मोहन दास गांधी ने कभी सोचा नहीं होगा की बुरा ना देखो, सुनो और बोलो कहने वाले उनके बंदरों को आज का आम-आदमी अपनी आदत में शुमार कर लेगा..। बस वो बंदर बहरा, अंधा और गूंगा बन चुका है। जो हर बदलाव से डरता है, हर बात से बचता है और सच से छुपता है।
खुद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के ख़ुदा (नेता) कहने वालो ने लोकतंत्र (आवाम की आत्मा) हत्या कर दी और अब वो पोस्टमार्टम भी नहीं करवाना चाहते। उन्हे हर उस बात से डरते है जो संवेदनशील है। वो जनता की संवेदना का ही कत्ल करना चाहते है ताकि जनता प्रजा नामक सूअर बनकर रोज रोजी-रोटी में जीते रहे और चुनाव के बाद वोटो की माला पहनाकर उसी सूअर की बलि दे दी जाती है। वो SEX-Edu पर बात नहीं करते, समलैंगिकता पर बहस से बचते है, 84 की दिल्ली और 03 के गुजरात पर आम-राय नहीं बनाते और आरक्षण-अनशन पर उनके अल्फाज़ों का ही अंत हो जाता है।
किताबों पर पढ़ा था लोकतंत्र में उदारता होती है, संवाद और बहस का मौका मिलता है..पर शायद किताबों का किस्सा किसी और देश के लिए रहा होगा..। वो ख़ुदा (नेता) डेली-बेली में मां-बहन की सुन सकते है, प्यार के पंजनामें में नंगा-नाच देख सकते है, फिल्मों के नाम अगर कमीने हो तो भी उन्हे कोई दिक्कत नहीं पर..आरक्षण पर बात करना भी उन्हे गंवारा नहीं..। फिल्म में मौलिक सवाल उठाया गया था कि जब पिछड़े आपके घर की सफाई कर सकते है, खेतों में काम कर सकते है, आपकी ट्टी तक उठा सकते है तो उनकी मेहनत पर किसी को शक नहीं होना चाहिए साथ ही यह बात भी उतनी सच है कि विकास के लिए आरक्षण की बैसाखी नहीं मैरिट के पैमाने की जरुरत है।
लेकिन हमारे नेताओं को यह विषय ही गलत लगता है। क्योंकि यह जातिवाद और आरक्षण पर सवाल उठाता है। साहब जब जाट आरक्षण के नाम पर रेल को जाम कर रहे थे, गुर्जर और मीणा राजपूताना को जला रहे थे। जब मंडल वाले सरकार चला रहे थे तब किसी भी नेता को आरक्षण के नाम पर जातिवाद फैलाने की याद क्यों नहीं आई ? क्यो आगे बढ़ते भारत में साल-दर-साल कुछ जातियां पिछड़ जाती है ? इसपर कोई नेता सवाल क्यों नहीं उठाता ! जाति के नाम पर बनी खाप-पंचायतें देश का कानून को कचरे की टोकरी में डालकर अपना फतवा सुनाती है तो किसी को सविंधान की याद क्यो नहीं आती ?
