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सोमवार, जून 25

काल के जाल में कश्मीर


कश्मीर समस्या क्या है?  इसका उत्तर आपकी सोच पर निर्भर करता है। अगर आपका चश्मा भगवा रंग में रंगा है, तो आपको नजर आएगा नेहरू का दौर, कि कैसे ताकतवर देश होने के बावजूद भारत 1948 में संघर्ष विराम करवाने के लिए संयुक्त राष्ट्र की दहलीज पर जा पहुंचा था? आपको राजा हरि सिंह और कांग्रेस नेतृत्व की साझा उपज धारा 370 भी दिखाई देगी, इसी धारा के तहत इस राज्य को मिले कुछ विशेष प्रावधानों के तहत अगर कोई कश्मीरी लड़की भारत के किसी भी राज्य के लड़के से शादी करती है तो कश्मीर से उसकी संपत्ति का हक समेत कई दूसरे नागरिक अधिकार समाप्त हो जाएंगे, लेकिन वही लड़की पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में शादी करती है तो कश्मीर में उसके सभी अधिकार पहले जैसे ही बने रहेंगे। हालांकि तब से अभी तक धारा 370 में कई संशोधन भी हुए हैं, जैसे कभी कश्मीर में प्रधानमंत्री का पद बदल कर  मुख्यमंत्री में तब्दील हो गया, राष्ट्रपति शासन न सही राज्यपाल शासन तो लगाया ही जा सकता है और कश्मीर के  इतिहास में 8 बार लगाया भी जा चुका है, मौजूदा वक्त भी राज्य में राज्यपाल शासन ही चल रहा है। आपको वो दौर भी नजर आएगा जब 65 की जंग में भारत लाहौर तक पाकिस्तानी फौज को खदेड़ चुका था और जाट रेजिमेंट ने हाजीपीर भी जीत लिया था, इस जीत के चंद दिनों के भीतर हम पूरा कश्मीर भी वापस ले सकते थे, न जाने किस दबाव में ताशकंद का समझौता हुआ और हमने सेना को सीमा पार करने जैसा सख्त और सटीक आदेश देने वाले लालबहादुर शास्त्री को गवां दिया। आपको शिमला समझौता भी नजर आएगा कि, कैसे पाकिस्तान के दो टुकड़े करने वाली इंदिरा गांधी भी कश्मीर की समस्या का हल नहीं तलाश सकीं? इसी बहाने पी.वी नरसिम्हा राव का वह दौर भी याद कर लीजिएगा जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के घाटी छोड़ने के नारे लगे थे, उस वक्त आतंकी सरेआम ‘कश्मीरी पंडित चाहिए लेकिन औरतों के साथ, आदमियों के बिना’ के इश्तहार बांटते घूम रहे थे और तत्कालीन कांग्रेसी सरकार सिर्फ गूंगी-बहरी ही नहीं अंधी भी बनी हुई थी।

