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सोमवार, अप्रैल 26

लोन की लंका में ढाबे की खोज

वो शनिवार की रात मेरे लिये किसी पाठशाला से कमतर नहीं थी। किसी दोस्त के साथ देर रात हाईवे के ढाबे पर जाने का मन किया। सोचा घर का खाना और विलायती पकवान तो रोज ही खाते हैं। चलो आज देसी स्वाद को जरा फिर से चखा जाये। वो भी कॉलेज के अंदाज में।


घर से बाइक उठाई, दोस्त के साथ एनएच-8 की राह पर हो चले। राह तो वही थी पर रास्ते बदले-बदले से थे। ऐसा नहीं है कि गुड़ंगाव जाना कभी होता ही नहीं लेकिन इस तरह से तो नहीं ही होता। कभी चैनल की न्यूज़ के वास्ते वहां के मॉल्स की खाख छाननी पड़ती है, तो कभी दोस्तों के साथ पार्टी की पैमाशन। लेकिन इस बार गाड़ी की सवारी नहीं बाइक की राइडिंग थी, फ्रेंडली गर्ल्स नहीं दोस्तान का अंदाज। धौलाकूआं से चले और चलते रहे पर हाईवे पर ढाबा नहीं दिखा।


आखिर अब हाईवे, एक्सप्रेस-वे में तबदील हो गया है। खेतों पर ख्वाबों की इमारतें सजी है। तो भला ढाबा कैसे दिखे। पांच साल पहले अपनी जीएफ के साथ इस रोड से गुजरा करता था, आज वो लड़की गुजरा हुआ कल है। उसका दिल बदल गया है, रोड के दिन बदले गये हैं पर मेरी राय नहीं बदली। तलब आज भी ढाबे के खाने की ही लगी है। सो सड़क पर सवा सौ की रफ्तार से ढाबे की तलाश पर चलते चले। इफ्पो चौक मिल गया पर ढाबा नहीं। किसी सियाने से पूछा तो बोल साहबजी जिस सरीखे के ढाबा आप चाहते हैं, वो तो मानेसर के बाद ही मिले तो मिले।


फिर सोचा कॉलसेंटर में एक दोस्त काम करता है, अब यहां तक आ ही गये है तो उस दोस्त से भी मुक्का-लात कर लिया जाये। मिले तो उसकी सूरत चुसे हुये आम की माफित लग रही थी। पूछा क्या हुआ, बोला यार टारगेट-मीट नहीं हो रहा। गौरे भी साले गरीब है..कहते है की घर में कार है, फोन है, पीसी है पर पैसा नहीं और लोन नहीं लेंगे। अब अगर वो लोन नहीं लेंगे तो मेरा लोन कैसे उतरेगां। भाई साहब पेशे से पायलेट हैं, पर थोड़ा लेट हो गये, जब फ्लाइंग सीखने अमेरिका गये थे तो रुपया और बाजार दोनों मजबूत थे, लौटे तो मदीं और मंहगाई से एयरलाइन की हवा निकल चुकी थी। और वो अपनी कॉकपिट से निकलकर कॉलसेंटर पहुच गए। लेकिन अब अपना एजुकेशन लोन कैसे निकले इसका जवाब जनाब के पास नहीं। हां इससे सवाल का जवाब जरुर मिल गया कि बेबर किसान या भूखे मजदूर ही नहीं मोटर-गाड़ी में बैठ, एसी की ठंडी हवा खाने वाले शहरी लोग ही कर्ज की मर्ज के मारे है। बस उसकी बेबसी साहूकारो की पोथी में नहीं, बैंक की शीट पर दिखती है। हां दोनो तरह के हम लोग चिर निंद्रा में होते है फिर चाहे वो आत्महत्या की नींद हो या नींद की गोलिया खाकर जबरदस्ती की नशेमंद रात।


