वो किताबो में पढ़ी बहुत पुरानी बात है, कि कैसे जमीदारों का विरोध करने पर बंगाल पुलिस ने 8 महिलाओं और 3 बच्चो को नक्सलवाड़ी में मौत के घाट उतार दिया था। फिर सीएम और केएस ने मिलकर एक पार्टी बनाई..वो भी ठीक उस दिन जब माओत्सेगंतुग का जन्मदिन होता है। चीन के चैयरमैन को अपना कहा..कार्ल के कपाल से विचार लिये, लेनिन से सोच और स्टालिन की तर्ज पर बगांल-बिहार में जमीदारों का सफाई का अभियान शुरु कर डाला। लेकिन सीएम और केएस, जेपी और लोहिया नहीं बन पाये। क्योकि जब जनता आपके साथ हो तो हिंसा के हथियार उठाने की नौबत नहीं आती। भूमि सुधार हुआ या नहीं ये तो विवाद के मुद्दा है पर विचार जरुर बिगड़ गये।
मिशन..मंडी बन गया, जहां बड़े-बड़े सियासी सियानें संसद तक पहुचने के लिये माले के दर पर दस्तक देते है। और लोकतत्रं के गोल मंदिर से उन्हे ही मिटाने की बड़-बोली बातें भी करते हैं, लेकिन उसकी लाल-बत्ती वाली गाड़ियां बस्तर तक पहुंचती नहीं है। शायद दंतेवाड़ा से दिल्ली बहुत दूर है। या फिर दिल में ही दिक्कत है कि अगर अनपढ़ पढ़ गये तो लोक लोकतंत्र के स्वामी बन बैठेंगे। जब प्रजा, जनता में बदल जाएगी तो नागरिकों के आगे नेता बौने साबित होने लगेंगे।
शायद तभी नरेगा निकम्मी साबित होती है, एनएच जगंल तक पहुंचने से पहले खत्म हो जाते है, मानो अटलजी फिर सड़को के रास्ते देश को जोड़ने का भाषण दे रहे हो और कमल की सत्ता ही सड़क पर आ गिरे। सड़क से ख्याल आते है डांडी के गांधी याद आते है, कि कैसे नमक के नाम पर कच्ची सड़क पर चलकर आजादी की राह मिल गई थी। आज तो सड़क बनने से पहले ही टूट जाया करती हैं, चाहें घटिया घोटाले से या नकली बारुद।
एक भोजपुरी गाना है “ जंगल छौड़त नाही” जिसे माओवादी जीते, बोय-बोय की तरह इस्तेमाल करते हैं। हो सकता है कि नक्लसी तत्वों के मानिंद जंगल बच भी रहे हो लेकिन फिर भी वो है तो चंदन के जंगलो के मशहूर डाकू के मार्फत ही। 70 के दशक में भूमि सुधार आंदोलन चला था लोहिया के साथ लोग जुड़े थे, क्योकि जन को खेती की खुराख में ही खुदा दिखते थे। अब तो किसान बच्चे भी अन्न बोने से बेहतर, शहरो के घोंसलो (फ्लैटो) में रहना समझते हैं। सिवाए उसके जो साहुकारों के ज़जीरों से बंधे है और परिवार को उनके पास गिरवी रखकर शहर की बस का टिकट नहीं खरीद सकते। फिर आरक्षण की बाड़ 90 में दिखी। हज़ारो छात्रो से करोड़ो की सरकारी सम्पत्ती को खाख में मिला गिया औऱ कुछ तो उस आग में जलगर खुद ही खाख बन गये। जब कथित रूप से देश को आगे जा रहा था लेकिन साल दर साल कुछ जातियां पिछड़ रही थी। खेर अब तो पेरंटस की भी दिली ख्वाईश होती है, कि उनका होनहार एमएनसी में काम करें सरकारी नौकरी नहीं। आखिर यह कैसा विकास, ये विवाद के सवाल बड़ा लगे पर सवाल इससे कहीं बड़ा सवाल यह है कि जेसिका लाल और नीतिश कटारा के लिये मोमबत्तियां जाने वाली शहरी सियानो को रैड कोरिडोर के लाल-खून क्यो नहीं दिखता। लेकिन जब यूरोप के ज्वालामुखी की तपिश आप अपने पड़ोस के हवाईअड्डे पर महसूस कर सकते है तो नक्सली द्वालानल की आग से कब तब बचेगें आप...। क्यो वो छोटा नागपुर इलाके को अफ्रीका का देश समझकर अपनी दुनिया से दूर कर लेते हैं। चिड़ियां के घोसलों (फ्लैट) में, बुद्धु डिब्बे (कम्प्यूटर) के आगे बैठ हम लोक गूगल से दुनियां तो देख लेते हैं पर पड़ोसी झुग्गी में देखना हमे गवारा नहीं। फिर क्या गलत करते हैं, हमें मूक बनाकर नेता और नक्सली।