अब कश्मीर को सियासी चश्में के एक दूसरे लेंस से देखते हैं। अगर आप कांग्रेसी नजरिए से इत्तफाक रखते हैं तो आपको इसका दूसरा पक्ष भी साफ-साफ नजर आता है। जैसे ‘जहां हुए शहीद मुखर्जी-वह कश्मीर हमारा है’ का नारा लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी जब पहले-पहल सत्ता में आई, तो खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बस में बैठ कर दोस्ती का हाथ बढ़ाने लाहौर जा पहुंचे थे। समझौता एक्सप्रेस भी चलाई गई, हुर्रियत को दिल्ली से बात-चीत का न्योता भी मिला, लेकिन इन तमाम खुशगवार कोशिशों के बदले पाकिस्तान ने कारगिल के जरिए हमारी पीठ पर छुरा ही भोंका। इसी कारगिल युद्ध के सेनापति जनरल परवेज मुशर्रफ जब राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ बने तो हमारी ‘अटल’  वाजपेई सरकार ने उन्हे प्रेमपूर्वक आगरा का ताजमहल दिखाया, दिल्ली की बिरयानी खिलाई और समझौते की तैयारी भी की। कहा जाता है कि अगर तत्कालीन सूचना-प्रसारण और मौजूदा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उस वक्त बयान नहीं दिया होता, तो शायद मुशर्रफ और वाजपेई कश्मीर पर तैयार किए गए उस ऐतिहासिक समझौते पर दस्तखत भी कर देते। तमाम घटनाक्रमों पर नजर दौड़ाएं तो मौजूदा मोदी सरकार भी वाजपेई सरकार से कम नहीं रही। शपथ समारोह से लेकर नवाज शरीफ के परिवार की शादी तक मोदी और नवाज साथ-साथ दिखे। पठानकोट एयरबेस में हमला करने वाले आतंकवादियों की शरणस्थली पाकिस्तान के अधिकारी ‘कथित रूप से आईएसआई अधिकारी’  पठानकोट पहुंचकर हमले की जांच भी करते हैं , लेकिन 56 इंच वाली सरकार खामोश रहती है। प्रधानमंत्री खुद कहते हैं कि उत्तर और दक्षिण ध्रुव के संगम से विकास होगा और बेमेल होने के कटाक्षों के बीच भी BJP- PDP के साथ सरकार बना लेती है। सरकार गठन के बाद से प्रधानमंत्री 10 दफे कश्मीर जाते हैं, जवानों से मुलाकात कर दीवाली मनाते हैं, लेकिन वो मुखर्जी और 370 धारा दोनों को भूल जाते हैं, लेकिन अचानक चुनाव से 1 साल पहले गठबंधन धर्म पर चलने वाली पार्टी को राजधर्म याद आता है और वो राष्ट्रधर्म की दुहाई देते हुए रास्ते अलग कर लेती है।

जम्मू कश्मीर को समझना हो तो करीब से समझना होगा। टीवी चैनलों की बहसों में कश्मीर की समस्या तो नजर आ सकती है लेकिन कश्मीरी सरोकार नहीं, क्योंकि जब भी जम्मू-कश्मीर की बात होती है, तो घाटी के प्रतिनिधि को ही बिठाया जाता है। क्या कभी किसी टीवी डिबेट में जम्मू कश्मीर पर चर्चा के दौरान आपने जम्मू या लेह के किसी प्रतिनिधि को बहस करते देखा है ? दरअसल टीआरपी भी राष्ट्रवाद का लबादा ओढ़े घाटी के कट्टरपंथियों से ही मिलती है। ऐसा भी नहीं है कि हिंदू, सिख और बौद्ध बहुल क्षेत्रों को छोड़ पूरा राज्य मानसिक तौर पर भारत से खफा है। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि आप रात 1 बजे भी कारगिल जिला मुख्यालय जाओगे तो आपको डर नहीं लगेगा, जबकि कारगिल में 90 फीसदी आबादी मुस्लिम है। द्रास में तो होटल की रसोई में जाकर मेरी प्रोफेसर मित्र ने कश्मीरी खाना बनाना सीखा, पर अंतर तब आता है जब भारत-पाकिस्तान और चीन की सीमा से लगा जोजिला दर्रा पार किया जाता है। सोनमर्ग पहुंचते ही नजारे और मिजाज दोनों ही बदल जाते हैं। जोजिला के उस पार के सूखे-मुरझाए से पहाड़ दिलकश हरियाली में तब्दील हो जाते हैं। अचानक से चिनार, देवदार के दरख्त, खुली-फैली खूबसूरत घाटियां, हाथों में संगीने लिए सुरक्षा बलों के जवान नजर आने लगते हैं और इसी के साथ ही हाथों में पत्थर लिए और इंडिया गो बैक के नारे लगाते युवा भी।

