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मंगलवार, नवंबर 8

“तीसरा आयाम - 3D”

रामलीला मैदान के गांधी को देखने भारत जुटा और F1 की आंधी देखने इंडिया..दोनो धुर विरोधी हैं पर दोनों दोस्त भी हैं। F1 की रेस के रेले में शुमार कई सितारे अन्ना के आन्दोलन की भी चमक थे, दोनों तरफ तिंरगें थे एक ओर गांधी टोपी और दूसरी तरफ लेडी गागा के गाने..। लेकिन इस दोनों मलासा ख़बरों के अलग भी एक तीसरा आयाम है। वो आयाम जो दिल्ली के दुरुस्त और मुंबई की माया से जुदा मणिपुर है। जहां आज 101 दिनों से आर्थिक नाकेबंदी हो रही है। जहां LPG Gas 2000Rs/किलो और पेट्रोल 200 रुपए लीटर बिक रहा है। जिसकी आवाज़ सुनने को कोई तैयार नहीं क्योंकि वहां ट्रकों के चलने से दिल्ली की रिंग रोड़ पर जाम नहीं लगता, ख़बरिया भेड़ियों के TRP नहीं मिलती और संसद के चौपाल पर जूं नहीं रेंगती। ठीक उसी तरह जैसे कांग्रेस के युवराज का कलावती के घर जाना नेशनल टीवी पर आता, उसका नाम संसद में सुनाया जाता है पर राहुल के जाते ही बस समाप्त...मौत की खामोशी में कलावती सो जाती है, किसानी के कर्ज में उसकी बेटी मर जाती है पर ख़बर नहीं बनती।

हम ग्लोबल गांव में जीने वाले हैं इसलिए दिल्ली हो या दुबई, न्यूयार्क हो या नागपुर कहीं कोई अंतर नहीं है। दुनियां या यू कहें की पूंजीवाद के ठेकेदार अमेरिका में भी अपने हिन्दुस्तान के दो देश बसते है। एक आवाम की आवाज़ है जो कहती हैं वॉलस्ट्रीट पर कब्ज़ा करो, 99 फीसदी की रोटी काट-काट कर 1% पेट भरना सरकार का पेशा नहीं है। वो मुहिम है कि मंदी का मार Tax के रुप में अमीर अमेरिकियों पर पड़े, सरकारी सेवा कम करके जनता पर नहीं, वहीं अमीर पूंजीवादी बेल-आउट पैकेज के नाम पर अपने लिए वक्त चुरा रहे हैं। बीमारी का इलाज नहीं होता..महज महंगाई पर मरहम लगाने से...। उस अमेरिका के पास भी भारत के मणिपुर की तरह एक तीसरा आयाम है वेनेज़ुला वो छोटा सा पड़ोसी देश अपने गन्ने और तेल के दम पर पूंजीवाद के खिलाफ दंबग बनकर भी अपनी जनता के पेट भरना जानता है।

आपके मन में सवाल उठता होगा की यह तीसरा आयाम आखिर है क्या और आयाम से आवाम का भला क्यों होगा?  इसे समझने के दो रास्ते हैं, पहला अरस्तु और प्लेटों के सिद्धांत का चक्र कि वक्त खुद हो दोहराता है, और वाद ISM अमित नहीं होते। 1917 के रुसी क्रांति के 100 साल होने में महज पांच वर्ष बाकी है, USSR का किला ढल गया और पूंजीवाद के दुर्ग भी ढहने की कगार पर है। समझने के लिए दूसरा रास्ते ठेठ देसी है, कि जैसे आपका TV Black&White से रंगीन हो गया वैसे ही बाहरी दुनिया को देखने की सोच का चश्मा भी काला या सफेद नहीं रंगीन ही रखिए। जैसे जिस मुल्क में हम रहते हैं वह इंडिया और भारत का बेटा ज़रुर नज़र आता है पर अलग नहीं है। ठीक हिन्दी और उर्दू के बीच की हिन्दुस्तानी की तर्ज पर...।

मैं आरक्षण के खिलाफ हूं, सब्सिडी के भी..। हमें बैसाखी नहीं चाहिए पर Rock-Star मूवी की ज़ुबान में “साडा हक ऐथे रख” ज़रुर चाहिए..। हक़ पढ़ने का ताकी आरक्षण की नीति के साथ-साथ Cast Vote Bank की राजनीति के भी अंत हो जाए। हक़ सेहत का ताकी हर साल महंगे इलाज के चलते एक करोड़ लोग गरीबी रेखा (BPL) से नीचे नहीं आए...। हक़ समानता का ताकी मुंबई के शेयर बाज़ार के हाल और दिल्ली के जाम के बीच मणिपुर का मर्म छिप ना जाए। हक़ ज़मीन का ताकी खेती और प्लेट के बीच का मुनाफ़ा चंद बिल्डरों का बैंक ना उठा ले..। हक़ अभिव्यक्ति की आज़ादी का ताकी अन्ना के चंद दिनों के अनशन के साथ-साथ उत्तर-पूर्व की उस महिला (इरोम शार्मिला) का नाम भी सबको याद हो जो बीते 12 सालों से अनशन पर बैठी है।

हक़ तीसरे आयाम का जो गूगल के गलियारे, अँग्रेजी के अल्फाज़ो और मीडिया के ख़बरों से दूर बसता है मंदी और महंगाई का इलाज़ है जिसे संजीवनी हो हम AIMS की चका-चौंध में खोजना नहीं चाहते और देखकर भी अंधे बन जाते हैं। आयाम जो दिखाना है कि ज़जमानी प्रथा (अन्न के बदले सामान), इस्लामिक बैंकिंग (बिन ब्याज़ के कर्ज) और गांधी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत (मालिक भी एक कामगार है और कम्पनी एक परिवार) से आज भी बदलाव मुमकिन है बशर्ते हम तीसरे आयाम को देखना चाहते। लेकिन इस हक़ के लिए कीमत भी चुकानी पड़ेगी क्योंकि कर्तव्यों के बाद भी अधिकार संभव है। इसलिए आपको तीसरे आयाम की सोच और एक सवाल के साथ छोड़ जाता हूं...सवाल मेरी पत्नी के शब्दों में “सरकारी स्कूलो में पढ़ना हमे मंज़ूर नहीं, सरकारी अस्पताल में इलाज़ हमें गवारा नहीं, सरकारी सड़कों को दोष देते हैं और सरकार को गाली पर सरकारी नौकरी सबको चाहिए आखिर क्यों….?”