सिर्फ इसलिए की यह एक सवेंदनशील मुद्दा तो इस पर बहस नहीं हो सकती। इसलिए स्कूलों में sex-edu नहीं देनी चाहिए फिर चाहे भारत दुनियां में सबसे आबादी वाला देश बने या एड्स के मरीज़ो का नया विश्व किर्तिमान बनाए, संसद के बाहर लोकपाल पर बहस मंज़ूर नहीं है फिर चाहे नेताओ के घोटाले 2 लाख करोड़ के हो या वो पूरे मुल्क को बेचे दें...। इसे लोकतंत्र नहीं लाशतंत्र कहा जा सकता है, जिसमें हर शख्स एक जिंदा लाश है, जिसे जब चाहे पुलिस वाला लात मार सकता है, सरकारी बाबू भ्रष्टाचार के नाम पर उसकी जेब काट सकते है, नेताओं के नियम उसकी नियती तय सकते है और वो गांधी जी के बंदर की तरह मुंह-आख-कान बंद करके जिंदा लाश बना रहता है।
लाशों के लोकतंत्र में आपका स्वागत है, जहां रह लाश आपको जी-कर मरना सिखाती है, कोई कहता है कि आरक्षण और अशनश दिखाने वालो की मत सुनो..। जो सरकार चाहे सविंधान की दुहाई देकर किसी फिल्म के बैन कर दें, पर क्या अभिव्यक्ति का अधिकार भी उसी सविंधान में नहीं लिखा ? क्या शांतिपूर्ण अशनश उसी सविंधान के मौलिक अधिकारों में दर्ज नहीं हैं ? मैने शुरुआत में नेताओं को ख़ुदा कहा था, उसके गहरे अर्थ हैं वो हिन्दुओं के मनु और मुसलमानों के ख़िलाफ़ा की तरह सविंधान को किसी धार्मिक पुस्तक बनाकर इस्तेमाल करते रहते हैं और हम गांधी जी बंदर अपना मुंह उसके हर फतवे पर बंद रखना ही बेहतर समझते है ।
लाशों के लोकतंत्र में कुछ लाशें कहती है कि लोकपाल से कुछ नहीं बदलने वाला, हर एक अधिकारी और बढ़ जाएगा जिसे रिश्वत देनी होती, कल तक जो काम 50रुपये की रिश्वत से होता था लोकपाल के बाद 100रुपये देने होगें, आखिर 50रुपये कि रिश्वत तो लोकपाल का हक होगा। कुछ सियानी लाशें यह भी बताती है कि सविंधान की आत्मा है न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में शक्ति-संतुलन कायम रखने में है...जो लोकपाल आते ही बिगाड़ा जाएगा। लोग यह भी कहते हैं कि प्रकाश झा फिल्म से पैसा कमाना चाहता है और फौज में ड्राइवर रहा अन्ना क्या जाने लोकपाल बिल की बात..।
मैं उस लोकतंत्र की लाशों से एक सवाल पूछना चाहता हूं, आजकल बच्चे अपने मां-बाप की कद्र नहीं करते तो क्या वो बच्चे पैदा करने छोड़ देगें ? या अगर घी-दूध-सब्जी-फल-अन्न में मिलावट होने लगी तो क्या उन्होने भूख हड़ताल कर ली थी ? नहीं ! तो फिर लोगों को यह समझना चाहिए कि व्यवस्था की कब्र खामोशी की नींद से बेहतर होगा..अमनो के लिए, सपनों के लिए लड़ना..। जब एक फौज के रिटायर ड्राइवर (अन्ना हज़ारे) बुढ़ापे में भुखे रहकर लड़ सकता है, जब इस फिल्म निर्माता अपनी फिल्म और पूंजी को दाव पर लगाकर लड़ सकता है तो 125 करोड़ जिंदा लाशे क्यों नहीं...
लोकपाल से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा, RTI के बाद भी घोटाले होते है पर बंदर बनकर अंधे-गूगें और बहरे होने से, लोकतंत्र की जिंदा लाश बनने से, काम से घर और घर से काम पर जाने से, रिश्वत को सुविधा-कर मानने से, एक फिल्म पर पाबंदी लगाने से, एक अर्थशास्त्री को भगवान मानकर देश को दिवालिया बनाने से, लाल-सलाम के आतंक को सहने से, अफ़जल-कसाब को जेल में खिला-पिलाकर पालने से, सरकारी बाबुओ को गाली देकर भी उसी सरकारी नौकरी को पाने से, खैराती अस्पताल में अपनो को मरते देखने से, राम के नाम पर इमारतों को तोड़ने से, बुर्क़े और घूंघट में घुटने से, टूटे सपनों का मातम बनाने से, अधूरे अधिकारों की चिता जलाने से..लड़कर मर जाना बेहतर होगा..। शांति से लिए युद्ध ज़रूरी है और लोकतंत्र में जंग हथियारों से नहीं हौसले से लड़ी जाती है..। गांधी जी के बंदरों अब हल्ला बोलो....!!