घाटी में पहुंचकर घाटी के हालातों को भी करीब से देखना जरूरी है। वहां के स्थानीय पत्रकार बताते हैं, जब भी घाटी में कर्फ्यू लगता है तो उस दौरान रिपोर्टिंग के पास स्थानीय कश्मीरी पत्रकारों को न देकर दिल्ली के नेशनल रिपोर्टर्स को दिए जाते हैं। कश्मीर को लेकर अगर आपकी रुचि है तो "हाफ विडो विलेज" जैसे सच भी कश्मीर जाकर ही नजर आते हैं। श्रीनगर से चंद किलोमीटर दूर ही ऐसे कई गांव हैं, जिन्हें हाफ विडो विलेज की संज्ञा दी जा सकती है। ‘हाफ विडो विलेज’ यानी ऐसा गांव जहां के कई पुरुष या तो सुरक्षाबलों की गोलियों का निशाना बन गए, या उन्हें आतंक के समर्थन के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया हो। कई बार तो डर से सभी जवान मर्द गांव छोड़कर ही भाग गए हैं। ऐसे गांवों की औरतें आधी विधवा या यूं कहें कि आधी सुहागन कहलाती हैं। अपने पति, बेटों की वापसी की राह ताकती इन औरतों को पता ही नहीं होता कि उनके पति जिंदा भी हैं या नहीं,  वो कश्मीर में है या पाकिस्तान भाग चुके हैं। उन गांवों में सिर्फ आधी-अधूरी उम्मीदें लिए औरतें रहती हैं। धीरे-धीरे गांव के गांव पुरुषों से खाली होने लगे और ‘हाफ वीडो विलेज’ में तब्दील हो गए। इन गांवों में भारतीय सेना के ऊपर यौन शोषण के आरोप भी लगते रहे हैं। मैं कोई जज नहीं, जो राजदंड की ताल ठोक कर कह सकूं कि वह सभी आरोप गलत हैं, लेकिन यह आरोप धर्म के नाम पर सिर्फ कश्मीर में लगाया जाना और इनका कश्मीर के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय चश्मे से देखा जाना भी गलत है। ऐसे आरोप मध्य भारत के नक्सलवादी इलाकों से लेकर पूर्वोत्तर के उग्रवादी समर्थक क्षेत्रों में भी सुरक्षा बलों पर लगाए जाते रहें हैं।

कश्मीर की समस्या को समझना हो तो फिल्मों की सिल्वर स्क्रीन से भी समझा जा सकता है। साठ और सत्तर के दशक का कश्मीर मोहब्बत के रंग में रंगा नज़र आता था। सायरा बानो की हसीन जुल्फें, चिनार के सूखे-सुनहरे पत्ते, खूबसूरत सी डल और उसपर चल रहे शिकारे, यानी तब सिल्वर स्क्रीन के लिए भी कश्मीर जन्नत ही थी लेकिन 90 का दशक आते-आते फिल्मों में भी कश्मीर के हालात बदलते गए। ‘मिशन कश्मीर’  में मोहब्बत नहीं मातम दिखता है और लालचौक पर धमाके के बाद मरघट सी शांति, फिर भावनाएं भड़काते हुए सनी देओल का वो डायलॉग याद आता है कि 'दूध मांगोगे तो खीर देंगे पर कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे’। बीते 70 सालों में फिल्मी फसाने से लेकर हकीकत के अफसानों तक और सायराबानो से लेकर सनी देओल तक कश्मीर बहुत बदल चुका है।

कुछ साल पहले कट्टरपंथी कहे जाने वाले समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान के साथ चर्चा चल रही थी। आज़म बोले ‘जब 6 दिसंबर 1992 के मनहूस दिन हिंदुस्तान  का सेकुलरिज्म जल रहा था, तब भी कश्मीर शांत था। भारतीय मुसलमानों से कश्मीरी और कश्मीरियों से भारतीय मुसलमान कम से कम मज़हब के नाते नातेदारी नहीं रखते’ यह तो रही कट्टरपंथी नेताओं की बात, अब  सेक्युलर छवि वाले कांग्रेसी नेता राशिद अल्वी का जिक्र करता हूं। यह तब की बात है, जब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे और करण पैलेस में आईबी के सर्वोच्च अधिकारी के तौर पर मनमोहन सिंह के कथित दामाद तैनात थे। अल्वी के घर कुछ कश्मीरी युवा आए थे, संयोगवश मैं भी वहीं मौजूद था,  उन युवाओं ने  अल्वी से कहा कि उनको तो कश्मीर की आजादी ही चाहिए -  तभी राशिद अल्वी ने उनसे सवाल किया "यह बताओ तुम्हारे घर में क्या कोई संपत्ति विवाद है?" सवाल सुनकर एक कश्मीरी युवक उठ खड़ा हुआ और बोला "हां मेरे घर में है, मेरे चाचा के साथ," युवक ने कहा कि वो गुलमर्ग में रहता है और उनके चाचा उनकी जमीन हड़पना चाहते हैं। युवक का जवाब सुन राशिद ने मुस्कुराते हुए कहा कि "समस्या का एक आसान समाधान है, क्यों नहीं अपनी सारी जमीन चाचा को ही दे देते हो, घर परिवार का मामला है, खून का रिश्ता है चाचा को सारी जमीन दे दो.." लड़का बोला "यह कैसे हो सकता है सर ?" कांग्रेसी नेता ने अकलमंद जवाब दिया बोले जब आप अपने परिवार में अपने सगे चाचा को अपनी जमीन नहीं दे, सकते तो हिंदुस्तान कश्मीर कैसे छोड़ सकता है ? आप को विकास चाहिए , तो केंद्र सरकार की योजनाएं हैं, चाहे हमारी सरकार रहे या NDA की बन जाए, लेकिन कश्मीर कोई नहीं देगा। यह जान लीजिए और मान लीजिए।