शनिवार, अक्तूबर 22

RSS गाली क्यों ?


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यह किसी NGO या दबाव समूह का नाम कम लक्ष्मण रेखा का नाम ज्यादा    लगता है। RSS ने गुजरात के भुज-भूचाल से औड़िसा के  चक्रवात तक क्या काम किया इसकी चर्चा भी नहीं होती वरण इस बात बहस जरुर होती है कि या तो आप संघी विचारधारा वाले हैं या संघ विरोधी। आजकल संघ के नाम का सवाल कुछ बदल गया है लोग कहते है या तो आप सभ्य नागरिक है या साम्प्रदायिक संघी। संघ एक विचार धारा नहीं एक गाली बन गई है..। शायद यह सबसे बड़ी जीत है नेहरू-गांधी परिवार के वास्ते।



अगर आप वन्देमातरम बोले तो आप साम्प्रदायिक हैं, भारत मां की चित्र को नमन करें तो मुस्लिम विरोधी, अगर भग्वा रंग की निक्कर पहन लें तो देशद्रोही। यहां तक खुद को धर्मर्निपेक्षता का ठेकेदार बताने वालो भी आंतक का रंग काला या हरा नहीं केवल भगवा ही नज़र आता है। RSS एक ऐसी गाली है जिसकी सोच से अन्ना का गोल चश्मा भी चपटा हो जाता है। वो भारत मां की तस्वीर अपने मंच से दूर रखते है। मंच पर गांधी दिखते हैं और शयन कक्ष में विवेकाचंद। आज सब लोग RSS से दूरी बनाना ही बेहतर समझते हैं मानो 18वीं सदी का दलित सामने आ गया है।


जिस RSS से कभी अटल और आडवाणी जुड़े थे, उसकी शाखाओं में संयुक्त भारत (भारत-पाक-बग्लादेश-बर्मा) की तस्वीर लगी होती थी और शाखाओं में दिखती थी जवां-भारत की फौज। आज चंद बूढ़े चंद पार्को में चंद पलों के लिए योग करते दिख जाते हैं। उसके सयुक्त भारत का सपना धुंधला हो चुका है ठीक उसके नेताओ के सफेद बालों की तरह। जब कांग्रेस का प्रधानमंत्री (नरसिम्हा राव) खादी के नीचे भगवा निक्कर पहनते थे वो दौर गुजर चुका है आज तो भगवा किला बने गुजरात में भी RSS के विचार या बीजेपी की सरकारी नहीं मोदी की तानाशाही चलती है। मुझे आज भी गोवा के मंच से अटल के आंसू याद है जब गुजरात जल रहा था और अटल जैसा प्रधानमंत्री भी मोदी को सीएम के पद से हटा नहीं पा रहा था। मेरे ज़हन में कोई और पीएम नहीं आता जो मंच पर रोया हो शायद आजतक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री अटल रहे होंगे मनमोहन नहीं..।



RSS के पतन के पीछे उसकी विचारधारा का ही हाथ है और यही अतंर है कांग्रेस और संघ के बीच। कांग्रेस एक सामंती दल है जिसमे एक राजपरिवार की सत्ता चलती है, जबकि RSS एक विचारधारा। वक्त बदल गया विचार नहीं बदलते और RSS के अंजाम, लेनिन के USSR से जुदा नहीं रहा। आज के युवी नौकरी के लिए सरकार नहीं गैरसरकारी कंपनियों की तरफ देखते है, मंडल और कमंडल दोनो बौने हो जाते हैं। भारत आज बाबरी और राममंदिर नहीं फेसबुक और गूगल के चश्में से देश को देखता है। आज अन्ना का अनशन चलता है आडवाणी का रथ नहीं। वैलनटाइंस डे पर बवाल काटने वालों को युवा पंसद नहीं करते..पर यह बात RSS के नेताओ को समझ नहीं आई या वो सच को भी अपनी पुरात्विक सोच के चश्मे से दिखना चाहते है..। ठीक वैसे ही जैसे लालकिल को अपने बंद और हड़लात की राजनीति पर भरोसा था वो नहीं बदले पर बंगाल बदल गया, इस बदलाव की कीमत उन्होनें साम्यवादी लालाकिले पर ममता की जीत से चुकाई।



लेकिन सवाल यहीं खत्म नहीं होता RSS एक गाली कैसे बनी? क्या कांग्रेस का हाथ इसके पीछ है? या महज़ यह बीजेपी की हार और संघ के हाल का परिणाम है। इस सवाल के साथ ही दिल और देश में ग्रहयुद्ध छिड़ जाता है। कि जब मुस्लिम बाबरी की बात करें तो वो secular और एक हिन्दू राममंदिर की फरियाद करें तो वो communal. वन्देमातरम यानी मात्रभूमि को नमन अगर कुरान में पाप है तो उसे बदले डालो, बदल डलो या मानने से इंकार कर दो..। ठीक वैसे ही जैसे मनू की सोच से आधी-आबादी और दलितो के देखनी हिन्दूओं से छोड़ दिया है, जिसके लिए संविधान और कानून का सहारा तक लेना पड़ा, क्या ऐसा ही कानून, कुरान के खिलाफ बनाने की बात कर सकते हो ? यदी नहीं तो हाथ के हाकिमो को जम्हूरियत की बाते भी शोभा नहीं देती क्योंकि अभिव्यक्ति का अधिकार ही लोकतंत्र की खूबसूरती है..।



भारत मां की फोटो लगाने वोलों को तथाकथित सभ्यसमाज इस हय की नज़रो के दखता है क्या वहीं नज़र उन्हे कभी बुर्क की कैद और तलाक के फतवे में भी नज़र आती है ? RSS को फांसीवादी करने वालो को कश्मीर के अलगाववादी, ख़लिस्तान के जट-सिख क्यो नज़र नहीं आते। किसी और को गाली देने के RSS की छवि पाक नहीं हो जाती लेकिन काला या सफेद रंग ही देखना नेताओ की फितरत होगी, पत्रकारों के पेशा नहीं है। इसलिए यह भी जताना जरुरी है कि दुनियाभर की विचारधाणाएं रंगीन है बशर्ते आपकी सोच का चश्मा काला ना हो...। जिन यहूदियों को यह सभ्य समाज सफेद मानता है, उनकी हकीकत देखने फिलिस्तीन नहीं भारत के गोवा तक जाना ही बहुत होगा। जहां यहूदी बाहुल इलाको को नग्न-बीच की संज्ञा दी जाती है जहां भारत का कानून हीं यहूदियों के फतवे चलते है।



