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सोमवार, जून 18

इंसान: इतिहान बनेगा या इतिहास बनाएगा!

हमारी पीढ़ी पर दो साइंस फिक्शन फिल्म या यूं कहा जाए 2 साइंस फिक्शन की धाराओं का बुनियादी असर पड़ा। यहां पीढ़ी का अर्थ है, जिनका बचपन 90 के दशक में गुजरा हो, वह दशक जब भारत में अर्थव्यवस्था के खिड़की और बाजार के दरवाजे विश्व के लिए खोल दिए थे। वह दशक जब सब कुछ नया नजर आ रहा था, उस दशक में दो फिल्मों की सीरीज की खासी अहमियत रहती थी।  जिसके सीक्वल आज भी बच्चों और युवाओं को नए अंदाज में नई दुनिया के दर्शन कराते हैं "टर्मिनेटर और जुरासिक पार्क"।

यह सिर्फ दो फिल्में ही नहीं भविष्य की दो धाराएं भी हैं। जो वर्तमान को डराते रहते हैं, एक है एआई की तकनीक, दूसरी है पुरातन का नूतन रूप।  एक में वो इतिहास दिखाया जो वर्तमान में डायनासोर के रूप में खड़ा हो जाता है, जो जेनेटिक और DNA के प्रयोग से ऐसे जुरासिक काल के मांसाहारी प्राणी के रुप में सिल्वर स्क्रीन पर ऐसे नजर आए मानो, उनमें मानव की बुद्धि हो, दानव की ताकत और देवताओं की अलौकिक कला..।

वही भविष्य को वर्तमान में दिखाने की कोशिश टर्मिनेटर ने दिखाई कि कैसे एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इंसान के चेतन मस्तिष्क को आदिमानव से बौना समझता है और जानता है कि भविष्य मानव नहीं मशीन तय करेंगी।

ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ सिल्वर स्क्रीन की तकनीकी कल्पना हो, बल्कि इसका सरोकार ऐसे भविष्य से है। जो जितना ललचाता है, उतना ही डर आता भी है। DNA को समझे बमुश्किल तीन-चार दशकों का दौर गुजरा है और अभी से हम DNA के जरिए कैंसर जैसी बीमारी के इलाज की वास्तविक कोशिश करने लगे हैं। वैज्ञानिकों की माने तो आने वाले चंद दशकों के अंदर हम अपने बच्चों के भविष्य को गर्भ में ही तय कर पाएंगे। DNA के जरिए हम यह पहली ही तय कर लेंगे कि उससे बुद्धि ज्यादा देनी है या बल। आज भी लाइफ-कार्ड के जरिए स्टेम सेल्स को संरक्षित करना आम हो चुका है। जिसके जरिए DNA की जैविक ताकत का प्रयोग किया जा सकता है।

अभी तकनीक हड्डियों से डायनासोर के DNA को जिंदा करने की ताकत नहीं रखती। फिर भी विज्ञान के शुरुआती दौर में छोटा ही सही पहला कदम हमने रख लिया है। कई सरकारें आज भी इससे डरी हुई है, तभी ज्यादातर उन्नत जैविक और डीएनए के प्रयोग इंटरनेशनल वाटर में किए जाते हैं, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समुंद्र वह क्षेत्र है जहां किसी देश के राष्ट्रीय कानून नहीं चलता हैं। वैज्ञानिकों का एक वर्ग डायनासोर जैसी प्रजाति तो नहीं, लेकिन इंसान के शरीर को DNA के जरिए विकसित करना चाहता है।  जिससे एड्स और कैंसर का इलाज ही नहीं बल्कि महामानव का जन्म हो, जबकि वैज्ञानिकों का दूसरा वर्ग इतना डरा हुआ है, कि उन्हें लगता है कि बतौर ह्यूमन सेपियन यह सदी हमारी आखरी सदी होगी। इसके बाद ऐसे महामानव का विकास DNA के जरिए होगा जिसे प्राकृतिक रूप से विकसित होने में लाखों साल लग जाते।

ऐसे विकास से डरना लाजमी है, क्योंकि तब इंसान आज से कहीं अधिक शक्तिशाली होगा और आज का मानव भी प्रकृति और पृथ्वी ही नहीं खुद न्युक्लियर पावर की वजह से अपनी अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा। हमारी सदी के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में से एक स्टीफन हॉकिंग्स में कुछ ही सालों पहले भविष्यवाणी की थी कि, मानव अस्तित्व को सबसे बड़ा खतरा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के भविष्य से है।

अब बात करते हैं टर्मिनेटर की बुनियादी सोच की, जिसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अहम किरदार अदा करती है। आपको लगता होगा कि टर्मिनेटर के रोबोट ह्यूमन बॉडी आर्नोल्ड जैसा विकास हमें दूर तक नहीं दिखता, लेकिन जो आज हो रहा है वह भी किसी करिश्मा से कम नहीं है। इसकी बुनियाद हमें 1955-56 तक ले जाती है, जब अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस शब्द को पहली बार एक सेमिनार में प्रयोग किया था । जिसके बाद 80 के दशक तक जापान, ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन ने भी ऐआई को आगे बढ़ाने के लिए सरकारी नीतियों के तहत प्रयास शुरू कर दिए। यहां तक की 2017 में  भारत की नीति आयोग ने भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को बढ़ावा देने के लिए नीति बनाने की शुरुवात की है, हालांकि हम सॉफ्टवेयर सुपर पावर बनने के बावजूद दुनिया से काफी पिछड़े हुए हैं।