कश्मीर और कश्मीरियत की बात पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेई भी किया करते थे और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी करते हैं, लेकिन कश्मीरियत और कश्मीर दोनों तेजी से बदलते जा रहे हैं। मुझे याद है जब मैं पहली बार कश्मीर गया था तो टैक्सी ड्राइवर हिंदी में बातें कर रहा था। ये उसपर हिंदी फिल्मों का असर था।  हालांकि हमारे पहुंचने से कुछ रोज पहले ही श्रीनगर के एकलौते सिनेमा घर को हिंदी फिल्में दिखाने के जुर्म में आग लगा दी गई थी। दरअसल  हुर्रियत ने घाटी में हिंदी फिल्में न दिखाने को लेकर फरमान जारी कर दिया था, फिर भी ड्राइवर भाई की हिंदी अच्छी थी। मैंने पूछा भाई हिंदी में बात तो कर लेते हो क्या हिंदी में पढ़ना-लिखना भी आता है?  टैक्सी ड्राइवर ने जवाब दिया कि फिल्मों की वजह से, टूरिज्म के लिए हिंदी बोलना तो सीख लिया है लेकिन लिखना इसलिए नहीं आता क्योंकि 90 के दशक में, उसके बचपने में ही हिंदी पढ़ानें वाले कश्मीरी पंडित घाटी से खदेड़ दिए गए थे। लिहाजा ड्राईवर हिंदी बोलना तो सीख गया लेकिन लिखना-पढ़ना नहीं सीख सका। जाहिर तौर पर ड्राईवर का ये कथन यह जताने के लिए काफी है, कि जो कश्मीरियत कश्मीरी युवाओं के अंदर वाजपेई के कालखंड में हुआ करती थी, अब वह बदलने लगी है, क्योंकि तब के युवा आज अधेड़ उम्र के हैं और जिन युवाओं ने कभी दिलीप कुमार और सायरा बानो के साथ राज कपूर की फिल्मों की शूटिंग घाटी में देखी होगी, वो आज उम्र के आखिरी पायदान पर खड़े हैं। लिहाजा वक्त के साथ हालात बदल रहे हैं, लेकिन कुछ हालातों को हम नहीं जान पाते और कुछ को जान भी जाते हैं तो मानने को तैयार नहीं होते।

राज्यपाल शासन में संभव है कि लाल चौक से डल झील की 3 किलोमीटर लंबी सड़क पर इंडिया गो बैक के नारे मिटा दिए जाएं, लेकिन isis के झंडे और हाथों में पत्थर लिए युवाओं की सोच कैसे बदली जाएगी?  क्या जिनके हाथ में बंदूके हैं, उन्हें ही आतंकवादी माना जाए? लेकिन जिनके दिलों में जिहादी सोच और हाथ में पत्थर हों, कैसे मान लिया जाए कि वह आतंकवादी सोच से वास्ता नहीं रखते? या हम इंतजार करें, उस दिन का जब हर पत्थरबाज के हाथों में एके-47 आ जाए। क्या तभी हम उन्हें रोकने के लिए बल प्रयोग करेगें? तब तक वह पत्थरबाज सिर्फ भटक हुए बच्चे ही हैं।

