पहली नजर में कैराना के चुनाव को एक छोटा उपचुनाव माना जा सकता है, क्योंकि हुकुम सिंह की विरासत इतनी बड़ी नहीं थी जितनी गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ या उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य की फूलपुर में..। कैराना उपचुनाव को इसलिए भी छोटा माना जा सकता है, क्योंकि इस चुनाव से जीते सांसद 10 महीने से ज्यादा लोकसभा में बैठ नहीं पाएंगी, तो प्रश्नकाल में तबस्सुम हसन गन्ना के कितने सवाल पूछ पाएंगी और शून्यकाल में किसानों को लेकर कितनी बहस कर पाएगी।
कैराना के चुनाव को छोटा मान लेना सतही ही है, कैराना उस मुजफ्फरनगर के पड़ोस में बसा है जहां 2013 में दंगे हुए, जाट और मुसलमान एक दूसरे के सामने खड़े थे। कैराना वह शहरी कस्बा है, जहां 2015 में पलायन गूंजा था, और हिंदू मुस्लिम की राजनीति गरमा गई थी। फिर भी जिस चुनाव में जिन्ना नहीं गन्ना चल जाता है, फिर भी जिस चुनाव में BJP करीब 45 हज़ार मतों से हार जाती है, जबकि पांच में से चार विधायक बीजेपी के है और 4 साल पहले BJP के उम्मीदवार को 50% से ज्यादा वोट तथा ढाई लाख से बड़ी जीत हासिल हुई।
तो आखिर अंगराज कर्ण के नाम पर बसे कैराना की सियासी जमीन इतनी बदल कैसे गए ? क्या सिर्फ महागठबंधन इसकी सबसे बड़ी वजह है ? या फिर चौधरी चरण सिंह की वह विरासत जिसमें जाट और मुसलमान एक साथ नजर आते थे, आज फिर से नजर आने लगे है। या यूं कहा जाए कि जिस तरह यादव-मुसलमान वोट बैंक के रूप में जीत का समीकरण बनाते थे, आज जाट और मुसलमान बनाने लगे या फिर जाटलैंड से दशकों पहले उठी अजगर की उद्घोष से इसे जुड़ा जाए, जिसमें अहीर, जाट, राजपूत और गुर्जर मिलकर ऐसा शत्रिय समीकरण बनाते थे, जो कांग्रेस को उस दौर में धूल चटा सकता था।
यह तो हुए सिद्धांतिक मुद्दे, पर चुनाव सिद्धांतों की विचारधारा से नहीं जमीन पर वोटों से जीता जाता है। जिसमें अनेक मुद्दे हार और जीत का अंतर करते हैं। योगी सरकार की सबसे बड़ी शक्ति, कानून व्यवस्था और एनकाउंटर है। इसी छवि के सहारे योगी प्रदेश में वोट पाना चाहते हैं, लेकिन एनकाउंटर बाहुबलियों का होता है, कानून व्यवस्था दबंग के खिलाफ काम करती है और दबंग हर जगह लाल टोपी धारी हो यह जरूरी नहीं..क्योंकि कैराना शामली ऐसे गांव से पटा हुआ है, जहां जाट समुदाय के युवा खुद को यूपी पुलिस से पीड़ित पाती है। जब बात पीड़ित और पीड़ा की चल ही पड़ी है, तो कैराना से सहारनपुर भी ज्यादा दूर नहीं है। लिहाजा जाटव और बहुलता में दलित समाज भी खुद को इस पीड़ा में शामिल और मौजूदा राज्य सरकार की नीतियों के विपरीत दिखता है।