यहां तक आते-आते सवाल RSS की छवि से बड़ा हो जाता है। सवाल यह कि वन्देमातरम और भारत मां की जय कहने का विरोध करने वालों पर संविधान खामोश क्यों है? सवाल यह कि किताबे चाहे शास्त्र हो या कुरान, अगल बदली नहीं जा सकती को कूड़ेदान में फेंक क्यों नहीं दी जाती। सवाल यह कि जब हिन्दुओ के मंदिर में औरतों को आने का कानूनी अधिकार मिल सकता है और मस्जिदों से आधी-आबादी की दूरी क्यों ? साथ ही सवाल उस खच्चरों पर भी जो मुसलमानों को आवशयक बुराई से ज्यादा कुछ नहीं मानते..। उन्हे सलमान के घर के गणेश नज़र नहीं आते, तिंरगा लिए शारजहां में नाचते दाउद की तस्वीर भी वो भूल चुके है। शारुख की पत्नी गोरी छिब्बर खान है और उमर अब्दुल्ला की पत्नी जो पहले हिन्दू थी आज इस्लाम मानती है और उनकी बहन जो पहले इस्लाम की ईबादत करती थी आज भगवान की पूजा करती है।



सवाल अन्ना और आंतकवाद पर भी है कि आज अन्ना RSS ही नहीं भारत मां के चित्र से ऐसा क्यों भागते हैं मानो किसी छोटे बच्चे को बिजली का झटका लग गया हो। आंतक का चेहरा पंजाब में जट-सिख है, मध्यभारत में आदिवासी, उत्तर-पूर्व में हिन्दू, तमिल में हिन्दू, आयरलैड में ईसाई, मध्य-एशिया में यहूदी, पूर्वी अफ्रीका में नीग्रो हैं और रुस में मुसलमान हैं। जब पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ के पिता हिन्दूमहासभा के नेता हो सकते हैं और कोई उन पर सवाल नहीं उठाता तो अन्ना और RSS के साथ को कलंक क्यो माना जाता है।



मनोवैज्ञानिक कहते है कि जब आप किसी इंसान को दुत्कार दो तो वो हिंसक हो जाता है। क्या सिर्फ एक सामंति परिवार (गांधी-नेहरु) और उसके पप्पुओं के कहने पर हम RSS को एक गाली मानकर वहीं नहीं कर रहे। हमें आजाद हुए आधी सदी से भी ज्याद हो गई है ज़रा सोचकर देखो क्या, आज भी हमे गुलामी की आदत नहीं है ? क्यो कांग्रेस, अकाली, शिवसेना, सपा जैसी परिवारिक पार्टियों में युवराज होते हैं पर बीजेपी के लिए पीएस का सवाल दल में फूट का काम कर जाता है? जब एक पार्टी का युवराज (राहुल) कहता है कि कांग्रेस सेवा दल अब से गांधी टोपी नहीं स्पोर्ट्स कैप पहनेगा और 1885 से चली आ रही रीत बिना की विरोध के बदल जाती है पर वहीं आडवाणी का जिन्ना प्रेम उन्हे नायक से खनलायक बना देता है।



RSS को देखने का चश्मा तभी बदलेगा जब हम भारत के लोग खुद को प्रजा नहीं जनता माननें लगेगी क्योकि किसी देश को कोई बाप या बापू नहीं होता, वन्देमातरम से कोई शर्मसार नहीं होता, किसी लोकतंत्र का कोई युवराज नहीं होता, जनता से बड़ी कोई संसद नहीं होती, धार्मिक किताबों के कच्चे से भारत-निर्माण नहीं होता...और हम से बढ़कर संविधान नहीं होता क्योकि उसी में लिखा है :हम भारत के लोग...








रविवार, अक्तूबर 16

समय का चक्र बना सुदर्शन



कल रात अंग्रेजी फिल्म "V" वीमार्टा देख रहा था..इससे बेहतर फिल्म कभी देखी नहीं और शायद कभी देखने को भी नहीं मिले.."मी अन्ना" के विचार से, "Y4E" के जातिविहीन भारत और आज "Capture the wall street" के विरोध के पीछे एक ही नक़ाब है..रूसो का - हम लोग (We The people) ! इस फिल्म का नायक एक नक़ाब के पीछे है लेकिन उसके पीछे है जनता। जो उसी नक़ाब को नेता और खुद को नायक बना देती है। वो गोलियों से मरता नहीं क्योंकि Ideas are bulletproof.



रा-वन की स्क्रीनिंग महज 4000 प्रिंट्रस के साथ हो रही होगी लेकिन V का प्रिंट आज हर जगह है..लंदन के दंगों में, रामलीला मैदान में, यमन के दमन में, न्यूयार्क के भीड़ में, तहरीक के चौक में, फेसबुक और ट्यूट में, आप में और मुझे में..क्योंकि हम दोनो तरफ एक ही है "मैं"..। आज V के नक़ाब के पीछे कोई एक चेहरा नहीं वो 74 साल का बूढ़ा है जो 42 साल के युवराज से उसकी प्रजा को छीनकर जनता बना जाता है। वो राष्ट्रपति है जो गृह युद्ध से गिरे देश में आधी आबादी (नारियों) के दम पर सेक्स पर रोक लगा देती है और जंग धम से ठम जाती है।



आज पूरी दुनिया एक केनवस है और जनता चित्रकार..साम्यवाद, पूजींवाद, गाँधीवाद, नारीवाद की आंधी से दुनिया आगे निकल गई है। आँखें खोल कर देखो समय का चक्र सुदर्शन बन गया है और प्रजा जनता के रुप में जनसेवकों को उसकी सेवा का ईनाम ग़द्दाफ़ी और राजा के रुप में दे रही है। यह क्रांति इतिहास सबसे बड़ी आग है, मिखाइल गोर्बोच्येव आखिरी सोवियत मुगल होंगे, अनशन से अँग्रेज़ हारे होगें, नासिर से इस्लाम से मायने बदले होंगे पर आज काल कार्ल ज्यादा व्यापक है। जो यूरोप अपने धन के धमक के लिए जाना जाता था वो लंदन के दंगों, यूनान के दिवालियापन, स्पेन की बदहाली, रोम के प्रदर्शनों के मशहूर है। 1991 के बाद विश्व के बेताज बादशाह बना यूएस अपनी ही जनता के हाथों हार रहा है। वो जनता जो कंगाल है, जिसके घर पर फोन है पर दवा के पैसे नहीं, जिनके पास कार पर बे-कारी भी, जिन्हे कल तक भारत और चीन ही नही ओबामा भी आलसी कहते थे आज सड़क पर उतर कर सत्ता को चुनौती दे रहे है।