समस्या बहुत बड़ी है पर समाधान क्या है? कश्मीर को जानने वाले कुछ सूडो सेक्युलरवादी कहते हैं, कि कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय तौर पर एक आजाद मुल्क घोषित कर दिया जाए,  जहां भारत, पाकिस्तान और चीन के किसी भी व्यक्ति को आने-जाने , व्यापार करने की आजादी हो.. पर मुझे लगता है, यह वही सपना है, जो कभी यरूशलम के लिए देखा जाता था। इसी तरह के शब्दों के सर्कुलर फिलिस्तीन और इजराइल के बीच भी सुने-कहे जाते थे। तब वहां के सेक्युलर लोगों की ख्वाहिश थी कि जेरूसलम को वेटिकन सिटी की तरह ईसाइयों, यहूदियों और मुसलमानों के लिए समान रूप से खोल दिया जाए, लेकिन आज की तारीख में यरुशलम इज़राइल की राजधानी है ,जहां अमेरिका समेत आधा दर्जन देशों के दूतावास भी खुल गए हैं। कश्मीर की बात करें तो यहां चीन, भारत और पाकिस्तान तीनों ही परमाणु शक्तियां हैं, लिहाजा आजादी का हल सिर्फ आदर्शवादी किताबों तक ही सीमित है।

एक और सवाल पैदा होता है कि दिल्ली भले ही घाटी के विकास की कितनी भी योजनाएं लेकर आ जाए, पाकिस्तान और पाकिस्तान परस्त संगठन उस पर पानी फेरते रहेंगे। पाकिस्तान के साथ भी हम कश्मीर को लेकर ही 48 से लेकर 99 तक 4 जंगें लड़ ही चुके हैं, लेकिन कश्मीर समस्या जस की तस ही रही।  तो क्या इसका हल शांति के प्रयासों पर पानी फेरने वाले पानी के अंदर ही छिपा हो सकता है? याद कीजिए खिलाफत आंदोलन का वह दौर जब ऑटोमन एंपायर को मुस्लिम सल्तनत का खलीफा माना जाता था, लेकिन पाशा के नेतृत्व में टर्की में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता स्थापित हुई। उस दौर में अरब देश टर्की को आंखें दिखा रहे थे, लेकिन तुर्किस्तान ने जवाब दिया कि हमारे पास टिगरिस और यूपीरेटिस नाम की दो अहम नदियां हैं, जिनके पानी से अरब की प्यास बुझती है, तुर्की ने उन नदियों का पानी रोक देने और अरबों को उनका काला तेल पीने की भी धमकी दी। इसीतरह याद रखने लायक बात यह भी है, जिस सिंधु से लेकर पंजाब की सभी नदियां हिंदुस्तान से होकर ही बहती हैं, यानी टर्की की तरह पानी की लगाम हमारे हाथ में भी है, जो बिना बंदूक के भी पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकती है।

अगर ताकत के सहारे आतंकवाद को खत्म किया जा सकता है,  तो इसका उदाहरण हमारे अपने देश में ही है। जिस पंजाब से पांचों नदियों का पानी गुजरता है, उसी पंजाब से खालिस्तान का आतंकवादी दौर भी गुजरा था। जिसे केपीएस गिल जैसे पुलिस अधिकारियों और सत्ता के सख्त रुख ने रबी और खरीफ की फसलों की तरह पंजाब की धरती से काट फेंका।  हां उसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ी, प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और जनता से लेकर सेना तक ने ये कीमत चुकाई, लेकिन उसी कीमत की बदौलत आज पंजाब शांत और खुशहाल है । यानी कीमत चुकाने के लिए तो हमें तैयार रहना ही होगा। बिना कीमत के ना तो समस्या मिलती है और ना ही समाधान।

