के शीशा को जरा उतारकर देखो नन्ही-बूदें कुछ कहना चाहती है। बारिश में आज भी पंछी अपने गीत गाते है, लेकिन हम एफएम के दीवानों का उनका सुर सुनाई नहीं देता। सुने भी तो कैसे, हमारे कान तो ईयर-फोन से बंद हो गये हैं। चिड़ियां के घोसलों को फ्लैटो में रहकर हम लोग बादलों को निहारना ही भूल चके हैं। भूल चुके ही बादलो में कभी परियों की कहानी दिखती थी..शक्ले पुरानी दिखती थी।
बारिश से बाहार आज भी आती है, दिल्ली पानी से धुली-धुली हो जाती है। मॉनसून मस्ती और मुहब्बत की राग-भैरवी गाता है, चंद दिनों के लिये सही गंदा-नाला बन चुकी यमुना नदीं सी नज़र आती है। परिवार वालो के पास एक दूसरे के लिये वक्त हो तो सरोईघर में पकोड़े तले जा सकते है। बेबस ट्रैफिक जाम में फंसे हम लोग अगर एक पल लिये बच्चे बन जाऐं, तो ये पानी आज भी प्यारा हैं, काग़ज की किश्ती की तरह, रिम-झिम फुहारें सनम की यादें आ भी दिलाती है, बारिश का शोर में मां की लोरी याद करते देखो.. मॉनसून के फिर मुहोब्बत हो जाएगी।
बमुश्किल तीन-चार साल गुज़रे होगें लेकिन मस्ती का वो मज़र बदल चुका है। आज मेरी महिला मित्र को मॉनसून मातम सा लगता है, पानी मानो मुसीबत की एसिड-रेन, कार है तो ठीक वरना सब बेकार है। आखिर भीगने के बाद मैट्रो की सवारी नहीं हो सकती, मॉल के एसी से ठंड लगने का खतरा है, कपड़े चिपचिपें हो जाते है। लेकिन क्या महज़ चंद सालों में मॉनसून का मंज़र बदल गया?
आपको ये कहानी मेरी लग सकती है, लेकिन इस बेगानी कहानी का सरोकार बुद्धू डिब्बे (कम्पूटर) के आगे बैठे आप से भी है। यकीन नहीं आता, तो चलो आपको थोड़ा फ्लैश-बैक में लिये चलता हूं। छुटपन में मां हमें बताती थी, कि जब चींटी के पंख निकल आयें या चीड़ियां रेत में नहाने लगे तो समझो बारिशों का मौसम करीब हैं। कुछ याद आया !! अख़बार के उस पन्नें में बारिश में नहातें गरीब बच्चो की तस्वीरें, मस्ती करती लड़कियों के फोटो..कितना सुकून देता था। पास के सोम-बाज़ार से हरियाली-तीज की शॉपिगं, सरकारी चैलन (डीडी-न्यूज) पर रोज़ रात देखना कि, मॉनसून कितने दिनों बाद आ रहा है। पहली बारिश में मद-मस्त होकर नहाना..घर पर पूरे परिवार के साथ गर्मा-गर्म पकोड़े खाना। ये पढ़कर ही चहरे पर चमक आ जाती है ना !!
मैं स्कूल में हुआ करता था बॉबी देओल की एक फिल्म आई थी– बरसात। हिन्दी फिल्मी-फंसाने में भी बरसात बहार का सिम्बल हुआ करती थी..आज तो मुबंई में हुई आफती-बारिश पर इमरान हाशमी की फिल्मों का चलन है। कभी कक्षा पहली की किताबों में मुल्क का मासूम बच्चपन पढ़ता था, कि भारत एक कृषि-प्रधान देश है जिसकी लाइफ-लाइन मॉनसून है। त्योहार इसी शुरु होते थे..हसीं भी और खुशी भी...
