2001 से 2010, बीते दस सोलों में देश कई गुना आगे निकल गया है। बाजार से रोजगार तक, गांव से शहर तक और दलितों से सवर्णो तक ने विकास का स्वाद चखा है। लेकिन हमारी जातियां पिछड़ रहीं है। आजादी के वक्त कुछ कम पिछड़ी थे, 1991 में ज्यादा पिछड गई और अब इनं पिछड़ो की गणना करना चाहती है सरकार। शायद अंग्रेजों के समय से आज तक राज वहीं सकता है जो बाटनें की नीति पर चलता हो, चाहे बात गोरो की हो या नेताओं की। धर्म से जाति तक, शहर से गांव तक, आदमी से औरत तक बटते बटते हम लोग, हम से मैं हो गये है..फिर ये गिनती क्या..?
गिनतियां क्या - क्या गुल खिला सकती हैं , यह पंजाब के मामले में जनगणना के भाषाई पहलुओं की रोशनी में देखा जा सकता है। पंजाबी , जो हिंदुओं और सिखों की समान भाषा थी , तकनीकी रूप से सिर्फ सिखों की भाषा रह गई क्योंकि हिंदुओं ने राजनीतिक प्रभाव में आकर अपनी मातृभाषा हिंदी लिखाना मुनासिब समझा। विख्यात भारतविद् मार्क गैलेंटर का यह कथन एकदम सही है कि जातिगत सेंसस बेरोजगारी , शिक्षा और आर्थिक हैसियत से संबंधित सूचनाओं में भी गड़बड़ी पैदा करता। जो जाति खुद को जितना अशिक्षित , गरीब और बेरोजगार दिखाती , उसे राजनीतिक क्षेत्र में सरकार के संसाधनों पर उतनी ही बड़ी दावेदारी करने का मौका मिलता।
हर दस साल में होने वाली जनगणना के गले में एक बार फिर जाति अटक गई है। जनगणना में जाति को शामिल करने की मांग आज से दस साल पहले यानी 2001 में जनगणना शुरू होने के पहले भी उठी थी , पर तब इस मांग को बिना किसी दुविधा के खारिज कर दिया गया था और उस पर कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी। इस बार मामला कुछ अलग है।
सवाल यह है कि अपनी संख्या कौन जानना चाहता है ? केवल वही जिसे संख्या बल के आधार पर किसी तरह के फायदे की उम्मीद हो। भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को यह अहसास था। इसलिए शुरू से ही उनकी नीति संख्या के महत्व को एक हद से ज्यादा न बढ़ने देने की थी। उन्होंने संख्याओं का इस्तेमाल किया , पर पारंपरिक पहचानों के सेक्युलरीकरण के लिए। 1939 के बाद भारत की जनगणनाओं में जाति का उल्लेख करना बंद कर दिया गया था। आजादी के बाद यह परंपरा बदले हुए परिप्रेक्ष्य में जारी रखी गई। चूंकि संविधान निर्माताओं ने पूर्व - अछूतों और आदिवासियों की विशेष स्थितियों के मद्देनजर उन्हें उनकी जनसंख्या के मुताबिक राजनीतिक आरक्षण देने का फैसला किया था , इसलिए जनगणना में केवल उनकी संख्या का जिक्र किया गया। संविधान पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने के पक्ष में नहीं था। वह उन्हें सिर्फ नौकरियों और स्कूल - कॉलेजों में आरक्षण देना चाहता था। उसके लिए गिनती की बजाय शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाना ही काफी था। इसलिए पिछड़ी जातियों को जनगणना में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई।