अफ्रीका जल रहा, खाड़ी देशों की लोकतंत्र की मांग अब अधिकार बनने को है। भारत में एक राजपरिवार के युवराज से ज्यादा फैन एक बूढ़े के है, आज से महज चंद महीनों पहले कोई सोच भी नही सकता था कि एक छोटा, सांवला, खादी पहनने वाला, जिसे ठीक से हिन्दी नहीं तक आती, अगर मेट्रो में मिल जाए तो आप उसे सीट तक न दें..भारत के कथित राजपरिवार को बौना बना देगा। नेपाल में राजशाही जाती रही, बर्मा में सैनिक सत्ता जाने की कगार पर है, राजा जेल में है और मनमोहन महँगाई की मेल में...।





अगर वॉल स्ट्रीट बर्लिन की दीवार बन गई, अगर रामलीला मैदान 10जनपथ को घुटनों पर ले आई, अगर अरब के शेख, जम्हूरियत के फ़क़ीर बन गये, अगर V का नक़ाब, अन्ना की टोपी, तहरीक के यू-टयूब और फेसबुक की जनता जीत भी गई तो आगे क्या ?



सोवियत का रास्ता टूट चुका है, सर्वादय का मार्ग छूट चुका है, समाजवाद के नारा रूठ चुका है...यहां तक हिन्दी फिल्म की तरह V भी जीत के बाद खत्म हो जाती है..। इस हायतौबा के बाद क्या..?  कांग्रेस की हार के बाद क्या ? क्या गारंटी है अरब में लोकतंत्र आने के बाद वहां के नेता भ्रष्टाचार से शेख़ नही बनेगें ? क्या लीबिया कल आज के इराक़ से जुदा होगा या इस समय का चक्र बना सुदर्शन लाशों के ढेर, पार्टियों के पतन, वो ठंडी आँख बनाकर रह जाएगा तो सबकुछ देखकर भी बर्फ सी जमी होती, आपके कलाई की घड़ी की तरह तो चलते हुए भी हाथ पर थमी होती है।



इस जवाब आपके पास ही है, पड़ोस में, सोच में, हर रास्ते में, हर बात में...अगर आप देखने चाहे तो..?  आप सीखने चाहो तो ? आप एहसास करें तो ? बस इस बार नीचे से उपर नहीं बल्कि उपर से नीचे देखते की ज़रुरत है, जरुरत है उसे जीने की, जिस जीवन को आज आप जीने योग्य तक नहीं मानते, उन टीचरों की जिन्हे आज हम सभ्यता का पाठ पढ़ाते है, उस दुनिया देखने की जो हमारे पास है पर हम खुद को उससे दूर करना चाहते है।



हम पढ़े-लिखे लोग, पड़े-पड़े गूगल पर पर्यावरण का पाठ तो पढा करते है पर पड़ोस की झुग्गी में जाकर नहीं देखते कि वो गरीब कैसे हमारे कचरे से पूँजी निर्माण करते है, हम आज भी कार में बैठकर उन्हे बे-कार मानते है और वो धरती को हमारी गंदी से बचाकर उसके ऐसे पैसा कमा जाते है जैसे हम सोच भी नहीं सकते। अगर सत्ता को समझना चाहते हो तो संसद नहीं जगलमहल जाकर देखो, देखो की कैसे जिन्हे हम पिछड़े आदिवासी कहकर दुत्कार देते है वो दिल्ली के दिग्गजों से बदतर शासन करना चाहते है। वहां पेड़ नहीं करते, अमीर और गरीब में अंतर नहीं, लव-मैरिज़ शिव के मेलो में होती है, दहेज़ का सवाल नहीं उठता, न्याय पंच करते है और सजा समाज देता है।



शायद आपके और मेरे लिए झुग्गी या जगलमहल में जाने से सरल है काम से घर पर जाता और घर से काम पर आना..इसी तरह जीना और मर जाना..। लेकिन कम से कम शाम को काम से घर लौटते वक्त उन पंछियों को तो निहार सकते है जो साथ उड़ते है और हम साथ चल भी नहीं सकते..। देखना ज़रूर क्या पता उस डूबते सूरज में आपको कल के सवेरे की झलक दिख जाए..। V कोई और नहीं WE हम है..।


शुक्रवार, अगस्त 26

हम भारत के लोग (We The People)

आज़ादी के 64 साल बाद 74 साल का एक बूढ़ा हमे आज़ादी की दूसरी लड़ाई लड़ने के लिए आवाज़ दे रहा है। आज़ादी के वक्त वो 10 साल का बच्चा होगा, जिसे उस दौर में आज़ादी का अर्थ भी शायद ही पता हो पर आज वो 10 दिनों से ज्यादा भूखा है और 10 साल का बच्चा भी उसका नाम जानता है। इसे आज़ादी की दूसरी लड़ाई ना भी कहें पर आवाज़ बुलंद है, बुलंद भारत के वास्ते।

इस लड़ाई के गर्भ में जनलोकपाल बिल रहा था, था इसलिये कह रहा हूं क्योंकि आज यह लड़ाई जनलोकपाल से बड़ी होकर जन (जनता) बनाम पाल (सियासी मंडली) है। लोकपाल को समझना ज्यादा कठिन है उसके लिये अगर मन में इच्छा हो और कम्प्यूटर में गूगल तो जान सकते हैं, कि क्यों 1968 से बिल राजनैतिक बिलों में छुपा रहा, लोकनायक जयप्रकाश भी इसे पास नहीं करवा पाए, एनडीए की सरकार सड़क पर आ गई, अरुणदती राय की राय यूपीए ने नहीं मानी को अन्ना की आंधी इसे रामलीला मैदान तक ले आई।