बुद्धिजीवी मान सकते हैं कि जब मुस्लिम जाटव और जाट एक मंच पर आ जाए तो जीत का जादुई आंकड़ा पाना सरल है। लेकिन कैराना के कण-कण में अनेक मुद्दे हैं। जिसमें गन्ना भी महत्वपूर्ण है, इसलिए भी क्योंकि खुद गन्ना मंत्री सुरेश राणा कैराना की ही एक विधान सभा थानाभवन से जीतकर आते हैं। थानाभवन जहां सुरेश राणा के समजातीय राजपूत समाज का वोट 20 हज़ार से भी कम है, यानी गन्ना किसान जो जाट ही नहीं सभी जातियों में है, उनके वोट से सुरेश राणा मंत्री बनते हैं। हर मंच से सुरेश राणा ही नहीं CM और PM भी यह बताने से बाज नहीं आती कि, सभी किसानों के गन्ने का भुगतान हो गया जबकि जमीनी हकीकत इससे इतर नजर आती है।
जब बात जाति की चल पड़ी है तो यह जानना भी जरूरी है कि दोनों उम्मीदवारों की जाति एक ही है। एक हिंदू गुर्जर, दूसरे मुस्लिम गुर्जर.. हालांकि बीजेपी यह दिखाने की कोशिश जरूर करती है कि, बड़ी संख्या में मुस्लिम गुर्जर का वोट उन्हें मिला क्योंकि, तबस्सुम हसन के परिवार की छवि दबंग की है और दबंग से डरा जाता है, उनका साथ नहीं दिया जाता।
जब गुर्जर दोनों उम्मीदवारों की जाति में शरीक हैं ,तो यह कैसे मान लिया जाए कि जाट वोट सिर्फ चरण सिंह के नाम पर जयंत चौधरी की मेहनत से अजीत सिंह की पार्टी को ही मिला होगा। जबकि बीजेपी के पास मौजूदा मंत्री सत्यपाल सिंह से लेकर पूर्व मंत्री संजीव बालियान सरीखे के जाट चेहरे मौजूद हैं। अब यह बात भी किसी से छिपी नहीं कि डॉक्टर सत्यपाल सिंह ने कैराना क्षेत्र चुनाव में बहुत ज्यादा सभाएं की नहीं क्योंकि क्षेत्रीय समीकरण की माने तो जाट जाति के वोट पर संजीव बालियान और सत्यपाल सिंह दोनों अस्तित्व की लड़ाई करते है। तो क्या यह भी संभव है कि शामली जो बागपत और मुजफ्फरनगर के बीच में है और वहीं के दो सांसद सत्यपाल सिंह और संजीव बालियान अपनी निजी वरीयता के आधार पर जाट समुदाय को एक साथ कमल के पक्ष में ला नहीं पाए..।
BJP के कुछ समर्थक तो उपचुनाव की हार में भी जीत खोज लेते हैं। मानो ईवीएम और वीवीपैट का जवाब उपचुनाव की हार से मिल गया हो, जिससे 2019 की डगर आसान हो जाएगी, लेकिन कैराना और नूरपुर उपचुनाव में ही ईवीएम और वीवीपैट को लेकर सबसे ज्यादा सवाल खड़े हुए। जब निर्वाचन आयोग के अधिकारी खुद कहते हैं कि ईवीएम को गर्मी लग गई और मौसम की तपिश ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को ठंडा कर दिया। इसपर सियासी उबाल जरूर आ गया, जब दिल्ली में महागठबंधन के नेता एक समुदाय विशेष के क्षेत्र ईवीएम खराब होने की शिकायत लेकर पहुंचे और चुनाव आयोग ने भी बड़ी संख्या में बूथों पर पुनः निर्वाचन का आदेश सुना दिया । हालांकि दबी जुबान में कुछ अधिकारियों ने यह माना ईवीएम तो सुबह से खराब थी और सवेरे का तापमान 45 के पार माना नहीं जा सकता। लिहाजा ईवीएम और वीवीपैट के तालमेल में भी गड़बड़ी रही होगी। सवाल तो यह भी खड़ा होता है कि, जब डमी वोट मतदान से एक घंटा पहले डाला जाता है और तब ही स्थानीय प्रशासन को ईवीएम की खामियों के बारे में पता चल गया था, तो सुबह 6:00 बजे से लेकर ईवीएम ठीक करने की क्या पूरी कोशिश की गई? हालांकि लोगों की माने तो सिर्फ एक समुदाय, वर्ग या धर्म विशेष के इलाके में ही नहीं बल्कि शामली, कैराना, थाना भवन और पांचों विधानसभा सीटों के बहुत से बूथों पर ईवीएम खराब होने की शिकायत मिली थी