आज कि किताबों में भारत कृषि-प्रधान देश से वैश्विक-आर्थिक महा-शक्ति बन गया हैं। दिल्ली का यमुना-खादर जहां कभी फसलें लहराती थी, बारिश में बच्चे तैरते थे, आज अक्षरधाम मंदिर और खेल-गांव खड़ा है। बारिश अब बहार नहीं ब्रेकिंग न्यूज बनकर आती है। कल किसी चैनल पर आ रहा था – ब्रेकिगं न्यूज राजधानी में बारिश, आफत में दिल्ली। मेरे भाई मॉनसून में बारिश नहीं होगी तो क्या रेत की आंधिया चलेगी, और बारिशों में पानी गिरना भला कौन सी ब्रेकिंग-न्यूज है? ट्रैफिक जाम तो आये दिन होता है तो क्या भगवान पानी बरसाना छोड़ दें..यमुना आपके घरों तक बाढ़ लेकर नहीं पहुची है साहब, आपके उसकी ज़मीन छीनकर वहां अपना बसेरा बना लिया है। पता नहीं आज-कल अख़बारे से वो बारिश के पानी में खुशी में भीगती युवतियां और तैरते बच्चे कहा खो गये।
हम लोगों को एसी की आबो-हवा इतनी बेबस बना चकी है, कि ठंडी पुर्वा (बरसाती हवा) रास नहीं आती। डर तो इस बात का कि कहीं आते वाले पढ़ी पहली बरसात में भीगने के स्वाद ही भूल ना जाये। अपनी कार के शीशा को जरा उतारकर देखो नन्ही-बूदें कुछ कहना चाहती है। बारिश में आज भी पंछी अपने गीत गाते है, लेकिन हम एफएम के दीवानों का उनका सुर सुनाई नहीं देता। सुने भी तो कैसे, हमारे कान तो ईयर-फोन से बंद हो गये हैं। चिड़ियां के घोसलों को फ्लैटो में रहकर हम लोग बादलों को निहारना ही भूल चके हैं। भूल चुके ही बादलो में कभी परियों की कहानी दिखती थी..शक्ले पुरानी दिखती थी।
बारिश से बाहार आज भी आती है, दिल्ली पानी से धुली-धुली हो जाती है। मॉनसून मस्ती और मुहब्बत की राग-भैरवी गाता है, चंद दिनों के लिये सही गंदा-नाला बन चुकी यमुना नदीं सी नज़र आती है। परिवार वालो के पास एक दूसरे के लिये वक्त हो तो सरोईघर में पकोड़े तले जा सकते है। बेबस ट्रैफिक जाम में फंसे हम लोग अगर एक पल लिये बच्चे बन जाऐं, तो ये पानी आज भी प्यारा हैं, काग़ज की किश्ती की तरह, रिम-झिम फुहारें सनम की यादें आ भी दिलाती है, बारिश का शोर में मां की लोरी याद करते देखो.. मॉनसून के फिर मुहोब्बत हो जाएगी।
21 टिप्पणियां:
बहुत खूब कहा ...
सही कहा भाई आपने....
लेकिन इल भागम भाग की जिंदगी में ये सोचने की फुर्सत किसके पास है....
लेकिन आज भी बारिश में भिंगने का मजा हीं कुछ और है।...
लेकिन ऑफिस से घर वापस लौटते समय....
Bahut Khubsoorat tarike se Humari Zindagi ko darshya.Amazing!
Main Aap ki Baat se sahmat hu.
Aur ek Baat Aap Bahut Accha likhate hai .Thxxx
बहुत खूब राहुल भाई,आपने इन खबरों की दुनिया में खो चुके छुटपन की यादें ताज़ा कर दी.....
Very true, now yamuna really look like the mighty flowing river mentioned in our mythology...
Very nice article
Keep it up...
Very true, now yamuna really look like the mighty flowing river mentioned in our mythology...
Very nice article
Keep it up...
(Richa Shrivastav)
Bahut badiya.. apka waktavya bahut acha he..