यहां मैं बड़ा सवाल उठाना चाहता हूं, सवाल संविधान के विधान का, सवाल Public Vs Parliament का और सवाल आज के कबीर के सच्चे दोहे का कि  “100 में से 99 बेईमान फिर भी मेरा भारत महान”। सवाल यह की भ्रष्टाचार “सहूलियत कर” है या “बेबसी और बेईमानी”। सवाल यह कि महज़ एक वोट के बदले हम पांच सालो की ग़ुलामी कबूल कर लेते है। सवाल यह कि जब इतिहास में एथेंस के लोकतंत्र से लेकर यूपी-बिहार की लच्छवि गणतंत्र में कानून लोकशाही से चल सकते थे तो आज क्यों नहीं ? सवाल ये के जब 47 करोड़ लोग ई-मेल कर सकते है, 75 करोड़ मोबाईल कनेक्शन मौजूद है तो तकनीक का इस्तेमाल जनतंत्र के लिये ज़रुरी क्यो नहीं होता ? 2009 के आम चुनाव में 50 करोड़ से कम लोगो ने मतदान किया था, उससे ज्यादा लोग SMS कर सकते है तो तकनीक व्यवस्था की जगह लेकर लोकतंत्र को लोकनीक में तब्दील क्यो नहीं किया जा सकता।

सवाल उनके भी है, अहम नहीं पर जमहूरियत की ख़ूबसूरती मतभेदों मे ही है, सो उठाना ज़रुरी है। क्या अक्लियत वन्देमातरम् नारे से खुद को जोड़ सकती है ? क्या सातवीं पास फ़ौजी ड्राइवर जनलोकपाल की समझ रख सकता है ? आखिर क्यो अन्ना के गृह नगर में बीते 25 सालो से पंचायत चुनाव नहीं हुऐ ? अन्ना छूटपन में संघी विचार सुना करते थे। अपने बेटी का एडमीशन पूर्व-उतर कोटे से करवाने वाली किरण बेदी बेईमान नहीं, क्या PIL-Baby कहें जाने वाले भूषण भ्रष्टाचार की खिलाफ कर सकते है ? नक्सलियों से स्नेह रखने वाले अगणी वेष देश-हित की बात कैसे कर सकते है ? और केजरीवाल क्यो लोकपाल दायरे को मीडिया और NGO के दूर रखना चाहते है ? क्यो उनकी NGO के लिए विदेशी फंड का फंडा चलता है ? कुछ बुद्धिमान को यंहा तक कहने लगे है कि यह लोग सर्वण-जाति से है, जो आरक्षण को खत्म नहीं कर पाये तो भ्रष्टाचार के नाम पर अपनों के लिए नौकरी की ख्वाहिश पाले हैं ?

जवाब सीधा सा है कि अगर अन्ना की टीम में कोई कमी है तो वो भी जनलोकपाल कानून से नप सकते हैं। जब उंगलीमार डाकू संत बन सकता है तो यह टीम एक संत के साथ इस सही बिल के लिए बवाल क्यों नहीं कर सकती ? जो लोग उनपर आरोप लगाते है क्यो उनको  कांग्रेसी संदेश (मुखपत्र) से फंड नहीं मिलता ? क्या संघ का बाते सुनना अपराध है?  अगर शाही ईमाम देश के राष्ट्र गीत को गानें से मना करें तो वो सेकुलर और अन्ना अगर अक्लियत के बच्चो को इफ्तार कराये तो वो भगवा? याद करें US से फंड लेने का आरोप कांग्रेस जीपी पर लगा चुकी है और उसके बात कांग्रेस उसका झेंडे उठाने वाले भी नहीं मिले थे। अगर रामलीला मैदान की भीड़ सड़को पर बवाल करती है, लड़कियां कैमरे में आने के लिए सजकर आती हैं तो भी यह भीड़, उनके घरो तक भय तो पैदा कर ही देती है। चाहे इन्हे फेसबुक की जनता कहें जो घर लौटते ही रामलीला मैदान की फोटो ट्वीट करने लगते है पर 5 फुट 2 इंच के बूढे इंसान से, जिसे ठीक से हिन्दी भी नहीं आती, अँग्रेजी से अनजान है, जो अगर मेट्रो में नज़र आये तो आप उज्ले कपड़े पहने वाले, कानों पर fm लगाने वाले उसके पास खड़े रहना भी मुनासिब नहीं समझे आज इस भीड़ की आंधी को गांधी के रास्ते पर चला रहा है। उसके गृह नगर में पंच चुनाव नहीं हुऐ, यह सत्य है पर सच यह भी है कि उस गांव में एक भी शराब के ठेका नहीं है, कोई बीड़ी की दुकान नहीं है। अगर फेसबुक की जनता सड़को पर आ आये और फेस-टू-फेस होकर 7RCR (प्रधानमंत्री निवास) पर खड़े होने की हिमाकत करें तो जान लीजिए की जवान जाग गये है। कम से कम अपनी जाति के लिये कटोरा लेकर रेल की पटरी पर बैठने से तो यह बेहतर है। खड़े होकर गन-गण-मन गाने की रस्मअगायेगी से तो बेहतर है खड़े होकर, सियासी खिलाड़ियों की ख़िलाफ़त करना..।


जिन्हे वन्देमातरम् से समस्या है वो ना बोले, पर जिन्हे भ्रष्टाचार से समस्या है वो तो बोल सकते है साहब ? अगर राष्ट्रगीत से आपको शर्म आनी है तो राष्ट्रीय समस्या से आंखे मिलाकर देखे ! संविधान के विधान की बाते करने वालो, संविधान कोई गीता-कुरान नहीं है जिसे बदला नही जा सकता, वो हमारे लिए है, हमसे है, इसके पहले पांच शब्द है WE THE PEOPLE OF INDIA और याद रहे कि हम हमारे हाकिम नेताओं को खलीफा या मनु नहीं बनने देंगे। अगर वो रामलीला मैदान को तहरीक चौक बनाना चाहते है तो यह गदर उन्हे ग़द्दाफ़ी बनाने की ताकत भी रखती है याद रहें..!!