मौजूदा दौर में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आपको हर जगह नजर आती है। भले ही उसकी शक्ल और शक्तियां ट्रांसफार्मर से अलग हो, पर वह है जरूर। एक दशक पहले जब iPhone ने सीरी का प्रयोग किया तो हमें वह एक खिलौना लगती थी, एक ऐसा खिलौना जो हमारे सवालों के जवाब देने की कोशिश करती है, पर धीरे-धीरे उसमे में मानवीय पहलू नजर आने लगे और अब तो Google ने Android के जरिए गूगल असिस्टेंट का बेहतर एआई वर्जन भी बाजार में उतार दिया है। कभी सोचा है कि आपका Facebook सजस्टिस फ्रेंड्स कैसे ढूंढता है उसके पीछे भी एआई है और जब आप गुगल मैप पर होम लिखते है तो वो आपको आपके घर का रास्ता बिना पता लिखे दिखाना है, क्योकि एआई जानता है की आप दफ्तर से रोज़ शाम कहां जाते है, उसी रास्ते को वो घर का पता मान लेता है।

कौन सोच सकता था, वह देश जहां लोकतंत्र नहीं राजशाही हो, यहां के कानून को सभ्य समाज मध्यकालीन परंपराओं से जोड़ता हो,  ऐसे सऊदी अरब में दुनिया की पहली रोबोट सोफिया बन जाएगी, जिसे सऊदी की नागरिकता मिल जाए। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हर जगह है, आप के फोन से लेकर आधार कार्ड तक। जिसमें चीन सबसे व्यापक प्रयोग करता हुआ नजर आ रहा है। जहां सीसीटीवी से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को कुछ इस कदर जोड़ा गया है, जो लाखों करोड़ों कैमरों से अपने नागरिकों पर पैनी निगाह रखता है और किसी को भी उसके फेशियल रेकोनिजेशन से पहचान सकता है और अब तो चीनी तकनीक का निर्यात भी शुरू हो गया है। यानी दुनिया का सबसे शक्तिशाली तानाशाही मुल्क चीन अपने नागरिकों पर अनदेखे जाल से नजर रखता है। यहां तक की चीन में लोग अगर अपने फ़ोन या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की चैट में रिपब्लिक, रेड आर्मी, माओ जैसे शब्द लिखते हैं तो वो अपने आप रिकॉर्डिंग मोड पर चली जाती है।

एआई हर जगह है, जहां आप सोच भी नहीं सकते वहां भी। चीन के बाद अमेरिका की बात करें, तो वह भी अपनी हेल्थ पॉलिसी को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जोड़ रहा है। यानी अगर आप बियर बार में ज्यादा वक्त गुजारते हैं तो, आपकी हेल्थ इंश्योरेंस महंगी हो जाएगी, क्योंकि आपके फोन की जीपीएस लोकेशन यह बता देगी कि आप धूम्रपान या मद्यपान ज्यादा करते हैं। वहीं युरोप के कुछ देशों में अगर अपना फिटनेस बैंड पहनकर आप 8 हज़ार कदम से कम एक दिन में चलते हैं तो डब्ल्यूएचओ के निर्देशानुसार उसे बीमारी को न्योता माना जाएगा, जिससे हेल्थ इंश्योरेंस और महंगी हो जाएगी। यानी हर जगह, आपकी हर हरकत कोई देख रहा है और वह एक इंसान की नहीं बल्कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की है।

यह पूरा लेख भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिए लिखा गया है। जिसमें वॉइस टाइपिंग कमांड का इस्तेमाल किया गया है। जो आपकी भाषा के साथ शैली को जोड़कर शब्द के उच्चारण के आधार पर उसे लिखता है। जैसे अंग्रेजी भाषा के लिए अमेरिका, ब्रिटेन, युरोप, भारत, ऑस्ट्रेलिया जैसे अलग-अलग देशों और महाद्वीपों की उच्चारण शैली को अलग-अलग रखा जाता है। ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने 700 टेराबाइट जितनी सूचना संग्रह सिर्फ 1 ग्राम DNA में हासिल कर लिया है।

ऐसी में सवाल उठता है कि हमें डरना किससे चाहिए DNA या एआई क्योंकि जहां डीएनए ह्यूमंस सेपियन के तौर पर हमारे विकास की विरासत को बदलने में लगे हैं। वही आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वीक एआई, से स्ट्रांग एआई और स्ट्रांग एआई से सिंगुलैरिटी में तब्दील होने की फिराक में है। जिसके बाद आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को माननीय दखल की जरूरत नहीं पड़ेगी,  उदाहरण के तौर पर एक  ऐसा ड्रोन को खुद बमबारी करेगा,  बिन किसी आदेश के। एआई खुद फैसला लेगी और तय करेगी कि इस दुनिया को किस ढांचे में ढालना है।

तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए की टर्मिनेटर में दिखाया गया कयामत का दिन तय है, बस तारीख का ऐलान बाकी है और जुरासिक वर्ल्ड की तरह कोई नई स्पीशीज मौजूदा इंसान की जगह ले लेगी भले ही वह डायनोसोर नहीं भविष्य का महामानव हो जिसे DNA तकनीकी मदद से मुमकिन किया जाएगा।

आपको लग सकता है कि यह डर दिखावटी है, पर जो सच हो चुका वह दिखाने के लिए काफी है कि दुनिया बदल रही है। ऐसे में याद आता है डार्विन का वह सिद्धांत कि, सिर्फ एक चीज ऐसी है जो रुक नहीं सकते वह है बदलाव। बदलाव होता रहा है, होता रहेगा और जो नहीं बदल पाएगा वह इतिहास बन जाएगा। अब यह मौजूदा मनुष्य के हाथ में है कि वह इतिहास बनेंगे या इतिहास बनाएंगे।

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