आरक्षण , जाति और जनगणना के इस व्यावहारिक त्रिकोण को अपनाने के पीछे जो दूरंदेशी थी , उसकी कामयाबी आज आसानी से देखी जा सकती है। इस सफलता के तीन पहलू हैं : पहला , सरकारी लाभों को बांटने के मकसद से इसके आधार पर जातियों की पारंपरिक पहचान अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सेक्युलर श्रेणियों में बदलने की प्रक्रिया शुरू हुई। दूसरा , पिछड़ी जातियों ने चुनावी राजनीति के माध्यम से अपने संख्या बल को आधार बना कर आरक्षण प्राप्त किए बिना विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया। और , साथ में उन्हें नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण मिल गया। पिछड़ों को आगे बढ़ने के लिए न तब जरूरत थी और न अब अपनी गिनती जानने की जरूरत है। तीसरा , आरक्षण के दायरे में न आने वाली अगड़ी जातियां खुले दायरे में आधुनिक शिक्षा और बाजार के जरिए मिलने वाले अवसरों के माध्यम से सेक्युलरीकरण के दौर से गुजरीं। वे वैसे ही संख्या में बहुत कम हैं। इसलिए उन्हें अपनी संख्या जानने की उत्सुकता बहुत कम होती है।
यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता , तो उसके क्या परिणाम निकलते ? उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिए सामाजिक ऊंच - नीच की भावना में अब तक जो कमी आई है , वह काम नहीं हो पाता। दूसरे , जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते हैं , वह एक मोटी - मोटी अवधारणा ही है। दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है। चुनावी आंकड़े बताते हैं कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है , पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते हैं। इससे असल जमीन पर जातिगत समुदायों का कोई राष्ट्रीय एकीकरण नहीं हो पाता है और उनके सेक्युलरीकरण की व्यापक प्रक्रिया बिना धक्का खाए धीरे - धीरे ही सही , पर चलती रहती है। अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता। तीसरे , गिनती से जुड़े हुए मौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेश तो करते ही , उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करने के लिए उकसाता। आज उनके पास निश्चित संख्याएं नहीं है , इसलिए ऐसी कई मांगों को नजरअंदाज किया जा सकता है। मसलन , महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा शामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंघन करते हुए स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़ जाती। आज के जमाने में जातिगत सेंसस की प्रासंगिकता और भी कमजोर हो गई है। व्यक्तियों और समुदायों का आर्थिक विकास अब सरकारी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा , बल्कि इसमें प्राइवेट सेक्टर और बाजार की भूमिका ज्यादा है। बाजार एक सीमा तक ही अफरमेटिव ऐक्शन को अपना सकता है।
प्राइवेट और पब्लिक से दूर, दर्द तो इस बात का है कि हमारी सरकार ने भी गोरो की चाल अपना ली..बाटों और राज करों। वो भी राजा की तरह नेता की नहीं..। जाति के नाम पर प्यार करने वालो को सूली पर चढ़ा दिया जाता हैं, जनता को जला दिया जाता, जन्म से भेदवाद किया जाता, आरक्षण पर हिंसा होती है, और उसे जायज़ दिखानें के लिये जनगणना..। पर पापा ने तो बचपन में कहा था कि जाति जोड़ने का काम करती है, शायद जन की इस गणना का गणित मेरी समझ में नहीं आया..। पापा की बात ही नहीं...गांधी के हरिजन, टैगोर के आंनद, अम्बेडकर के दलित, मनु के मानव और जाति की जनगणना को भी, मै जानं नहीं पाया..। इंन सबसे बढ़कर हम लोग सोच भी मेरी समझ में नहीं आती, जो खुद को पिछड़ा साबित करने के लिये अगड़े होकर मरने-मारने सदैव तैयार है, मेने दुनियां में ऐसा कभी-कहीं नहीं देखा....आपक पता हो तो कृपया बता दें ….?