सवाल सिर्फ जनलोकपाल का नहीं लोक बनाम तंत्र का है, सवाल यह है कि प्रधानमंत्री अपने घर के बाहर खड़े लोगो की आवाज़ पर बाहर नहीं आ सकते है, उन्हे जनता से डर लगता है क्यो ? बीजेपी और लेफ्ट संसद की सर्वोच्चता की बाते करते है, क्या संसद भारत के लोकतंत्र की चौपाल नहीं ? इस गोल मंदिर को क्यो जनता के लिये खोला नहीं जाता ? क्या यह छुआछूत नहीं ? जब मनमोहन इस मज़हब को दिखाने लिए घर पर इफ्तार पार्टी करते है और एक बूढ़ा भूखा रहकर तिल-तिल कर मरता है तो इस चित्र क्या देश चरित्र रह जाएगा।



अभी-अभी लोकसभा टीवी पर कांग्रेस युवराज का बयान आया। राहुल गांधी का बयान स्वागत योग्य हैं, सच्चा भी जिसमें कोई कमी नहीं। पर कमी कहां रही इसपर विचार ज़रुरी है। क्या राहुल बाबा अभी तक भर नींद सो रहे थे जो सरकारी लोकपाल बिल में उसे संविधानिक संस्था बनाने का ख्याल नहीं आया ? क्या उनकी मंशा संविधान संशोधन के नाम पर इस बिल को सियासी बिलो में छुपाने की नहीं है? क्या कभी शुल्यकाल में कोई संसद लिखा हुआ भाषण पढ़ता है? क्या  अब सरकारी नीति मनमोहन की नियती से नहीं कांग्रेसी युवराज की नीयत से तय होगी ? क्यो देवभूमि के घोटालो और कर्नाटक के नाटक में बीजेपी इस मुद्दे को उठा नहीं पाई और अन्ना का आना पड़ा ? क्यो हमारा Political System-अंग्रेज़ी सरकार की तरह बहरा हो गया है, जिसे जगाने के लिए भगत सिंह का बम ना सही पर अन्ना की आंधी ज़रूरी है ताकि vote bank की भाषा समझने वाले नेताओं को भीड़ को शोर सुनाई दें। बड़ा सवाल यह है कि इस लोकतंत्र को भीड़तंत्र बना कौन रहा है ?  अन्ना की आंधी या नेहरु का गांधी ?

मैं नहीं कहता कि मेरा ब्लॉग ही अंतिम सत्य है या सियासी नेता की ज़ुबान ब्रह्मा की लकीर..पर अब जनता जागने लगी है। वो पीएम के घर धरना देती है, कांग्रेसी युवराज का घेराव करती है, उसकी आवाज़ ससंद परिसर में सुनाई देती है, प्रजा अब जतना बनकर बागी हो गई है, उसे सरकार  से डर नहीं लगता, सकार को उससे दहश्त होने लगी है और अब हम भारत के लोग हमेशा यहीं गाना नहीं गाएंगे “हम होंगे कामयाब एक दिन” आज वहीं एक दिन होना चाहिए.. दिन कवि दिनकर का कि - अब्दो-शताब्दियों का अंधकार, बीता गवाश अम्बर के दहके जाते है, यह और कुछ नहीं जनता के सप्न अजय, चीरते तिम्र का हिद्गय उमड़ते आते है, फव्हारे अब राज दंड बनने को है, हस्रते स्वर्ण सिंगार सजाती है, समय के रथ का हर-हर नाद सुना, सिंहासन खाली करो कि अब जनता आती है....!!

गुरुवार, अगस्त 11

अशनश और आरक्षण : गांधी बन्दर अब हल्ला बोल..

मोहन दास गांधी ने कभी सोचा नहीं होगा की बुरा ना देखो, सुनो और बोलो कहने वाले उनके बंदरों को आज का आम-आदमी अपनी आदत में शुमार कर लेगा..। बस वो बंदर बहरा, अंधा और गूंगा बन चुका है। जो हर बदलाव से डरता है, हर बात से बचता है और सच से छुपता है।

खुद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के ख़ुदा (नेता) कहने वालो ने लोकतंत्र (आवाम की आत्मा) हत्या कर दी और अब वो पोस्टमार्टम भी नहीं करवाना चाहते। उन्हे हर उस बात से डरते है जो संवेदनशील है। वो जनता की संवेदना का ही कत्ल करना चाहते है ताकि जनता प्रजा नामक सूअर बनकर रोज रोजी-रोटी में जीते रहे और चुनाव के बाद वोटो की माला पहनाकर उसी सूअर की बलि दे दी जाती है।  वो SEX-Edu पर बात नहीं करते, समलैंगिकता पर बहस से बचते है, 84 की दिल्ली और 03 के गुजरात पर आम-राय नहीं बनाते और आरक्षण-अनशन पर उनके अल्फाज़ों का ही अंत हो जाता है।

किताबों पर पढ़ा था लोकतंत्र में उदारता होती है, संवाद और बहस का मौका मिलता है..पर शायद किताबों का किस्सा किसी और देश के लिए रहा होगा..। वो ख़ुदा (नेता) डेली-बेली में मां-बहन की सुन सकते है, प्यार के पंजनामें में नंगा-नाच देख सकते है, फिल्मों के नाम अगर कमीने हो तो भी उन्हे कोई दिक्कत नहीं पर..आरक्षण पर बात करना भी उन्हे गंवारा नहीं..। फिल्म में मौलिक सवाल उठाया गया था कि जब पिछड़े आपके घर की सफाई कर सकते है, खेतों में काम कर सकते है, आपकी ट्टी तक उठा सकते है तो उनकी मेहनत पर किसी को शक नहीं होना चाहिए साथ ही यह बात भी उतनी सच है कि विकास के लिए आरक्षण की बैसाखी नहीं मैरिट के पैमाने की जरुरत है।

लेकिन हमारे नेताओं को यह विषय ही गलत लगता है। क्योंकि यह जातिवाद और आरक्षण पर सवाल उठाता है। साहब जब जाट आरक्षण के नाम पर रेल को जाम कर रहे थे, गुर्जर और मीणा राजपूताना को जला रहे थे। जब मंडल वाले सरकार चला रहे थे तब किसी भी नेता को आरक्षण के नाम पर जातिवाद फैलाने की याद क्यों नहीं आई ? क्यो आगे बढ़ते भारत में साल-दर-साल कुछ जातियां पिछड़ जाती है ? इसपर कोई नेता सवाल क्यों नहीं उठाता ! जाति के नाम पर बनी खाप-पंचायतें देश का कानून को कचरे की टोकरी में डालकर अपना फतवा सुनाती है तो किसी को सविंधान की याद क्यो नहीं आती ?


