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शनिवार, अक्तूबर 22

RSS गाली क्यों ?


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यह किसी NGO या दबाव समूह का नाम कम लक्ष्मण रेखा का नाम ज्यादा    लगता है। RSS ने गुजरात के भुज-भूचाल से औड़िसा के  चक्रवात तक क्या काम किया इसकी चर्चा भी नहीं होती वरण इस बात बहस जरुर होती है कि या तो आप संघी विचारधारा वाले हैं या संघ विरोधी। आजकल संघ के नाम का सवाल कुछ बदल गया है लोग कहते है या तो आप सभ्य नागरिक है या साम्प्रदायिक संघी। संघ एक विचार धारा नहीं एक गाली बन गई है..। शायद यह सबसे बड़ी जीत है नेहरू-गांधी परिवार के वास्ते।



अगर आप वन्देमातरम बोले तो आप साम्प्रदायिक हैं, भारत मां की चित्र को नमन करें तो मुस्लिम विरोधी, अगर भग्वा रंग की निक्कर पहन लें तो देशद्रोही। यहां तक खुद को धर्मर्निपेक्षता का ठेकेदार बताने वालो भी आंतक का रंग काला या हरा नहीं केवल भगवा ही नज़र आता है। RSS एक ऐसी गाली है जिसकी सोच से अन्ना का गोल चश्मा भी चपटा हो जाता है। वो भारत मां की तस्वीर अपने मंच से दूर रखते है। मंच पर गांधी दिखते हैं और शयन कक्ष में विवेकाचंद। आज सब लोग RSS से दूरी बनाना ही बेहतर समझते हैं मानो 18वीं सदी का दलित सामने आ गया है।


जिस RSS से कभी अटल और आडवाणी जुड़े थे, उसकी शाखाओं में संयुक्त भारत (भारत-पाक-बग्लादेश-बर्मा) की तस्वीर लगी होती थी और शाखाओं में दिखती थी जवां-भारत की फौज। आज चंद बूढ़े चंद पार्को में चंद पलों के लिए योग करते दिख जाते हैं। उसके सयुक्त भारत का सपना धुंधला हो चुका है ठीक उसके नेताओ के सफेद बालों की तरह। जब कांग्रेस का प्रधानमंत्री (नरसिम्हा राव) खादी के नीचे भगवा निक्कर पहनते थे वो दौर गुजर चुका है आज तो भगवा किला बने गुजरात में भी RSS के विचार या बीजेपी की सरकारी नहीं मोदी की तानाशाही चलती है। मुझे आज भी गोवा के मंच से अटल के आंसू याद है जब गुजरात जल रहा था और अटल जैसा प्रधानमंत्री भी मोदी को सीएम के पद से हटा नहीं पा रहा था। मेरे ज़हन में कोई और पीएम नहीं आता जो मंच पर रोया हो शायद आजतक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री अटल रहे होंगे मनमोहन नहीं..।



RSS के पतन के पीछे उसकी विचारधारा का ही हाथ है और यही अतंर है कांग्रेस और संघ के बीच। कांग्रेस एक सामंती दल है जिसमे एक राजपरिवार की सत्ता चलती है, जबकि RSS एक विचारधारा। वक्त बदल गया विचार नहीं बदलते और RSS के अंजाम, लेनिन के USSR से जुदा नहीं रहा। आज के युवी नौकरी के लिए सरकार नहीं गैरसरकारी कंपनियों की तरफ देखते है, मंडल और कमंडल दोनो बौने हो जाते हैं। भारत आज बाबरी और राममंदिर नहीं फेसबुक और गूगल के चश्में से देश को देखता है। आज अन्ना का अनशन चलता है आडवाणी का रथ नहीं। वैलनटाइंस डे पर बवाल काटने वालों को युवा पंसद नहीं करते..पर यह बात RSS के नेताओ को समझ नहीं आई या वो सच को भी अपनी पुरात्विक सोच के चश्मे से दिखना चाहते है..। ठीक वैसे ही जैसे लालकिल को अपने बंद और हड़लात की राजनीति पर भरोसा था वो नहीं बदले पर बंगाल बदल गया, इस बदलाव की कीमत उन्होनें साम्यवादी लालाकिले पर ममता की जीत से चुकाई।



