दिसम्बर 1992 में, मै बहुत उत्साहित था घर के ब्लैक एंड वाइट टीवी में सरकारी डीडी पर खबरें महीनें की शुरुवात से दिखाई जा रही थी,कि देश में बहुत बड़ा होने वाला है। दिल्ली की सबसे बड़ी कोर्ट उसे रोकना चाहती थी और दिल्ली(केंद्र)के साथ साथ लखनऊ(राज्य)सरकारें उसे रोकने के दिखावें का दम भर रही थी। मैं उत्साहित था, क्योकि 5-6 साल की उम्र में आम बच्चों की तरह मुझे भी रामलीला देखना का शौक था। खासतौर पर आखरी 3-4 दिन क्योंकि उस वक्त राम-रावण का युद्ध होता है..सभी बच्चो की तरह मुझे भी मज़ा आता और मैं तालियां बजाता था। रामलीला हुये महज दो मास गजुरें थे, सो बाबरी-विवाद पांच साल के बच्चे को तमाशा या नौटकीं सा लगता था।
मै नहीं जानता था ये मोहल्ले का मेला नहीं मुल्क का मातम होगा। राम-रामण का युद्ध नहीं राम-रहीम की मानवता की मौत होगी। जिसकी लपटों में दशहरें का दहन नहीं गोधरा की रेल जलेगी, दिपावली के पटाखें नहीं मुबंई में बंम फटेंगें, ईद की सेवइयां नहीं गुजरात का सन्नाटा मिलेगा और हिन्दू-मुस्लिस (हम) से हिन्दुस्तान बनेगा नहीं हिंसा-मातम (हम) से हिंद बंटेगा। अख़बर जो खुद को बादशाहं ऐ हिन्दौस्तान कहलवा कर खुश होता था, उसी हिन्दौस्तान को आडवनी अपनी वाणी में हिन्दुस्तान कहकर कोमी खुशी का अंत करेगा। अयोध्या तो बस झांकी है अभी मधुरा-काशी बाकी है जैसे नारों पर चंद भगवा बदावत करेगें, साधवी-प्रज्ञा आंतकी बनेगी और जिहाद के जहर से कहफेआज़मी का आजमगढ़ं आतंक का अंधा कुवा बना जाएगा।
बचपन की रामलीला में तीर नकली होते थे, जिसे चलाने पर तालियां मिलती थी फिर आज अमन का अंत करने वालो को गालियो की जगह वोट क्यो मिल जाते है। मै बच्चे से बड़ा हो गया, पहली कक्षा से पत्रकार बन गया लेकिन ये इसका जवाब आज तक नहीं मिला। गांधी के रामराज्य और बीजेपी के रामराज्य में फर्क हो सकता है, लेकिन राम दोनो में कॉमन फेक्टर है। क्यों राज्य के चलाने लिये हमें राजा (राम जैसा अच्छा या रावण जैसा बुरा) की जरुरत पड़ती है, चाहे वो हिन्दुओं का राम हो या मुसलिमों का खलीफा। प्रजा, जनता क्यो नहीं बनती ?
रामलीला का एक और वाक्या याकीन याद है। जब राम-सीता की शादी होती है, रिक्षी ज्यौतिष के हिसाब से जोड़े के मंगल भविष्य की आकाशवाणी करत है, सभी गुण मिलाते, कुणलियां दिखाते है। ठीक वैसे ही मीडियां और बुद्धीजीवी मनमोहन सरकार का मगंल गान करते है। खुद अर्थशास्त्री प्रजानमत्रीं हमें भारत का भविष्य लालकिले की प्राचीन के लिखा खाते हैं..लेकिन हम लोगों को वनवास की जगह महगांई डायन मिलती हैं। सुरपनाखा की तरह राजपुत्र लक्षमण यानी तथाकथित अगड़ी क्षत्रिये जातियों (खाप-पंचायतों) ने प्रेम-विवाह या गोत्र विवाह के नाम पर प्यार करने वालो की बलि दे दी और हमारे नेता राम के समान पास खड़े देखते रहे। बाली बने भुमाफिया-उद्योपतियों ने किसाने के उनकी जमीने छीन ली, लेकिन कोई राम नहीं पहुते। राम (नेता) पहुते भी तो कैसे वो तो बह्मास्त्र प्राप्ति के लिये न्यूकलियर बिल का हवन करने मे बिजी थे। परमाणु करवार पर कानून आ सकता है जिसका फायद दशको बाद मिलेगा पर जमीन-अधिगर्हन पर नहीं जिसकी कीमत किसान आत्महत्या करके, नक्सली रास्ता अपनाकर या शहरी-बंजारे बनकर चुका रहे है।