सिर्फ इसलिए की यह एक सवेंदनशील मुद्दा तो इस पर बहस नहीं हो सकती। इसलिए स्कूलों में sex-edu नहीं देनी चाहिए फिर चाहे भारत दुनियां में सबसे आबादी वाला देश बने या एड्स के मरीज़ो का नया विश्व किर्तिमान बनाए, संसद के बाहर लोकपाल पर बहस मंज़ूर नहीं है फिर चाहे नेताओ के घोटाले 2 लाख करोड़ के हो या वो पूरे मुल्क को बेचे दें...। इसे लोकतंत्र नहीं लाशतंत्र कहा जा सकता है, जिसमें हर शख्स एक जिंदा लाश है, जिसे जब चाहे पुलिस वाला लात मार सकता है, सरकारी बाबू भ्रष्टाचार के नाम पर उसकी जेब काट सकते है, नेताओं के नियम उसकी नियती तय सकते है और वो गांधी जी के बंदर की तरह मुंह-आख-कान बंद करके जिंदा लाश बना रहता है।

लाशों के लोकतंत्र में आपका स्वागत है, जहां रह लाश आपको जी-कर मरना सिखाती है, कोई कहता है कि आरक्षण और अशनश दिखाने वालो की मत सुनो..। जो सरकार चाहे सविंधान की दुहाई देकर किसी फिल्म के बैन कर दें, पर क्या अभिव्यक्ति का अधिकार भी उसी सविंधान में नहीं लिखा ? क्या शांतिपूर्ण अशनश उसी सविंधान के मौलिक अधिकारों में दर्ज नहीं हैं ?  मैने शुरुआत में नेताओं को ख़ुदा कहा था, उसके गहरे अर्थ हैं वो हिन्दुओं के मनु और मुसलमानों के ख़िलाफ़ा की तरह सविंधान को किसी धार्मिक पुस्तक बनाकर इस्तेमाल करते रहते हैं और हम गांधी जी बंदर अपना मुंह उसके हर फतवे पर बंद रखना ही बेहतर समझते है ।

लाशों के लोकतंत्र में कुछ लाशें कहती है कि लोकपाल से कुछ नहीं बदलने वाला, हर एक अधिकारी और बढ़ जाएगा जिसे रिश्वत देनी होती, कल तक जो काम 50रुपये की रिश्वत से होता था लोकपाल के बाद 100रुपये देने होगें, आखिर 50रुपये कि रिश्वत तो लोकपाल का हक होगा। कुछ सियानी लाशें यह भी बताती है कि सविंधान की आत्मा है न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में शक्ति-संतुलन कायम रखने में है...जो लोकपाल आते ही बिगाड़ा जाएगा। लोग यह भी कहते हैं कि प्रकाश झा फिल्म से पैसा कमाना चाहता है और फौज में ड्राइवर रहा अन्ना क्या जाने लोकपाल बिल की बात..।

मैं उस लोकतंत्र की लाशों से एक सवाल पूछना चाहता हूं, आजकल बच्चे अपने मां-बाप की कद्र नहीं करते तो क्या वो बच्चे पैदा करने छोड़ देगें ? या अगर घी-दूध-सब्जी-फल-अन्न में मिलावट होने लगी तो क्या उन्होने भूख हड़ताल कर ली थी ? नहीं ! तो फिर लोगों को यह समझना चाहिए कि व्यवस्था की कब्र खामोशी की नींद से बेहतर होगा..अमनो के लिए, सपनों के लिए लड़ना..। जब एक फौज के रिटायर ड्राइवर (अन्ना हज़ारे) बुढ़ापे में भुखे रहकर लड़ सकता है, जब इस फिल्म निर्माता अपनी फिल्म और पूंजी को दाव पर लगाकर लड़ सकता है तो 125 करोड़ जिंदा लाशे क्यों नहीं...

लोकपाल से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा, RTI के बाद भी घोटाले होते है पर बंदर बनकर अंधे-गूगें और बहरे होने से, लोकतंत्र की जिंदा लाश बनने से, काम से घर और घर से काम पर जाने से, रिश्वत को सुविधा-कर मानने से, एक फिल्म पर पाबंदी लगाने से, एक अर्थशास्त्री को भगवान मानकर देश को दिवालिया बनाने से, लाल-सलाम के आतंक को सहने से, अफ़जल-कसाब को जेल में खिला-पिलाकर पालने से, सरकारी बाबुओ को गाली देकर भी उसी सरकारी नौकरी को पाने से, खैराती अस्पताल में अपनो को मरते देखने से, राम के नाम पर इमारतों को तोड़ने से, बुर्क़े और घूंघट में घुटने से, टूटे सपनों का मातम बनाने से, अधूरे अधिकारों की चिता जलाने से..लड़कर मर जाना बेहतर होगा..। शांति से लिए युद्ध ज़रूरी है और लोकतंत्र में जंग हथियारों से नहीं हौसले से लड़ी जाती है..। गांधी जी के बंदरों अब हल्ला बोलो....!!

सोमवार, जून 20

अनशन-आंदोलन और आपातकाल...


इसे जून का जादू कहें या जन के जज्बात लेकिन जून का महीना है, कांग्रेस की सरकार, आवाम की हालत और आपातकाल के हालात सभी समान नज़र आते हैं...। महज़र किरदार बदल गए पर कहानी नहीं बदली। जय प्रकाश नारायण का ज़ज़्बा और लोहिया के लोग अब अन्ना के अनशन और रामदेव के सत्यागृह में बदल गए हैं। आज अन्ना को RSS का मुखौटा कहा जाता है कभी जेपी के नक्सिन का मास और CIA का एजेंट कहा गया था..। दिल्ली के प्रेस कल्ब में अन्ना आवाहन करते है कि लोकपाल के लिये मरना मंज़ूर है और 1974 में पटना से जेपी जवाब देते थे भारत में रुसी क्रांति के वास्ते पुलिस और सेना का सरकार का साथ छोड़ना होगा..।