भाई बोला, पापा की नौकरी ही बेहतर थी..रिटायर होते-होते सिर पर छपरा तो बन जाता था..आज तो लोन पर जीना और लोन में मर जाना ही गलोबल जन्नत है। बोला अब ठेठ हिन्दुस्तानी जुगाड़ में लगा हूं। क्या पता किसी की मुठ्ठी भरकर मैं उड़ान भरने लगूं। खैर इस खस्ता हाल की खेती भी तो इसी तर्ज पर होती है। जब प्राइवेट में मुट्ठी का जलवा है तो सरकारी साहब की क्या बात करें। अफसर की कुर्सी, आईपीएस की तरह बिकाऊ है तो पैसा वसूली में कोताही क्यों। तभी को अन्दर नहीं आता क्योंकि ढाबे की बहस तो जेएनयू में ही सिमट गई है। और जो पैसे की प्यास में प्यासा है, वो पागल हैं बागी नहीं। क्रांति के लिये पागलपन, बागपन चाहिए, जो हम नशेमंद नौजवानों में नहीं मिलता।


अब समझ आता है की लोन की लंका के चलते ढाबे का डंका कहीं खो गया। कर्ज के मर्ज से मॉल्स बन गये और माटी के खाने काल में खो गये। कभी किस्सों में क्लोन के लोग सुने थे, आज लोन के लोग देख लिये। देश ही नहीं दुनिया का यही हाल है। सियासे सिसासी लोग, भले ही दंत्तेवाड़ा तो दिल्ली से दूर कहे, पर वो है नहीं। रात बहुत हो चुकी थी, तो घर वापस हो लिये। रिंग रोड पर आइडिया का ऐड देखा पर उसकी बत्ती गुल थी। शायद एमसीडी रात में बिजली बचा रही होगी या आइडिया, सर जी भी सो रहे होंगे। खैर इस आइडिए से एहसास हुआ कि कार के साथ भी हम बेकार है, सेल है पर नई सोच नहीं, पीसी से प्यार नहीं होता और हर हाईवे पर ढाबे नहीं मिलते।


घर जाकर चैन की बंसी बजाकर सो गया, हम मीडियावालों का सनडे ओफ नहीं होता। कल ऑफिस जाना है, घर लौटना। आइडिया चले ना चले काम हो चलता ही रहेगा। आंखे लगते ही लपकर उठा, या यू कहें जज्बाती होकर जागा। लगा कि, लोन की लंका जल चुकी है, समाजवाद का सवेरा है, फिर से कॉलेज की मीत और साथियों की प्रीत के साथ हाइ-वे पर खाना खा रहा हूं, पास खड़ा किसान खुश है, दूर खड़ा मजदूर भी। ट्रक ड्राइवर भी और हम लोग भी। फिर होश आया कि वो अपना था पर सपना था, रात अभी बाकी है, मेरे दोस्त...।

शुक्रवार, अप्रैल 23

मीडिया की मंडी में हम लोग

छुटपन में मां के साथ मंडी जाता था और बहुत बार मां पापाजी से कहती थीं, कि मंडी में सब्जी सस्ती तो मिलती है पर अच्छी नहीं। आज सालों बात पत्रकारिता के एक दिगज का ब्लॉग पढ़कर फिर से वो यादें जहन में ताज़ा हो गईं। आज सूचना समान बन गई है, ख़बरिया चैनल सौदागर, जो अपनी जादूगरी से नागिन के तमाशों से भी पैसे कमाने में माहिर हैं। अब ऐसी मंडी में अगर सस्ती की जगह अच्छी सब्जीनुमा ख़बरे परोस दी जाये तो भला बुरा क्या हैं।


इसी ख़बरियां मुद्दे पर फिल्म बनी थी रण लेकिन शायद उसका नाम रन होना चाहिये था। आखिर फिल्मी फसाने से खबरी अफसाने तक हम दौड़ ही तो रहे हैं। कभी पेड न्यूज़ के पीछे, कभी पॉलिटीकल पार्टी तो कभी बॉस की बात रखने के लिये। मेरा एक दोस्त कहने को तो किसी बी-ग्रेड चैनल में ब्यूरो-चीफ है, लेकिन उसका मालिक बच्चों के मिशन एडमीशन से घर में पानी की बोरिंग तक काम उसे सौंप दिया करता है। बॉस उसे आलाद्दीन का चिराग समझता है और वो खुद को पत्रकारिता का दलित दलाल।


ऐसे में वो ब्लॉग सटीक साबित होता दिखता है,कि मीडिया मिशन नहीं प्रोफेशन भर होनी चाहियें। कम से कम हम जनमत को बीटी बैंगन या सल्फाइट आलू के जगह साफ सुथरी खबरें तो परोसेंगे। जिसके धम्म को धारण करने से समाज सुधार हो या नहीं आप बीमार तो नहीं ही पड़ेंगे।