(राहुल डबास)
मिशन..मंडी बन गया, जहां बड़े-बड़े सियासी सियानें संसद तक पहुचने के लिये माले के दर पर दस्तक देते है। और लोकतत्रं के गोल मंदिर से उन्हे ही मिटाने की बड़-बोली बातें भी करते हैं, लेकिन उसकी लाल-बत्ती वाली गाड़ियां बस्तर तक पहुंचती नहीं है। शायद दंतेवाड़ा से दिल्ली बहुत दूर है। या फिर दिल में ही दिक्कत है कि अगर अनपढ़ पढ़ गये तो लोक लोकतंत्र के स्वामी बन बैठेंगे। जब प्रजा, जनता में बदल जाएगी तो नागरिकों के आगे नेता बौने साबित होने लगेंगे।
शायद तभी नरेगा निकम्मी साबित होती है, एनएच जगंल तक पहुंचने से पहले खत्म हो जाते है, मानो अटलजी फिर सड़को के रास्ते देश को जोड़ने का भाषण दे रहे हो और कमल की सत्ता ही सड़क पर आ गिरे। सड़क से ख्याल आते है डांडी के गांधी याद आते है, कि कैसे नमक के नाम पर कच्ची सड़क पर चलकर आजादी की राह मिल गई थी। आज तो सड़क बनने से पहले ही टूट जाया करती हैं, चाहें घटिया घोटाले से या नकली बारुद।
एक भोजपुरी गाना है “ जंगल छौड़त नाही” जिसे माओवादी जीते, बोय-बोय की तरह इस्तेमाल करते हैं। हो सकता है कि नक्लसी तत्वों के मानिंद जंगल बच भी रहे हो लेकिन फिर भी वो है तो चंदन के जंगलो के मशहूर डाकू के मार्फत ही। 70 के दशक में भूमि सुधार आंदोलन चला था लोहिया के साथ लोग जुड़े थे, क्योकि जन को खेती की खुराख में ही खुदा दिखते थे। अब तो किसान बच्चे भी अन्न बोने से बेहतर, शहरो के घोंसलो (फ्लैटो) में रहना समझते हैं। सिवाए उसके जो साहुकारों के ज़जीरों से बंधे है और परिवार को उनके पास गिरवी रखकर शहर की बस का टिकट नहीं खरीद सकते। फिर आरक्षण की बाड़ 90 में दिखी। हज़ारो छात्रो से करोड़ो की सरकारी सम्पत्ती को खाख में मिला गिया औऱ कुछ तो उस आग में जलगर खुद ही खाख बन गये। जब कथित रूप से देश को आगे जा रहा था लेकिन साल दर साल कुछ जातियां पिछड़ रही थी। खेर अब तो पेरंटस की भी दिली ख्वाईश होती है, कि उनका होनहार एमएनसी में काम करें सरकारी नौकरी नहीं। आखिर यह कैसा विकास, ये विवाद के सवाल बड़ा लगे पर सवाल इससे कहीं बड़ा सवाल यह है कि जेसिका लाल और नीतिश कटारा के लिये मोमबत्तियां जाने वाली शहरी सियानो को रैड कोरिडोर के लाल-खून क्यो नहीं दिखता। लेकिन जब यूरोप के ज्वालामुखी की तपिश आप अपने पड़ोस के हवाईअड्डे पर महसूस कर सकते है तो नक्सली द्वालानल की आग से कब तब बचेगें आप...। क्यो वो छोटा नागपुर इलाके को अफ्रीका का देश समझकर अपनी दुनिया से दूर कर लेते हैं। चिड़ियां के घोसलों (फ्लैट) में, बुद्धु डिब्बे (कम्प्यूटर) के आगे बैठ हम लोक गूगल से दुनियां तो देख लेते हैं पर पड़ोसी झुग्गी में देखना हमे गवारा नहीं। फिर क्या गलत करते हैं, हमें मूक बनाकर नेता और नक्सली।
(राहुल डबास)
2 टिप्पणियां:
Wow brother its a nice article.
But it shouldn't be in hindi, bcoz ppl who understand hindi can't understand it's meaning :), even they understand they don't even bother about looking for consequences. But ur article rocks, love the theme and phase with which ur article moves. KEEP WRITING !!!!
naxalwad jis vichardhara ke sath shuru hue thi, usme jabardast bhatkav aaya hai. vyavashtha me itna jyada ghalmel ho gaya hai ki kuch saaf saaf kahna mushkil hai. aapki chintayen wazib hain..
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