लेकिन सवाल यहीं खत्म नहीं होता RSS एक गाली कैसे बनी? क्या कांग्रेस का हाथ इसके पीछ है? या महज़ यह बीजेपी की हार और संघ के हाल का परिणाम है। इस सवाल के साथ ही दिल और देश में ग्रहयुद्ध छिड़ जाता है। कि जब मुस्लिम बाबरी की बात करें तो वो secular और एक हिन्दू राममंदिर की फरियाद करें तो वो communal. वन्देमातरम यानी मात्रभूमि को नमन अगर कुरान में पाप है तो उसे बदले डालो, बदल डलो या मानने से इंकार कर दो..। ठीक वैसे ही जैसे मनू की सोच से आधी-आबादी और दलितो के देखनी हिन्दूओं से छोड़ दिया है, जिसके लिए संविधान और कानून का सहारा तक लेना पड़ा, क्या ऐसा ही कानून, कुरान के खिलाफ बनाने की बात कर सकते हो ? यदी नहीं तो हाथ के हाकिमो को जम्हूरियत की बाते भी शोभा नहीं देती क्योंकि अभिव्यक्ति का अधिकार ही लोकतंत्र की खूबसूरती है..।



भारत मां की फोटो लगाने वोलों को तथाकथित सभ्यसमाज इस हय की नज़रो के दखता है क्या वहीं नज़र उन्हे कभी बुर्क की कैद और तलाक के फतवे में भी नज़र आती है ? RSS को फांसीवादी करने वालो को कश्मीर के अलगाववादी, ख़लिस्तान के जट-सिख क्यो नज़र नहीं आते। किसी और को गाली देने के RSS की छवि पाक नहीं हो जाती लेकिन काला या सफेद रंग ही देखना नेताओ की फितरत होगी, पत्रकारों के पेशा नहीं है। इसलिए यह भी जताना जरुरी है कि दुनियाभर की विचारधाणाएं रंगीन है बशर्ते आपकी सोच का चश्मा काला ना हो...। जिन यहूदियों को यह सभ्य समाज सफेद मानता है, उनकी हकीकत देखने फिलिस्तीन नहीं भारत के गोवा तक जाना ही बहुत होगा। जहां यहूदी बाहुल इलाको को नग्न-बीच की संज्ञा दी जाती है जहां भारत का कानून हीं यहूदियों के फतवे चलते है।



यहां तक आते-आते सवाल RSS की छवि से बड़ा हो जाता है। सवाल यह कि वन्देमातरम और भारत मां की जय कहने का विरोध करने वालों पर संविधान खामोश क्यों है? सवाल यह कि किताबे चाहे शास्त्र हो या कुरान, अगल बदली नहीं जा सकती को कूड़ेदान में फेंक क्यों नहीं दी जाती। सवाल यह कि जब हिन्दुओ के मंदिर में औरतों को आने का कानूनी अधिकार मिल सकता है और मस्जिदों से आधी-आबादी की दूरी क्यों ? साथ ही सवाल उस खच्चरों पर भी जो मुसलमानों को आवशयक बुराई से ज्यादा कुछ नहीं मानते..। उन्हे सलमान के घर के गणेश नज़र नहीं आते, तिंरगा लिए शारजहां में नाचते दाउद की तस्वीर भी वो भूल चुके है। शारुख की पत्नी गोरी छिब्बर खान है और उमर अब्दुल्ला की पत्नी जो पहले हिन्दू थी आज इस्लाम मानती है और उनकी बहन जो पहले इस्लाम की ईबादत करती थी आज भगवान की पूजा करती है।



सवाल अन्ना और आंतकवाद पर भी है कि आज अन्ना RSS ही नहीं भारत मां के चित्र से ऐसा क्यों भागते हैं मानो किसी छोटे बच्चे को बिजली का झटका लग गया हो। आंतक का चेहरा पंजाब में जट-सिख है, मध्यभारत में आदिवासी, उत्तर-पूर्व में हिन्दू, तमिल में हिन्दू, आयरलैड में ईसाई, मध्य-एशिया में यहूदी, पूर्वी अफ्रीका में नीग्रो हैं और रुस में मुसलमान हैं। जब पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ के पिता हिन्दूमहासभा के नेता हो सकते हैं और कोई उन पर सवाल नहीं उठाता तो अन्ना और RSS के साथ को कलंक क्यो माना जाता है।