ब्लॉग की बहस में एक हालिया शिगूफा भी शुमार हो गया है कि जिस नाचीज के आगे कैमरा लग जाये उसमें कास्टिंग काउच की जैसी चीज चीपत हो जाती है। फिर चाहे फिल्मों के कलाकार हों या खबरों के अदाकार..आखिर अल्फाज़ो से अस्लियत तो बदले का पेशा तो दोनों का ही हैं। दोनो समाज का आइना है पर अपनी शक्ल उसमें देखना नहीं चाहते।


चलो अपनी सब्जी-मडीं में वापस चलते है। नानी की कहानी में एक खेत था जहां चंद अनाज के दानों के बदले ताज़ा खेत की सब्जी किसान दिया करता था। कोई बिचौलिया नहीं, बेइमानी, बस ओर्गेनिक फूड। नानी उसे जजमानी प्रथा कहती थी, आप कॉस्मोपोलिटिन लोग उसे बाटर-सिस्टम पुकार कसते है। उन्ही कहानियों में उस दौर की मीडिया की भी झलक मिलती है। किस्से युगान्तर और सन्धया के समाचारों के, तिलक के लेख और गांधी के हरिजन के। जिस वक्त पत्रकार कलम और झोला लिए, तन पर खादी और मन में मिशन के साथ काम करता था, जनता सहज ही जुड़ जाती थी। सेवा नहीं सुधार होता था और अनपढ़ आवाम भी उसकी आभा को महसूस करती थी। आज के नए दौर में मोटर-गाड़ी, दिलीप कुमार के तांगे तो पछाड़ चुकी है। पत्रकार, गांधी के ठपे वाले पत्रों के साथ कार में समाचारी सफर करता है। जो सियासी सौदागरों की खिलाफत करता था। आज उनका सिपाही बन गया है। शायद तभी जन दोनों सियानो में कोई भेद नहीं करती।


नेता, अभिनेता और उनकी नौटंकी दिखाने वाली मीडिया सब एक है। अगर ये सच है इस सच का सरोकार आप से है। दिल्ली की मेट्रो हो या मुंबई की लोकल। हम लोग कानों में इयर-फोन लगाकर मास-मीडिया के जरिए मदमस्त रहते हैं। पड़ोस में कोई बुजुर्ग बमुश्किल खड़ा है,तो खड़ा रहें, हमे क्या मतलब। सोशलनेटवर्किंग मीडियम से संसार को साथ लिये चलते है पर परिवार से दूर हो जाते है। कहने का मक्सद सिर्फ इतना है..जैसे लोक होगे वैसा लोकतंत्र और मीडिया भी। सास-बहू और बेटियों की बात से ज्यादा तवज्जो अगर सीरियस खबरों को मिलती तो..आज भी मीडिया मडी नहीं मिशन होता।


गलती हम लोगों की है लेकिन यहां हम लोग का अर्थ किसी टीवी शो की बहस से नहीं उस रुसो के कॉट से है जिसकी हम लोग की आवाज पर फ्रंच रैवूलुशन हो गया और समानता, स्वतत्रंता, बधुंत्व की बात होने लगी। इसलिए फिल्मी कलाकारों या खबरियां अगाकारों पर बहस करने से बेहतर होगा “हम भारत के लोग” अपनी सोच बदलें क्योंकि इस सब्जी मंडी का सरोकार समाज से है आप से है।

बुधवार, अप्रैल 21

हम अपंग हो गये है..अंधे, गूगें और बहरे भी...।

वो किताबो में पढ़ी बहुत पुरानी बात है, कि कैसे जमीदारों का विरोध करने पर बंगाल पुलिस ने 8 महिलाओं और 3 बच्चो को नक्सलवाड़ी में मौत के घाट उतार दिया था। फिर सीएम और केएस ने मिलकर एक पार्टी बनाई..वो भी ठीक उस दिन जब माओत्सेगंतुग का जन्मदिन होता है। चीन के चैयरमैन को अपना कहा..कार्ल के कपाल से विचार लिये, लेनिन से सोच और स्टालिन की तर्ज पर बगांल-बिहार में जमीदारों का सफाई का अभियान शुरु कर डाला। लेकिन सीएम और केएस, जेपी और लोहिया नहीं बन पाये। क्योकि जब जनता आपके साथ हो तो हिंसा के हथियार उठाने की नौबत नहीं आती। भूमि सुधार हुआ या नहीं ये तो विवाद के मुद्दा है पर विचार जरुर बिगड़ गये।