बहुत ही अच्छा लिखा है राहुल भाई !! काफी कुछ यादे वापस ला दी !!
बारिश से सभी कि कुछ न कुछ यादें जुडी हुई होती हैं !!
well said bro,,,,,,keep it up
kya khoob likha.....jindagi ki is bhagam bhag mai hum prakarti ko samajhna or usse enjoy krna bhul hi gye the
nostalgic
Bilkul sahi kaha hai rahul..............lekin hamen ya aap ko chinta karne ki koi jarurat nahi kyon ki in tathakathit banawati logon ke chahne ya na chahne se apni matwali barish band hone wali nahi......... to apne andar ke bacche ko marne mat dijiye aur barish me bhigne ka maja leta rahiye.....Thanks
hum shaayer iss khoobsurat duniya ko baareeki se dekhte hain ....zindagi ki bhagam bhaag mein bhi kuhda ke banaye haseen nazaron ko nihare bagair nahi raha jaata ....agar kudrat ki khoobsurtiyan nahi hoti toh shayri paida hi nahi hoti ................
ye baat to sahi hai ki yamunaa ne apne pau nhi pasare hai , hamne khud uski pau samet diye hai................. thank
राहुल भाई बिल्कुल सही लिखा है, लेकिन परिवर्तन तो प्रकृति का शास्वत नियम है वक्त के साथ हर चीजें बदल जाती हैं ये तो चलता ही रहेगा ।
ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें
सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तेरी आवाज़ बुलाती है हमें
याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यूँ है
अब तो हर वक़्त यही बात सताती है हमें
वृजनंदन चौबे
Very well said..
Barish...ye shabd apne aap mein ek sheetalta de jata hai...aur aapka ye aalekh bhi usmein kafi madadgar sabith hua hai..bilkul sahi farmaya hai aapne aaj ka haal..lekin mera diwanapan aaj bhi bheegane ke liye barkarar hai...dimag,profession,situation and ghar wale permission nahi dete hain bheegane ko par ye natkhat dil manta hai kaha...fir ladai suru hoti hai yaha bhi dil aur dimag ki...dil ki bekrari pe dimag taala laga jata hai..par dil kaha manane wala...bahane dhoondhta hai bheegane ke...aur bheeg hi leta hai.
Aise Rahul bhai aaj jab Ayodhya fir se surkhiyon mein hai to yaha bhi baris ka apna mahatav hai...ab poochhiye kaise..?..main batata hun...arree baris to sarv dharm sadbhav ka anokha example hai...bina dharm aur jaati poochhe sabki pyas bujhata hai...kuchh lines maine usi pe likhe hain...
मेघा तेरी अल्हड़ता ने दिल जीता है मन जीता है...
जाने कितनों कि प्यास बुझी तू हर धर्म का गीता है..:)
Bahot acha likha hai rahul apne, mujhe to aaj bhi baarish utni hi pasand hain jitni pehle, haan lekin kuch cheezein badal gayi hain, ab lagta hai ki office jaate waqt baarish na ho, waqt ki kami itni ho gayi gai hai ki do pal thehar kar baarish ki boondon ka anand lena bhi mushkil ho gaya, lekin phir bhi jab bhi waqt milta hai, apne bhai-behan k saath baarish ka anand zarur leti, mummy pakode banati hain, hum kaagaz ki kashti banate hain aur bahot masti karte hain.
@ Shashank Shekhar - आपने सही फरमाया मजहब और जाति पानी के सामने जाती रहती है। आप पीनें के गिल्लास या कुअं बाट सकते है लेकिन वर्षा की बूंदे नहीं..
@ Supriya - दोस्त सवाल लेट होने से नहीं जिस्बे और जस्बातों का है..कहते है पानी का कोई रंग नहीं होता..आप उसमें उमंग की झूलें भी देख सकते है और आंखुओं की दरिया थी..।
aacha likha hai bhai
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