मनोवैज्ञानिक कहते है कि जब आप किसी इंसान को दुत्कार दो तो वो हिंसक हो जाता है। क्या सिर्फ एक सामंति परिवार (गांधी-नेहरु) और उसके पप्पुओं के कहने पर हम RSS को एक गाली मानकर वहीं नहीं कर रहे। हमें आजाद हुए आधी सदी से भी ज्याद हो गई है ज़रा सोचकर देखो क्या, आज भी हमे गुलामी की आदत नहीं है ? क्यो कांग्रेस, अकाली, शिवसेना, सपा जैसी परिवारिक पार्टियों में युवराज होते हैं पर बीजेपी के लिए पीएस का सवाल दल में फूट का काम कर जाता है? जब एक पार्टी का युवराज (राहुल) कहता है कि कांग्रेस सेवा दल अब से गांधी टोपी नहीं स्पोर्ट्स कैप पहनेगा और 1885 से चली आ रही रीत बिना की विरोध के बदल जाती है पर वहीं आडवाणी का जिन्ना प्रेम उन्हे नायक से खनलायक बना देता है।



RSS को देखने का चश्मा तभी बदलेगा जब हम भारत के लोग खुद को प्रजा नहीं जनता माननें लगेगी क्योकि किसी देश को कोई बाप या बापू नहीं होता, वन्देमातरम से कोई शर्मसार नहीं होता, किसी लोकतंत्र का कोई युवराज नहीं होता, जनता से बड़ी कोई संसद नहीं होती, धार्मिक किताबों के कच्चे से भारत-निर्माण नहीं होता...और हम से बढ़कर संविधान नहीं होता क्योकि उसी में लिखा है :हम भारत के लोग...








रविवार, अक्तूबर 16

समय का चक्र बना सुदर्शन



कल रात अंग्रेजी फिल्म "V" वीमार्टा देख रहा था..इससे बेहतर फिल्म कभी देखी नहीं और शायद कभी देखने को भी नहीं मिले.."मी अन्ना" के विचार से, "Y4E" के जातिविहीन भारत और आज "Capture the wall street" के विरोध के पीछे एक ही नक़ाब है..रूसो का - हम लोग (We The people) ! इस फिल्म का नायक एक नक़ाब के पीछे है लेकिन उसके पीछे है जनता। जो उसी नक़ाब को नेता और खुद को नायक बना देती है। वो गोलियों से मरता नहीं क्योंकि Ideas are bulletproof.



रा-वन की स्क्रीनिंग महज 4000 प्रिंट्रस के साथ हो रही होगी लेकिन V का प्रिंट आज हर जगह है..लंदन के दंगों में, रामलीला मैदान में, यमन के दमन में, न्यूयार्क के भीड़ में, तहरीक के चौक में, फेसबुक और ट्यूट में, आप में और मुझे में..क्योंकि हम दोनो तरफ एक ही है "मैं"..। आज V के नक़ाब के पीछे कोई एक चेहरा नहीं वो 74 साल का बूढ़ा है जो 42 साल के युवराज से उसकी प्रजा को छीनकर जनता बना जाता है। वो राष्ट्रपति है जो गृह युद्ध से गिरे देश में आधी आबादी (नारियों) के दम पर सेक्स पर रोक लगा देती है और जंग धम से ठम जाती है।



आज पूरी दुनिया एक केनवस है और जनता चित्रकार..साम्यवाद, पूजींवाद, गाँधीवाद, नारीवाद की आंधी से दुनिया आगे निकल गई है। आँखें खोल कर देखो समय का चक्र सुदर्शन बन गया है और प्रजा जनता के रुप में जनसेवकों को उसकी सेवा का ईनाम ग़द्दाफ़ी और राजा के रुप में दे रही है। यह क्रांति इतिहास सबसे बड़ी आग है, मिखाइल गोर्बोच्येव आखिरी सोवियत मुगल होंगे, अनशन से अँग्रेज़ हारे होगें, नासिर से इस्लाम से मायने बदले होंगे पर आज काल कार्ल ज्यादा व्यापक है। जो यूरोप अपने धन के धमक के लिए जाना जाता था वो लंदन के दंगों, यूनान के दिवालियापन, स्पेन की बदहाली, रोम के प्रदर्शनों के मशहूर है। 1991 के बाद विश्व के बेताज बादशाह बना यूएस अपनी ही जनता के हाथों हार रहा है। वो जनता जो कंगाल है, जिसके घर पर फोन है पर दवा के पैसे नहीं, जिनके पास कार पर बे-कारी भी, जिन्हे कल तक भारत और चीन ही नही ओबामा भी आलसी कहते थे आज सड़क पर उतर कर सत्ता को चुनौती दे रहे है।