ऐसे राम का क्या फायदा तो अपनी स्त्री को सम्मान ना दिला पाये। आपने पास बैठना का हक उससे छीन ले। ठीक वैसे ही जैसे संसद में कुछ सिलासी लोग महिला बिल पर कर रहे है। आज कोर्ट का जजमेंट बाबरी मसले पर आने वाला है, लेकिन आज मैं उत्साहित नहीं हु..उससे पहले ही अपनी विचार-लीला की कहानी सा ब्लॉक लिख रहा हु..क्योकि शायद कुछ नहीं बदला चाहे बात हर साल की रामलीला की हो या पांच साल के चुनावो की..प्रजा का काम तालियां बजाना है गालियां सुनाने के लिये तो राम-राज्य के नेता मौजूद है। हो सकता है इस दफा भी रावण के पुतले की जगह मजहबी लहु की लंका जले..कोई हनुमान इसे भी हाई-जेक कर ले जाये..और तुलसीदास बने हम लोग (मीडियां वाले) इस कथा को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर अपना पैशा निभाये। पर आपका क्या ? तुलसी को तो राजकवि का दर्ज मिल जाएगा..राम-रावण की तर्ज पर सरकार और विपक्ष की कहानी चलती रहेगी और आपकी चितायें जलती रहेगी..!!
लेकिन फिर ना जानें क्यो इस दफा देश कुछ बदला बदला सा लगता है। गूगल कहता है, कि इंडिया और भारत अलग है। ठीक वैसे ही जैसे मेरे घर का टीवी ब्लैक एंड वाइट से रंगीन हो गया है। जिसमें काला-सफेद झूठ ही नहीं..इंसान और इमान के सभी रंग दिखते है। सियाने कहते है कि हमारे देश में दो तरह लोग रहते है - मूक प्रजा जिस जीने के लिये जंनत नहीं महज जमीन नसीब हो जाये तो वो सियासी हुकमारनों की वोट-वदंना करते नहीं थकेगें और दूसरी तरफ इक्बाल की जम्हूरी जनता जो सियासी गलियारों सा विकास अपनी गलियों में भी चाहते है। मेरा सवाल प्रजा और जतना दोनों से है, कि क्या राम-बाबरी विवाद पर कोर्ट के फतवे-फरमान या फैसले से आपकी जमीन या जन्नत में कोई बुनियादीं अन्तर आता है ? अगर नहीं तो ये बवाल पर किसके लिये ? इंसान, भगवान या सियासी शैतान? अगर हां, तो ज्यादा उम्दा बात है, कि कम से कम कोर्ट के कानून का काला रंग, मज़हबी हिंसा के लाल-लहु से तो यकीनन बेहतर होगा..!!!
मै नहीं जानता था ये मोहल्ले का मेला नहीं मुल्क का मातम होगा। राम-रामण का युद्ध नहीं राम-रहीम की मानवता की मौत होगी। जिसकी लपटों में दशहरें का दहन नहीं गोधरा की रेल जलेगी, दिपावली के पटाखें नहीं मुबंई में बंम फटेंगें, ईद की सेवइयां नहीं गुजरात का सन्नाटा मिलेगा और हिन्दू-मुस्लिस (हम) से हिन्दुस्तान बनेगा नहीं हिंसा-मातम (हम) से हिंद बंटेगा। अख़बर जो खुद को बादशाहं ऐ हिन्दौस्तान कहलवा कर खुश होता था, उसी हिन्दौस्तान को आडवनी अपनी वाणी में हिन्दुस्तान कहकर कोमी खुशी का अंत करेगा। अयोध्या तो बस झांकी है अभी मधुरा-काशी बाकी है जैसे नारों पर चंद भगवा बदावत करेगें, साधवी-प्रज्ञा आंतकी बनेगी और जिहाद के जहर से कहफेआज़मी का आजमगढ़ं आतंक का अंधा कुवा बना जाएगा।
बचपन की रामलीला में तीर नकली होते थे, जिसे चलाने पर तालियां मिलती थी फिर आज अमन का अंत करने वालो को गालियो की जगह वोट क्यो मिल जाते है। मै बच्चे से बड़ा हो गया, पहली कक्षा से पत्रकार बन गया लेकिन ये इसका जवाब आज तक नहीं मिला। गांधी के रामराज्य और बीजेपी के रामराज्य में फर्क हो सकता है, लेकिन राम दोनो में कॉमन फेक्टर है। क्यों राज्य के चलाने लिये हमें राजा (राम जैसा अच्छा या रावण जैसा बुरा) की जरुरत पड़ती है, चाहे वो हिन्दुओं का राम हो या मुसलिमों का खलीफा। प्रजा, जनता क्यो नहीं बनती ?