शिकायत कर्ताओं ने यह भी कहा कि रमजान के रोजे की वजह से मुस्लिम समुदाय गर्मी के बीच भूखा-प्यासा रहकर दोबारा मतदान के लिए आएगा नहीं और ईवीएम खराब होने की स्थिति में ठीक होने के बाद भी वोटिंग परसेंटेज में गिरावट आएगी। फिर भी वोटिंग परसेंटेज संतोषजनक रही, आखिर आम चुनाव से अलग मतदान के लिए वक्त 10 नहीं बल्कि 11 घंटे का दिया गया था।
मतदाताओं की स्थितियां भी देखने वाली थी। जहां कुछ बुजुर्ग अपने बेटे और और पोतों के साथ या यूं कहें उनके सहारे वोट डालने आए। वही ऐसे नजरों की भी कमी नहीं थी जहां ट्रैक्टर-ट्रॉलियों में बुजुर्गों को भरकर वोट डालने के लिए मतदान केंद्रों पर कुछ यूं लाया गया कि मानो, मतदान की मंडी में गिनती बढ़ाने की कोशिश हो..।
भूरा गांव में कई राउंड गोलियां भी चलती है, लाठी चार्ज भी होता है और जाली मतदान से लेकर ईवीएम टेंपरिंग के आरोप पूरे संसदीय क्षेत्र में लगाए जाते हैं। ऐसे में हमारी बात एक CRPF अधिकारी से हुई जो दबी जुबान में यह बोल गए कि, जब ईवीएम टेंपर होती है, तो वोट डालने के बाद बीप की आवाज में कुछ अंतराल आ जाता है। हालांकि बिना पुख्ता सबूतों की यह आरोप विपक्षी पार्टियों के चुनावी भाषण सरीके के नजर आते हैं। हालांकि इन चुनावों में स्थानीय प्रशासन का राजनीतिक उपयोग उस तरीके का नजर नहीं आया जैसा पूर्व की सपा सरकार में देखने को मिलता था या आरोप लगाया जाता था। हो सकता है कि, योगी भी मायावती की तर्ज पर अधिकारियों को इतनी अधिकार दे बैठे हैं उन्हीं के जनप्रतिनिधि प्रशासन के प्रतिनिधियों पर बात ना सुनने का आरोप लगातार लगाते हुए नजर आते हैं।
फिर भी कैराना के नतीजे अपने आप में कई संकेत देकर गए कि, फूलपुर और गोरखपुर से उलट अगर मतदान प्रतिशत फर्स्ट डिवीजन के आसपास पहुंच जाए तो भी कमल खिलने से रुक सकता है। दंगों के दर्द को भुलाकर धुरविरोधी एक साथ आए तो पासा पलट सकता है और किसान चाहे जितनी जातियों में बटा हो पर जब वह गन्ने के नाम पर एक साथ आ जाए तो नतीजे उलट सकते हैं। फिर भी यह मान लेना बहुत जल्दबाजी होगी कि यूपी के पहले उप चुनाव की तर्ज पर कैराना BJP की दशा और महागठबंधन की दिशा दिखाता है, क्योंकि कैराना कण कण के मुद्दों से जीता और हारा गया है, इसकी गोरखपुर की पीठ से तुलना नहीं की जा सकती। फिर भी जीत जोड़ देती है महागठबंधन को और हार तोड़ देती है BJP के मनोबल को लिहाजा केराना के कण-कण को समझना जरूरी है..
4 टिप्पणियां:
बहुत खूब
बहुत शानदार विश्लेषण।
बहुत-बहुत धन्यवाद भाई
आपने ब्लॉग पर ही सही निष्पक्षता के साथ अपना विश्लेषण पेश किया जिसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
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