वैसे ही सिर्फ बंदूक की गोली से कश्मीर की सत्ता हमारे पास रहे, यह चीन की माओवादी सोच हो सकती है, लेकिन गांधीवादी भारत की नहीं,  इसलिए गांधी और भगत सिंह की तर्ज पर लाठी और गाजर की नीति अपनाना जरूरी है। यह सोचना जरूरी है कि, जिनके हाथ में हथियार हैं वह हाथ काट डाले जाएं और उनकी कब्रें एनकाउंटर की जगह ही खोद डाली जाएं। जिससे उनके जनाजे में कट्टरपंथियों की भावनाएं, बंदूक की गोलियां और पाकिस्तान परस्ती के नारे नही गूंजे। इस समस्या को हिंदू या मुसलमान के चश्मे से देखने की भी जरूरत नहीं। आपको याद होगा मुलायम सिंह के रक्षा मंत्री बनने से पहले परिवार की भावनाओं को देखते हुए भारतीय सेना के शहीद जवानों का शव उनके परिवार को नहीं दिया जाता था। जब भावनाओं को देखते हुए जवानों के शव को परिवार के सुपुर्द करने से रोका जा सकता था। तो आज भावनाएं भड़काने पर रोक लगाने के लिए दहशतगर्दों के शवों को एनकाउंटर स्थल पर ही दफना देने से भी किसी को कोई परहेज नहीं होना चाहिए।

कश्मीर की समस्या के हल के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, राजनीतिक सोच की..सत्ता की इच्छा के बिना कुछ नहीं हो सकता, लेकिन यहां सत्ता को चुनावी तारीखों से दूर देखना होगा । क्योंकि गुलाम नबी आजाद का ताजा बयान और उस पर BJP के रविशंकर प्रसाद की प्रतिक्रिया, पूरा घटनाक्रम यह जताने के लिए काफी है कि चुनावी लाभ के लिए दोनों राष्ट्रीय दल कश्मीर की समस्या का सांप्रदायीकरण करने से कतई नहीं चूकेगें ।  गुलाम नबी आजाद जब कांग्रेस मुख्यालय में प्रेस वार्ता करते हैं, तो हमसे पूछते हैं कि तुम दिल दिमाग और शरीर से यहां हो या नहीं हो? आज मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आप दिल दिमाग और शरीर से हिंदुस्तानी हैं, हिंदुस्तान के संविधान के साथ हैं या नहीं?  अगर आजादी देनी है तो भारतीय सेनाओं को देनी चाहिए। हमें भी देखना होगा कि कैसे चेचेन्या में रूस और बलूचिस्तान में पाकिस्तान ने अलगाववादियों और विद्रोहियों का दमन किया है।  हमें सेना को बेहतर हथियार और संसाधन देने होंगे, क्योंकि जब आतंकवादियों के हाथ में एके-56 हो और हमारे अर्धसैनिक बलों के जवानों के हाथ में देसी इंसास, तो यह मुकाबला कई बार बराबरी का  नहीं रहता । अगर कश्मीर की समस्या का हल चाहिए तो सीखिए डोनाल्ड ट्रंप से कि कैसे उत्तर कोरिया के तानाशाह को डराकर बातचीत के टेबल पर बुला कर लोकतांत्रिक तरीके से बिना हिंसा के अपनी बात मनवाई जा सकती है । कश्मीर की समस्या को अगर हिंदू मुसलमान के चश्मे से देखना बंद कर दिया जाए और गाजर और लाठी की नीति के तहत एक हाथ में विकास और एक हाथ में सत्ता का सैनिक चाबुक रखा जाए, तो घाटी में अमन का दौर फिर वापस लौट सकता है । लेकिन इसके लिए 'हमें' साथ आना होगा। यहां हम का अर्थ हिंदू + मुसलमान से नहीं, ना ही श्रीनगर + दिल्ली से है। यहां हम का अर्थ हैं आपसे और मुझसे क्योंकि हम से हैं हिंदुस्तान हैं और हम ही हैं जो कश्मीर में करिश्मा कर सकते हैं।

राहुल डबास
टीवी पत्रकार

5 टिप्‍पणियां:

devedndra ने कहा…

बहुत ही अच्छा कंटेंट्स...💐

Unknown ने कहा…

Very good...

Raju Pandey ने कहा…

Brilliant article on Kashmir problem.

Unknown ने कहा…

Very true rahul ji

mohit ने कहा…

बहुत ही सटीक लिखा है 👍👍