गिनतियां क्या - क्या गुल खिला सकती हैं , यह पंजाब के मामले में जनगणना के भाषाई पहलुओं की रोशनी में देखा जा सकता है। पंजाबी , जो हिंदुओं और सिखों की समान भाषा थी , तकनीकी रूप से सिर्फ सिखों की भाषा रह गई क्योंकि हिंदुओं ने राजनीतिक प्रभाव में आकर अपनी मातृभाषा हिंदी लिखाना मुनासिब समझा। विख्यात भारतविद् मार्क गैलेंटर का यह कथन एकदम सही है कि जातिगत सेंसस बेरोजगारी , शिक्षा और आर्थिक हैसियत से संबंधित सूचनाओं में भी गड़बड़ी पैदा करता। जो जाति खुद को जितना अशिक्षित , गरीब और बेरोजगार दिखाती , उसे राजनीतिक क्षेत्र में सरकार के संसाधनों पर उतनी ही बड़ी दावेदारी करने का मौका मिलता।
हर दस साल में होने वाली जनगणना के गले में एक बार फिर जाति अटक गई है। जनगणना में जाति को शामिल करने की मांग आज से दस साल पहले यानी 2001 में जनगणना शुरू होने के पहले भी उठी थी , पर तब इस मांग को बिना किसी दुविधा के खारिज कर दिया गया था और उस पर कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी। इस बार मामला कुछ अलग है।
सवाल यह है कि अपनी संख्या कौन जानना चाहता है ? केवल वही जिसे संख्या बल के आधार पर किसी तरह के फायदे की उम्मीद हो। भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को यह अहसास था। इसलिए शुरू से ही उनकी नीति संख्या के महत्व को एक हद से ज्यादा न बढ़ने देने की थी। उन्होंने संख्याओं का इस्तेमाल किया , पर पारंपरिक पहचानों के सेक्युलरीकरण के लिए। 1939 के बाद भारत की जनगणनाओं में जाति का उल्लेख करना बंद कर दिया गया था। आजादी के बाद यह परंपरा बदले हुए परिप्रेक्ष्य में जारी रखी गई। चूंकि संविधान निर्माताओं ने पूर्व - अछूतों और आदिवासियों की विशेष स्थितियों के मद्देनजर उन्हें उनकी जनसंख्या के मुताबिक राजनीतिक आरक्षण देने का फैसला किया था , इसलिए जनगणना में केवल उनकी संख्या का जिक्र किया गया। संविधान पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने के पक्ष में नहीं था। वह उन्हें सिर्फ नौकरियों और स्कूल - कॉलेजों में आरक्षण देना चाहता था। उसके लिए गिनती की बजाय शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाना ही काफी था। इसलिए पिछड़ी जातियों को जनगणना में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई।
आरक्षण , जाति और जनगणना के इस व्यावहारिक त्रिकोण को अपनाने के पीछे जो दूरंदेशी थी , उसकी कामयाबी आज आसानी से देखी जा सकती है। इस सफलता के तीन पहलू हैं : पहला , सरकारी लाभों को बांटने के मकसद से इसके आधार पर जातियों की पारंपरिक पहचान अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सेक्युलर श्रेणियों में बदलने की प्रक्रिया शुरू हुई। दूसरा , पिछड़ी जातियों ने चुनावी राजनीति के माध्यम से अपने संख्या बल को आधार बना कर आरक्षण प्राप्त किए बिना विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया। और , साथ में उन्हें नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण मिल गया। पिछड़ों को आगे बढ़ने के लिए न तब जरूरत थी और न अब अपनी गिनती जानने की जरूरत है। तीसरा , आरक्षण के दायरे में न आने वाली अगड़ी जातियां खुले दायरे में आधुनिक शिक्षा और बाजार के जरिए मिलने वाले अवसरों के माध्यम से सेक्युलरीकरण के दौर से गुजरीं। वे वैसे ही संख्या में बहुत कम हैं। इसलिए उन्हें अपनी संख्या जानने की उत्सुकता बहुत कम होती है।
यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता , तो उसके क्या परिणाम निकलते ? उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिए सामाजिक ऊंच - नीच की भावना में अब तक जो कमी आई है , वह काम नहीं हो पाता। दूसरे , जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते हैं , वह एक मोटी - मोटी अवधारणा ही है। दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है। चुनावी आंकड़े बताते हैं कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है , पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते हैं। इससे असल जमीन पर जातिगत समुदायों का कोई राष्ट्रीय एकीकरण नहीं हो पाता है और उनके सेक्युलरीकरण की व्यापक प्रक्रिया बिना धक्का खाए धीरे - धीरे ही सही , पर चलती रहती है। अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता। तीसरे , गिनती से जुड़े हुए मौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेश तो करते ही , उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करने के लिए उकसाता। आज उनके पास निश्चित संख्याएं नहीं है , इसलिए ऐसी कई मांगों को नजरअंदाज किया जा सकता है। मसलन , महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा शामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंघन करते हुए स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़ जाती। आज के जमाने में जातिगत सेंसस की प्रासंगिकता और भी कमजोर हो गई है। व्यक्तियों और समुदायों का आर्थिक विकास अब सरकारी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा , बल्कि इसमें प्राइवेट सेक्टर और बाजार की भूमिका ज्यादा है। बाजार एक सीमा तक ही अफरमेटिव ऐक्शन को अपना सकता है।
प्राइवेट और पब्लिक से दूर, दर्द तो इस बात का है कि हमारी सरकार ने भी गोरो की चाल अपना ली..बाटों और राज करों। वो भी राजा की तरह नेता की नहीं..। जाति के नाम पर प्यार करने वालो को सूली पर चढ़ा दिया जाता हैं, जनता को जला दिया जाता, जन्म से भेदवाद किया जाता, आरक्षण पर हिंसा होती है, और उसे जायज़ दिखानें के लिये जनगणना..। पर पापा ने तो बचपन में कहा था कि जाति जोड़ने का काम करती है, शायद जन की इस गणना का गणित मेरी समझ में नहीं आया..। पापा की बात ही नहीं...गांधी के हरिजन, टैगोर के आंनद, अम्बेडकर के दलित, मनु के मानव और जाति की जनगणना को भी, मै जानं नहीं पाया..। इंन सबसे बढ़कर हम लोग सोच भी मेरी समझ में नहीं आती, जो खुद को पिछड़ा साबित करने के लिये अगड़े होकर मरने-मारने सदैव तैयार है, मेने दुनियां में ऐसा कभी-कहीं नहीं देखा....आपक पता हो तो कृपया बता दें ….?
2 टिप्पणियां:
shayad aj jati shabd hi bharat ki sabse badi problam ban gae h is jati nam ne hatya krai to ak taraf jati ke nam pr hi vote dilwae ,jati ke nam pr arakchad bhi milne laga y jati dhere dhere desh ko apne hath m itna daboch cuki h ki ishse bahar nikalna shayad mushkil h.socha jyata tha ki shahro m ab jatiwad nahe calta y sirf gao tak hi simit h pr aj ye galat ho raha h shahro m bhi jati ke nam pr aae din koi na koi iski bali cadta hi rahta h
jaati shabad kisne banaya hai......... hum-tum jaise samaj ke logon ne aur jab baat aati hai apne fayade ki to rajnetayo ko jaati shabad dhyan aa jata hai........bhale hi vo us pichdi hui jaati ke haath ka pani pina na pasand karte ho par jab vote leni hoti hai to Little Gandhi yaani aapke Rahul Ji nikal padte hai jhuggi -jhopdi ka daura karne , phir cahaye unhe garib ki kutiya me raat hi bitani kyn na pade par vote ke liye sab chalega......to kya aap ye dikhakar jaatiyo ka majak nahi bana rahe hai......Sarkar ne apne aadhe se jada log jangannna me utar rakhe hai.phir bhale hi sarkari school ke teachers ko school ko chodhkar aana pade par jangana sarkaar ke liye jaruri ho jaati hai.......phir bhale hi hamare desh ke bhavishya yaani bacche schoolo me bina sishako ke padhe par sarkaar ke liye jaati aur janganna mahatev rakhti hai........ye hai bharat hi rajneeti aur ye hai hamara bharat ki govt ka kaam karne ka tarika.....kya hame ispar garv karna chayia.
एक टिप्पणी भेजें