मिशन..मंडी बन गया, जहां बड़े-बड़े सियासी सियानें संसद तक पहुचने के लिये माले के दर पर दस्तक देते है। और लोकतत्रं के गोल मंदिर से उन्हे ही मिटाने की बड़-बोली बातें भी करते हैं, लेकिन उसकी लाल-बत्ती वाली गाड़ियां बस्तर तक पहुंचती नहीं है। शायद दंतेवाड़ा से दिल्ली बहुत दूर है। या फिर दिल में ही दिक्कत है कि अगर अनपढ़ पढ़ गये तो लोक लोकतंत्र के स्वामी बन बैठेंगे। जब प्रजा, जनता में बदल जाएगी तो नागरिकों के आगे नेता बौने साबित होने लगेंगे।

शायद तभी नरेगा निकम्मी साबित होती है, एनएच जगंल तक पहुंचने से पहले खत्म हो जाते है, मानो अटलजी फिर सड़को के रास्ते देश को जोड़ने का भाषण दे रहे हो और कमल की सत्ता ही सड़क पर आ गिरे। सड़क से ख्याल आते है डांडी के गांधी याद आते है, कि कैसे नमक के नाम पर कच्ची सड़क पर चलकर आजादी की राह मिल गई थी। आज तो सड़क बनने से पहले ही टूट जाया करती हैं, चाहें घटिया घोटाले से या नकली बारुद।

एक भोजपुरी गाना है “ जंगल छौड़त नाही” जिसे माओवादी जीते, बोय-बोय की तरह इस्तेमाल करते हैं। हो सकता है कि नक्लसी तत्वों के मानिंद जंगल बच भी रहे हो लेकिन फिर भी वो है तो चंदन के जंगलो के मशहूर डाकू के मार्फत ही। 70 के दशक में भूमि सुधार आंदोलन चला था लोहिया के साथ लोग जुड़े थे, क्योकि जन को खेती की खुराख में ही खुदा दिखते थे। अब तो किसान बच्चे भी अन्न बोने से बेहतर, शहरो के घोंसलो (फ्लैटो) में रहना समझते हैं। सिवाए उसके जो साहुकारों के ज़जीरों से बंधे है और परिवार को उनके पास गिरवी रखकर शहर की बस का टिकट नहीं खरीद सकते। फिर आरक्षण की बाड़ 90 में दिखी। हज़ारो छात्रो से करोड़ो की सरकारी सम्पत्ती को खाख में मिला गिया औऱ कुछ तो उस आग में जलगर खुद ही खाख बन गये। जब कथित रूप से देश को आगे जा रहा था लेकिन साल दर साल कुछ जातियां पिछड़ रही थी। खेर अब तो पेरंटस की भी दिली ख्वाईश होती है, कि उनका होनहार एमएनसी में काम करें सरकारी नौकरी नहीं। आखिर यह कैसा विकास, ये विवाद के सवाल बड़ा लगे पर सवाल इससे कहीं बड़ा सवाल यह है कि जेसिका लाल और नीतिश कटारा के लिये मोमबत्तियां जाने वाली शहरी सियानो को रैड कोरिडोर के लाल-खून क्यो नहीं दिखता। लेकिन जब यूरोप के ज्वालामुखी की तपिश आप अपने पड़ोस के हवाईअड्डे पर महसूस कर सकते है तो नक्सली द्वालानल की आग से कब तब बचेगें आप...। क्यो वो छोटा नागपुर इलाके को अफ्रीका का देश समझकर अपनी दुनिया से दूर कर लेते हैं। चिड़ियां के घोसलों (फ्लैट) में, बुद्धु डिब्बे (कम्प्यूटर) के आगे बैठ हम लोक गूगल से दुनियां तो देख लेते हैं पर पड़ोसी झुग्गी में देखना हमे गवारा नहीं। फिर क्या गलत करते हैं, हमें मूक बनाकर नेता और नक्सली।
(राहुल डबास)