रामलीला का एक और वाक्या याकीन याद है। जब राम-सीता की शादी होती है, रिक्षी ज्यौतिष के हिसाब से जोड़े के मंगल भविष्य की आकाशवाणी करत है, सभी गुण मिलाते, कुणलियां दिखाते है। ठीक वैसे ही मीडियां और बुद्धीजीवी मनमोहन सरकार का मगंल गान करते है। खुद अर्थशास्त्री प्रजानमत्रीं हमें भारत का भविष्य लालकिले की प्राचीन के लिखा खाते हैं..लेकिन हम लोगों को वनवास की जगह महगांई डायन मिलती हैं। सुरपनाखा की तरह राजपुत्र लक्षमण यानी तथाकथित अगड़ी क्षत्रिये जातियों (खाप-पंचायतों) ने प्रेम-विवाह या गोत्र विवाह के नाम पर प्यार करने वालो की बलि दे दी और हमारे नेता राम के समान पास खड़े देखते रहे। बाली बने भुमाफिया-उद्योपतियों ने किसाने के उनकी जमीने छीन ली, लेकिन कोई राम नहीं पहुते। राम (नेता) पहुते भी तो कैसे वो तो बह्मास्त्र प्राप्ति के लिये न्यूकलियर बिल का हवन करने मे बिजी थे। परमाणु करवार पर कानून आ सकता है जिसका फायद दशको बाद मिलेगा पर जमीन-अधिगर्हन पर नहीं जिसकी कीमत किसान आत्महत्या करके, नक्सली रास्ता अपनाकर या शहरी-बंजारे बनकर चुका रहे है।
ऐसे राम का क्या फायदा तो अपनी स्त्री को सम्मान ना दिला पाये। आपने पास बैठना का हक उससे छीन ले। ठीक वैसे ही जैसे संसद में कुछ सिलासी लोग महिला बिल पर कर रहे है। आज कोर्ट का जजमेंट बाबरी मसले पर आने वाला है, लेकिन आज मैं उत्साहित नहीं हु..उससे पहले ही अपनी विचार-लीला की कहानी सा ब्लॉक लिख रहा हु..क्योकि शायद कुछ नहीं बदला चाहे बात हर साल की रामलीला की हो या पांच साल के चुनावो की..प्रजा का काम तालियां बजाना है गालियां सुनाने के लिये तो राम-राज्य के नेता मौजूद है। हो सकता है इस दफा भी रावण के पुतले की जगह मजहबी लहु की लंका जले..कोई हनुमान इसे भी हाई-जेक कर ले जाये..और तुलसीदास बने हम लोग (मीडियां वाले) इस कथा को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर अपना पैशा निभाये। पर आपका क्या ? तुलसी को तो राजकवि का दर्ज मिल जाएगा..राम-रावण की तर्ज पर सरकार और विपक्ष की कहानी चलती रहेगी और आपकी चितायें जलती रहेगी..!!
लेकिन फिर ना जानें क्यो इस दफा देश कुछ बदला बदला सा लगता है। गूगल कहता है, कि इंडिया और भारत अलग है। ठीक वैसे ही जैसे मेरे घर का टीवी ब्लैक एंड वाइट से रंगीन हो गया है। जिसमें काला-सफेद झूठ ही नहीं..इंसान और इमान के सभी रंग दिखते है। सियाने कहते है कि हमारे देश में दो तरह लोग रहते है - मूक प्रजा जिस जीने के लिये जंनत नहीं महज जमीन नसीब हो जाये तो वो सियासी हुकमारनों की वोट-वदंना करते नहीं थकेगें और दूसरी तरफ इक्बाल की जम्हूरी जनता जो सियासी गलियारों सा विकास अपनी गलियों में भी चाहते है। मेरा सवाल प्रजा और जतना दोनों से है, कि क्या राम-बाबरी विवाद पर कोर्ट के फतवे-फरमान या फैसले से आपकी जमीन या जन्नत में कोई बुनियादीं अन्तर आता है ? अगर नहीं तो ये बवाल पर किसके लिये ? इंसान, भगवान या सियासी शैतान? अगर हां, तो ज्यादा उम्दा बात है, कि कम से कम कोर्ट के कानून का काला रंग, मज़हबी हिंसा के लाल-लहु से तो यकीनन बेहतर होगा..!!!