इसके समर्थन में नक्सलबाड़ी के चारु मजरुमदार और कानू सान्याल ने फ़ौजी इंकालब की वाकालत की थी और आज रामदेव सैना बनाने का बयान दे रहे है। इदिंरा गांधी का डर आज प्रणव और दिग्गी राजा के बयानों में नज़र आने लगा है। एक को आपातकाल से हालात दिख रहे है और दूसरे को RSS का भूत..। कांग्रेस के घोटाले आज भी है... 64 करोड़ की बोफोर्स आज 176000 करोड़ के 2जी में बदल चुका है। तब की तरह आज भी विपक्ष खंड-खंड खंडित है। आज जब लैफ्ट की बंगाल में वैचारिक हार हो चुकी है, हाथ और आदमी का साथ छूट चुका है, बीजेपी के भग्वा रंग सफेद पड़ चुका है, माया के माया जाल में किसान मर रहा हैं, अमर गाथा के जाते ही सपा की साइकिल की हवा निकल गई है, नकसलबाड़ी से शुरु हुआ लैड-कोरिडॉर आधे भारत में फैल गया है, जाति ने नाम पर जाट रेल का पहियों को रोके पड़े, राजस्थान के गुज़र सड़को पर रोड़े बनपर पड़े है, अमूल बाबा को कलावति के घर तो दिखता है पर सीडब्लूजी, 2जी और आदर्श..। पाकिस्तान को फेल-स्टेट कहने वाले सियाने भारत के लिये अब क्या कहेगें।


आप इसे महज़ संयोग कह सकते है, यह भी 74 का भारत, 2011 के इंडिया जुदा है। पर जून का जादू और कांग्रेस का हाथ वहीं है..। 2011 में, 50 ख़बरिया चैनलों की मौजूदगी में, 50000 लोगो के आंखों के सामने, दिल्ली के रामलीला मैदान में जो पुलिया भीड़तंत्र देखने को मिला क्या आपको वो संभव लगता था..? इसे अरिंदम चौधरी अपने मैगज़ीन को बेचने के लिये इसे 2011 का जंलियावालाबाद कह सकते है। सुप्रीम कोर्ट सवाल उठा सकती है कि रात में 1बजे सोये हुऐ लोग क्या कानून व्यवस्था बिगाड़ सकते थे..? अंकल सैम के हाइट-हाउस से इसपर प्रतिक्रिया आती है पर हम खामोश रहते है...? अगर आपके कालोनी में आज सिलिगं करने MCD वाले पहुंच जाए तो आप चुप नहीं बैठेगें..। घर पर काम वाली बाई अगर वक्त पर ना पहुचे तो आप चुप नहीं बैठेंगे..। आपकी गाड़ी को कोई गलत तरीके से ओवर-टेक कर जाए तो आप चुप नहीं बैठेगें..। पर आज ख़ामोश क्यो है..?

कुछ सियाने कह सकते है कि समानता और आज़ादी दोनो की सीमा होती है..सरकार उसी सीमा की चौकिदार भर है..मैं यह नहीं कह रहा कि चौकिदार चोरी नहीं करता..वो चोर भी है और चालाक भी लेकिन पड़ोस के लाल किले पर नज़र डाले तो एहसास होगा कि हमारा चौकिदार(सरकार) चोर है पर लीबिया, यमन और चीन के तरह डाकू नहीं..। जैसे यमन औऱ लीबिया में कोई अनशन की बात भी नहीं सोच सकता..जो अन्ना और बाबा ने करने की हिमाक़त की...या कि खादी पहनकर कोई गांधी, ख़ाकी पहनकर कोई सुभाष और भगवा पहनकर कोई विवेकानंद नहीं हो जाता..। बाबा की रामलीला, पुलिस की महाभारत और कांग्रेस के हाथ की हकीक़त सबके सामने है...!! लेकिन क्या कभी आपने देखा है चोर को चौकिदार बनते? नहीं देखा..तो अतुल्य भारत की सरकार को देखो..ये काला धन लाएगी और लोकपाल बनाएगी...भाई हमारे नेता मिस्र के फेरो थोड़ी ना है जो मरने से पहले ही अपना पिरामिड संसद में पास करवा दें...। यहां सवाल सड़क, सियासत या संसद का सिस्टम का है।

कहते हैं कि जहां पोल्टिकल विल का The End और जाता है वही से पब्लिक विल की क्रांति शुरु होती हैं। आज बाबा की रामलीला का अंत हो चुका है और महाभारत की शुरुवात भी..। अन्ना और बाबा दोनो के लक्ष्य एक है पर नीति नहीं....जैसे गांधी का स्वराज और मार्क्स का साम्यवाद। हांलाकि कुछ लोग कहते है कि बाबा की गाढ़ी में कई तिनके है, तभी हाथ ने पुलिस के दम पर उन्हे उखाड़ दिया जबकि अन्ना क्लीन शेव है। बाबा के पास भगतों का काडर है पर अन्ना के पास आवाम की आवाज़..। या यू कहें कि बाबा के पास भग्तो का काडर तो है पर पड़े-लिखे जवान नहीं। वहीं अन्ना के पास शहरी युवाओं की खुशबु तो है पर बाबा की तरह ग्रामीण भारत की महक नहीं।

यहां सवाल यह भी उठता है क्यों लोकपाल के लिये अन्ना या कालेधन के लिये बाबा की बलि देना जायज़ होगा..क्योंकि आमरण अनशन करने वाले को लाखों होगें पर जिनके अनशन से सरकार की चूह्ने हिल जाए..ऐसे लोगो को उंगलियों पर गिना जा सकता है। सवाल यह उठता की क्या अन्ना और उसके लोग ही सिविल-सोसाइटी है और हमारे चुने हुऐ नेता अन-सिविल..। क्या चंद नुमांदों को संसद या सरकार की जगह कानून बनाने का हद या उन्हे ब्लैक-मेल करने की इजाज़त है..। जवाब सीधा सा है कि सोनिया की NAC कानून का मसौदा बना सकती है, 10 जनपथ से 7RCR को संचालित हो सकता है तो अन्ना लोकपाल-बिल क्यो नहीं बना सकते..। समाजसेव किसी दल-सरकार या इंसान की जांगीर नहीं जनाब । यह कोई भी कर सकता है, चाहे बाबा हो या अन्ना..। सरकार पर सवाल उठाने और समाजसेवा का हक जितना गांधी परिवार को है उतना ही हमे भी है..ये जम्हुरियत है बाबु यहां लोग..जनता कहलाते है प्रजा नहीं...फिर चाहे जून का जादू चले या आपातकाल का चाबुक पर आवाम की आवाज़ बुलंद रहनी चाहिये..।