खुद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के ख़ुदा (नेता) कहने वालो ने लोकतंत्र (आवाम की आत्मा) हत्या कर दी और अब वो पोस्टमार्टम भी नहीं करवाना चाहते। उन्हे हर उस बात से डरते है जो संवेदनशील है। वो जनता की संवेदना का ही कत्ल करना चाहते है ताकि जनता प्रजा नामक सूअर बनकर रोज रोजी-रोटी में जीते रहे और चुनाव के बाद वोटो की माला पहनाकर उसी सूअर की बलि दे दी जाती है। वो SEX-Edu पर बात नहीं करते, समलैंगिकता पर बहस से बचते है, 84 की दिल्ली और 03 के गुजरात पर आम-राय नहीं बनाते और आरक्षण-अनशन पर उनके अल्फाज़ों का ही अंत हो जाता है।
किताबों पर पढ़ा था लोकतंत्र में उदारता होती है, संवाद और बहस का मौका मिलता है..पर शायद किताबों का किस्सा किसी और देश के लिए रहा होगा..। वो ख़ुदा (नेता) डेली-बेली में मां-बहन की सुन सकते है, प्यार के पंजनामें में नंगा-नाच देख सकते है, फिल्मों के नाम अगर कमीने हो तो भी उन्हे कोई दिक्कत नहीं पर..आरक्षण पर बात करना भी उन्हे गंवारा नहीं..। फिल्म में मौलिक सवाल उठाया गया था कि जब पिछड़े आपके घर की सफाई कर सकते है, खेतों में काम कर सकते है, आपकी ट्टी तक उठा सकते है तो उनकी मेहनत पर किसी को शक नहीं होना चाहिए साथ ही यह बात भी उतनी सच है कि विकास के लिए आरक्षण की बैसाखी नहीं मैरिट के पैमाने की जरुरत है।
लेकिन हमारे नेताओं को यह विषय ही गलत लगता है। क्योंकि यह जातिवाद और आरक्षण पर सवाल उठाता है। साहब जब जाट आरक्षण के नाम पर रेल को जाम कर रहे थे, गुर्जर और मीणा राजपूताना को जला रहे थे। जब मंडल वाले सरकार चला रहे थे तब किसी भी नेता को आरक्षण के नाम पर जातिवाद फैलाने की याद क्यों नहीं आई ? क्यो आगे बढ़ते भारत में साल-दर-साल कुछ जातियां पिछड़ जाती है ? इसपर कोई नेता सवाल क्यों नहीं उठाता ! जाति के नाम पर बनी खाप-पंचायतें देश का कानून को कचरे की टोकरी में डालकर अपना फतवा सुनाती है तो किसी को सविंधान की याद क्यो नहीं आती ?
सिर्फ इसलिए की यह एक सवेंदनशील मुद्दा तो इस पर बहस नहीं हो सकती। इसलिए स्कूलों में sex-edu नहीं देनी चाहिए फिर चाहे भारत दुनियां में सबसे आबादी वाला देश बने या एड्स के मरीज़ो का नया विश्व किर्तिमान बनाए, संसद के बाहर लोकपाल पर बहस मंज़ूर नहीं है फिर चाहे नेताओ के घोटाले 2 लाख करोड़ के हो या वो पूरे मुल्क को बेचे दें...। इसे लोकतंत्र नहीं लाशतंत्र कहा जा सकता है, जिसमें हर शख्स एक जिंदा लाश है, जिसे जब चाहे पुलिस वाला लात मार सकता है, सरकारी बाबू भ्रष्टाचार के नाम पर उसकी जेब काट सकते है, नेताओं के नियम उसकी नियती तय सकते है और वो गांधी जी के बंदर की तरह मुंह-आख-कान बंद करके जिंदा लाश बना रहता है।
लाशों के लोकतंत्र में आपका स्वागत है, जहां रह लाश आपको जी-कर मरना सिखाती है, कोई कहता है कि आरक्षण और अशनश दिखाने वालो की मत सुनो..। जो सरकार चाहे सविंधान की दुहाई देकर किसी फिल्म के बैन कर दें, पर क्या अभिव्यक्ति का अधिकार भी उसी सविंधान में नहीं लिखा ? क्या शांतिपूर्ण अशनश उसी सविंधान के मौलिक अधिकारों में दर्ज नहीं हैं ? मैने शुरुआत में नेताओं को ख़ुदा कहा था, उसके गहरे अर्थ हैं वो हिन्दुओं के मनु और मुसलमानों के ख़िलाफ़ा की तरह सविंधान को किसी धार्मिक पुस्तक बनाकर इस्तेमाल करते रहते हैं और हम गांधी जी बंदर अपना मुंह उसके हर फतवे पर बंद रखना ही बेहतर समझते है ।