18 टिप्पणियां:
nice,,,,,,,
apke mujhe sare blogs ache lagte hai coz wo soche pe majboor karte hai ki humare desh may abhi bhi kitni kamiya hai......
apke mujhe sare blogs ache lagte hai coz unse pata chalta hai ki abhi bhi humare desh may kitne kamiyaan hai....
bahut aacha lekh likha hai bhai...
Its beautifully composed.
par jalna or ladna to bhartiyo ke niyaati hai jo sada se is dhara par chali aa rahi hai,
'Vajah' ye shabd sadiyo se kuch bhi raha ho.. Nateeja hamesha ek he raha hai... :)
wow.... wat a great thoughts .... salute frm my side
आप सभी का शुक्रिया..!!
So nice thought ... i think everything is for politics...
God to bahana hai... sabka ek makshad party ko satta me lana hai....
Though we r in independent India we r all very helpless so cant comment much Rahul if u were expecting anything extraordinary i am sorry
Just as treasures are uncovered from the earth, so virtue appears from good deeds, and wisdom appears from a pure and peaceful mind. To walk safely through the maze of human life, one needs the light of wisdom and the guidance of virtue.
agreedddddd.......fully !!!
Mandir ho ya maszid koi farq nai padta....
ना हिन्दू की औकात जहाँ, ना मुस्लिम का बोलबाला......
सबके ऊपर है एक ताक़त, उसे ईश्वर कहो या अल्लाहताला...
फ़सादियों का ना कोई धर्म, ना मजहब है, ना ईमान कोई...
इन्सान वो है, जिसने हर को, बस एक रंग में रंग डाला...
ना हिन्दू की औकात जहाँ, ना मुस्लिम का बोलबाला......
सबके ऊपर है एक ताक़त, उसे ईश्वर कहो या अल्लाहताला...
- प्रियंक राज अग्रवाल (http://editkutter.blogspot.com)
Bahut khoob! Kaash saare hindustaniyon ki soch rahul ji jaisi ho jaye... Is desh ka bhala ho jayega :)
आप लिखते ठीक हैं लेकिन गलतियों पर ध्यान देने की जरूरत है। खैर अयोध्या समस्या वोट लेने के लिए भले खड़ी की गई हो जैसे मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया गया था। लेकिन इस बात से कोई इंकार कर सकता है कि अयोध्या, मथुरा, काशी हिन्दुओं के तीर्थस्थल रहे हैं और आक्रांता बाबर ने उन सभी जगहों पर मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनायी। खैर आज देश के पास भूखमरी, बेरोजगारी के अलावा और भी कई ज्वलंत समस्यायें हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। हां प्रगति के साथ-साथ देश को अपने इतिहास और संस्कृति को भी नहीं भूलना चाहिए। वसुधैव कुटुंबकम हमारा ध्येय रहा है। इस धरती ने सभी को अपने यहां आसरा दिया है। लेकिन कुछ लोगों के नापाक इरादों के कारण सभी लोगों को कष्ट उठाना पड़ता है। देश के भूखे नागरिकों का पेट भरे। सभी को रोजगार की सुविधा मिले। फिर इन उचक्के चोर नेताओं को कौन पूछेगा। जो कॉमनवेल्थ के नाम पर कॉमन आदमी की गाढ़ी कमाई को लूट-खसोट में लगे हैं। और देश की प्रतिष्ठा को धूल-धूसरित कर रहे हैं।
hey m in love wd ur words, thoughts n writing style. indeed a gud one article once again !
बहुत खूब लिखा है....
शानदार....
bahut achhe dost...
ek dum sahi baat......
bahut achay rahul ji
thought provoking.......
Having learned that working in media, it is inevitable that such a profession should concentrate its efforts on bringing more knowledge to make deep and lasting impression. Therefore, it is my pleasure, use this space to express my admiration for Rahul Dabas.
Ignacio Ramos
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