अफ्रीका जल रहा, खाड़ी देशों की लोकतंत्र की मांग अब अधिकार बनने को है। भारत में एक राजपरिवार के युवराज से ज्यादा फैन एक बूढ़े के है, आज से महज चंद महीनों पहले कोई सोच भी नही सकता था कि एक छोटा, सांवला, खादी पहनने वाला, जिसे ठीक से हिन्दी नहीं तक आती, अगर मेट्रो में मिल जाए तो आप उसे सीट तक न दें..भारत के कथित राजपरिवार को बौना बना देगा। नेपाल में राजशाही जाती रही, बर्मा में सैनिक सत्ता जाने की कगार पर है, राजा जेल में है और मनमोहन महँगाई की मेल में...।





अगर वॉल स्ट्रीट बर्लिन की दीवार बन गई, अगर रामलीला मैदान 10जनपथ को घुटनों पर ले आई, अगर अरब के शेख, जम्हूरियत के फ़क़ीर बन गये, अगर V का नक़ाब, अन्ना की टोपी, तहरीक के यू-टयूब और फेसबुक की जनता जीत भी गई तो आगे क्या ?



सोवियत का रास्ता टूट चुका है, सर्वादय का मार्ग छूट चुका है, समाजवाद के नारा रूठ चुका है...यहां तक हिन्दी फिल्म की तरह V भी जीत के बाद खत्म हो जाती है..। इस हायतौबा के बाद क्या..?  कांग्रेस की हार के बाद क्या ? क्या गारंटी है अरब में लोकतंत्र आने के बाद वहां के नेता भ्रष्टाचार से शेख़ नही बनेगें ? क्या लीबिया कल आज के इराक़ से जुदा होगा या इस समय का चक्र बना सुदर्शन लाशों के ढेर, पार्टियों के पतन, वो ठंडी आँख बनाकर रह जाएगा तो सबकुछ देखकर भी बर्फ सी जमी होती, आपके कलाई की घड़ी की तरह तो चलते हुए भी हाथ पर थमी होती है।



इस जवाब आपके पास ही है, पड़ोस में, सोच में, हर रास्ते में, हर बात में...अगर आप देखने चाहे तो..?  आप सीखने चाहो तो ? आप एहसास करें तो ? बस इस बार नीचे से उपर नहीं बल्कि उपर से नीचे देखते की ज़रुरत है, जरुरत है उसे जीने की, जिस जीवन को आज आप जीने योग्य तक नहीं मानते, उन टीचरों की जिन्हे आज हम सभ्यता का पाठ पढ़ाते है, उस दुनिया देखने की जो हमारे पास है पर हम खुद को उससे दूर करना चाहते है।



हम पढ़े-लिखे लोग, पड़े-पड़े गूगल पर पर्यावरण का पाठ तो पढा करते है पर पड़ोस की झुग्गी में जाकर नहीं देखते कि वो गरीब कैसे हमारे कचरे से पूँजी निर्माण करते है, हम आज भी कार में बैठकर उन्हे बे-कार मानते है और वो धरती को हमारी गंदी से बचाकर उसके ऐसे पैसा कमा जाते है जैसे हम सोच भी नहीं सकते। अगर सत्ता को समझना चाहते हो तो संसद नहीं जगलमहल जाकर देखो, देखो की कैसे जिन्हे हम पिछड़े आदिवासी कहकर दुत्कार देते है वो दिल्ली के दिग्गजों से बदतर शासन करना चाहते है। वहां पेड़ नहीं करते, अमीर और गरीब में अंतर नहीं, लव-मैरिज़ शिव के मेलो में होती है, दहेज़ का सवाल नहीं उठता, न्याय पंच करते है और सजा समाज देता है।



शायद आपके और मेरे लिए झुग्गी या जगलमहल में जाने से सरल है काम से घर पर जाता और घर से काम पर आना..इसी तरह जीना और मर जाना..। लेकिन कम से कम शाम को काम से घर लौटते वक्त उन पंछियों को तो निहार सकते है जो साथ उड़ते है और हम साथ चल भी नहीं सकते..। देखना ज़रूर क्या पता उस डूबते सूरज में आपको कल के सवेरे की झलक दिख जाए..। V कोई और नहीं WE हम है..।