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गुरुवार, फ़रवरी 1

आजाद बनो..

आजाद बनो..


कभी मुहावत के पास कैद हाथी के बच्चे को देखा है। उसे जंजीरों से बांधा जाता है, लोहे से जकड़ा जाता है, वह आजाद होने की कोशिश करता है। उसके पैर लहूलुहान हो जाते हैं और वह घाव उसे बड़े होते-होते यह सिखा देते हैं कि, आजादी मुमकिन नहीं..फिर बड़े हाथी को चाहे पतली सी रस्सी से बांध दो पर वह रस्सी तोड़ने की ज़ुरत नहीं करता। क्योंकि वो अपने दिमाग से गुलाम बन चुका है..! क्या हम भी माता-पिता के तौर पर, टीचर के रूप में, समाज में रहकर, संस्कृति के नाम पर आने वाली पीढ़ी को गुलाम तो नहीं बना रहे ? कि अच्छा होने के लिए अच्छा दिखना जरूरी है। अंग्रेजी जरूरी है, मिट्टी से मोहब्बत की कसमें 15 अगस्त को तो खा सकते हो पर मिट्टी में खेलना मना है..

मां-बाप कहते हैं कि अगर कोई प्रशाद तक दे तो खाना मत.. अनजान के साथ जाना मत..अनजान बच्चों तक से बात करना मत.. टीचर जो कहते हैं वही अटल है, वही अंतिम, वही ब्रह्मा की लकीर और ब्रह्मा पर सवाल उठाना पाप है !! बचपन से ही हम हाथी के बच्चे की तरह अपने बच्चों को गुलाम बना देते हैं..वही गुलामी हमें अंजान रास्तों पर चलने से डरती है, क्योंकि छुटपन में मां ने काले बाबा या काले साए की कहानी सुनाई थी, क्योंकि पिता ने कहा था उंगली पकड़ कर चलो वरना कुत्ता काट लेगा या ठोकर खाकर गिर जाओगे.. जिन विचारों को हम मोहब्बत के लबादे में उढ़ाकर वात्सल्यता रम में सराबोर कर अपने बच्चों को दे रहे हैं, वह उन्हें डरपोक और डरपोक बनाने के लिए काफी है..

कभी किसी विदेशी को देखा है वह आप से नजरें मिलाते ही स्माइल पास कर देते हैं। क्योंकि उनकी मुस्कुराहट में डर नहीं होता और हम तो मुस्कुराने में भी मायने सोच लेते हैं। मांस खाने के लिए, शाकाहारी बनने के लिए अलग-अलग दिन। बाल कटावाने के लिए, नाखून काटने के लिए अलग-अलग वक्त। भगवान से डरना, इंसान से डरना, आज़ाद सोच से डरना... आपको मोहब्बत और विश्वास से दूर ले जाता है। यही डर हिंदुस्तान में दुनिया के सबसे ज्यादा इंजीनियर और डॉक्टर पैदा करता है पर गुगल या माइक्रोसॉफ्ट का मालिक नहीं बनने देता, क्योंकि हमें व्यापार की हानि से डरना सिखाया जाता है और मासिक वेतन में जीना सिखाया जाता है.. शायद तभी हॉटमेल बिक जाता है और उस भारतीय कपंनी पर एक विदेशी कंपनी खड़ी हो जाती है.

किताबें हमें पढ़ाती है कि मनु के वक्त वेदों से दूरी के दायरे थे..पर आज भी हमारे नेता अपनी नीति को चलाने के लिए ज्ञान से दूरी बनाते हुए नजर आते हैं। क्यों हमें यह सवाल पूछने का अधिकार नहीं कि एक देश का कोई बाप कैसे होता है? क्यों हमारे देश के बच्चे यह नहीं जानते कि महात्मा गांधी से ज्यादा भूखे पेट अनशन भगत सिंह ने अपनी जेल के दौरान किया था.. सत्य के प्रयोग सलेबस से दूर रहते हैं, गॉडसे की डायरी को दो भूल जाईये।

यह डर हमें बड़े होने के बाद भी डराने से बाज नहीं आता और कुछ लोग इसी तरह का व्यापार करने लगते हैं। वामपंथी अमीरी से डरा कर गरीबी का, दक्षिणपंथी अक्लियत से डरा कर बहुसंख्यकों का और मध्यममार्गी  अलग-अलग दायरे बनाकर हम पर राज करते हैं..

यही डर है कि हमारी आंख दुनिया को मोहब्बत की नज़रों से चूमती नहीं, क्योंकि उस पर जाति धर्म और विचारों का चश्मा लगा है। यही डर की सोच हमें सेक्स जैसे बुनियादी मुद्दों पर बात करने से डर आती है। दवाई की दुकान पर जाकर सेनेटरी पैड या कंडोम मांगना कुछ इस तरह डराता है मानो थाने के सामने कोई कोकीन खरीदने की कोशिश कर रहा हो..परिवार से लेकर परिवेश तक हम करते हैं, डरकर झूठ बोलते हैं और डर का कारोबार चलता रहता है..

निडर होने का अर्थ पागल होना नहीं, यह नास्तिक होने जैसा है और आप नास्तिक को विधर्मी या अधर्मी नहीं कह सकते। निडर होने की पहली सीढ़ी है सवाल पूछना, शालीनता के साथ लेकिन निर्भीक होकर। यहां सवाल का अर्थ सिर्फ प्रश्न बल्कि समझ भी है.. जैसे गांधी की गरिमा या गोडसे को गाली देने से पहले उन्हें पढ़ना, पढ़ कर समझना और समझ के बोलना..

निडर होने का अर्थ यह नहीं कि आप अपने समाज मुल्क या संस्कृति से ऊपर उठ गय।  निडर होने का अर्थ है आजाद सोच, व्यक्ति के विवेक की स्वतंत्रता, अनजान रास्तों पर चलने की क्षमता, और नंगी आंखों से दुनिया की अच्छाई और बुराई को निखारने की नियति..

जिस संस्कृति में हम मौलिक रूप से लिंग और योनि की पूजा करते हो.. जहां सूफी की सरलता हो और चिड़िया से बाज लड़ाने की क्षमता.. वहां डर का डमरू नहीं आजादी का उद्घोष होना चाहिए.. निडर बनो क्योंकि डर कर जीने से मर जाना बेहतर है..

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