लाशों के लोकतंत्र में कुछ लाशें कहती है कि लोकपाल से कुछ नहीं बदलने वाला, हर एक अधिकारी और बढ़ जाएगा जिसे रिश्वत देनी होती, कल तक जो काम 50रुपये की रिश्वत से होता था लोकपाल के बाद 100रुपये देने होगें, आखिर 50रुपये कि रिश्वत तो लोकपाल का हक होगा। कुछ सियानी लाशें यह भी बताती है कि सविंधान की आत्मा है न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में शक्ति-संतुलन कायम रखने में है...जो लोकपाल आते ही बिगाड़ा जाएगा। लोग यह भी कहते हैं कि प्रकाश झा फिल्म से पैसा कमाना चाहता है और फौज में ड्राइवर रहा अन्ना क्या जाने लोकपाल बिल की बात..।
मैं उस लोकतंत्र की लाशों से एक सवाल पूछना चाहता हूं, आजकल बच्चे अपने मां-बाप की कद्र नहीं करते तो क्या वो बच्चे पैदा करने छोड़ देगें ? या अगर घी-दूध-सब्जी-फल-अन्न में मिलावट होने लगी तो क्या उन्होने भूख हड़ताल कर ली थी ? नहीं ! तो फिर लोगों को यह समझना चाहिए कि व्यवस्था की कब्र खामोशी की नींद से बेहतर होगा..अमनो के लिए, सपनों के लिए लड़ना..। जब एक फौज के रिटायर ड्राइवर (अन्ना हज़ारे) बुढ़ापे में भुखे रहकर लड़ सकता है, जब इस फिल्म निर्माता अपनी फिल्म और पूंजी को दाव पर लगाकर लड़ सकता है तो 125 करोड़ जिंदा लाशे क्यों नहीं...
लोकपाल से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा, RTI के बाद भी घोटाले होते है पर बंदर बनकर अंधे-गूगें और बहरे होने से, लोकतंत्र की जिंदा लाश बनने से, काम से घर और घर से काम पर जाने से, रिश्वत को सुविधा-कर मानने से, एक फिल्म पर पाबंदी लगाने से, एक अर्थशास्त्री को भगवान मानकर देश को दिवालिया बनाने से, लाल-सलाम के आतंक को सहने से, अफ़जल-कसाब को जेल में खिला-पिलाकर पालने से, सरकारी बाबुओ को गाली देकर भी उसी सरकारी नौकरी को पाने से, खैराती अस्पताल में अपनो को मरते देखने से, राम के नाम पर इमारतों को तोड़ने से, बुर्क़े और घूंघट में घुटने से, टूटे सपनों का मातम बनाने से, अधूरे अधिकारों की चिता जलाने से..लड़कर मर जाना बेहतर होगा..। शांति से लिए युद्ध ज़रूरी है और लोकतंत्र में जंग हथियारों से नहीं हौसले से लड़ी जाती है..। गांधी जी के बंदरों अब हल्ला बोलो....!!
3 टिप्पणियां:
AARAKSHAN AKA RESERVATION for physically fit,gormless-lumpish people.Ist impose it on hardworking assiduous intelligent population and when someone raise the issue through social media,then ban it.The biggest example of fascism in this country by the ruling congress.Paint ur toilet with the images of Sonia and Arjun Singh in protest.They deserve to be in deepshit.
Rahul Tumhare Vichar Bahut Krantikari hain ye mujhe pata hain..wahi khubi tumahre lekhni me dikhai padti hain..Bhaut tikha aur satik likhte ho..Meri shub kamnaye hain ki tumhare lekh padker log zarur sochne me majbor hojayenge..keep it up
sirf itna he kahunga आखिर.. रुकना, झुकना और बिखर जाना...हम भारतीयों की नियति नहीं..
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