कल रात मेट्रो में सफर ने सोचने पर मजबूर कर दिया। एक लड़का अमेरिकी झंडे की चड्डी (बरमूडाज) पहने हुये था। पास में एक गरीब आदमी धोती और कुर्ता पहने, सिर पर खंडुवा बांधे खड़ा था। जो उस लड़के के लम्बे बालों की लटाओं को देख भर रहा था। मानो सोच रहा हो कि गांव में तो लड़के-लड़की में पैदा होते ही फर्क कर दिया जाता है। यहां तो दिखने में दोनों में ही कोई फर्क ही नहीं लगता। लड़का उसके पास आया, उसे घूरा और वो डर से सिमट कर कोने में बैठ गया। उस अधेड़ गरीब की आखों में अजनबी दुनिया की दहशत साफ तौर देखी जा सकती थी। फिर वही लड़का उसे बोला, मेट्रो में जमीन पर बैठना मना है। बिचारा उठा और अगले स्ट्रेशन पर उतर गया। लड़के ने ये देख पास खड़ी लड़की को स्माइल दी।
शायद ये दो संसारो का मिलन था। जो बहुत बुरा रहा। कौन ज्यादा सभ्य निकला ये तो पता नहीं, लेकिन संस्कारी तो वो अधेड़ उम्र का आदमी ही था। जो उजले कटे-फटे पकड़े पहने डेलीआइटस् से दो पग दूर रहना ही पंसद करता था। कहीं शहरी नर उसे वानर समझकर नाराज़ ना हो जाये। पहले भी रेलवे-स्टेशनों पर ऐसे पल देखे थे, जहां शहरी लोगो के आगे, हमारे गरीब ग्रामीण सिमट जाते हैं। मानो गुलाल का वो गाना पीछ से कोई गुनगुना रहा हो कि “ हाथ से खादी बनाने का ज़माना लद गया, अब चड्डी भी है सिलती इंगलिशो की मिल में हैं। आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये, अपनी आजादी तो भईया लौंडिया के दिल में है।“ सर फिरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
दिल्ली मेट्रो लंदन ट्यूब को टक्कर दे रही है और दिल्ली वाले अंग्रेजों को। यहां इज्जत किसी को हजम नहीं होती, सर कहो तो सिर पर बैठ जाते हैं, ताऊ-चाचा कहने का रिवाज तो रास ही नहीं आता। कभी बचपन में मां के साथ रेड लाइन में सफर करता था, जिसका नाम आज ब्लूलाइन पड़ गया है। तब तमाम लोग कहते थे, दिल्ली में दिल्लीवाला कोई नहीं कहलाता। यहां गांव में हरियाणा का टच है, विभाजन के बाद पंजाबी शहर में आ बसे। करोलबाग में बंगाल और आर.के पुरम में दक्षिण भारत के लोग रहते हैं। जमनापार यूपी और लुटियन ज़ोन में बिहार के कुछ अफसरान बसर करते है। पर दिल्लीवाला कोई कहलाना नहीं चाहता, सिवाये पुरानी दिल्ली के। आज का मंजर उलट है। दिल्ली 6 को नई दिल्ली से दूर पुराना शहर माना जाता है। जहां ठसक तो है पर डेलीआइट् नहीं। शहर में नई क्लास का जलवा है जो आये तो किसी भी कोने से हो पर उस कोने को काला सोचकर, उसे छोड़कर कहलाना तो डेलीआइट् ही चाहते हैं। पहले इस शहर को दिल्ली कहते थे अब दिखावी कहते हैं। अगर किसी को दिल्ली देखनी हो तो राजौरी-साकेत के मॉल्स देखे, चांदनी-चौक का बाजार नहीं।
ये शहर जबलपुर और नागपुर की तर्ज पर तरक्की कर रहा है। आप सोच रहे होगें की सिडनी या न्यूयार्क क्यो नहीं कहा। तो जनाब इन चारों शहरों में कोई खासा फर्क भी नहीं है। पहले दो शहरों में आदिवासी रहते थे और बाद के दो में रेड इंडियन। दोनो को निकाल कर निगल गये हम लोग। उनकी जमीन पर अपनी जामात बिठा ली। कहने को मुवावजा मिला पर भीख ने रोटी मिलती है समानता और सम्मान नहीं। ये देश का दिल है तो नक्सलबाड़ी तो बन नहीं सकता पर ज्यादा फर्क भी नहीं हैं। जिसकी जमीन पर कोमनवेल्थ गेम्स होने है, वो जाट-गूजर नक्सल राह पर है। गूजरो आरक्षण आन्दोंलन में हुई मौतो की सख्या दंतेवाड़े से कहीं ज्यादा है। जाट खाप-पंचायत समानतर-सरकार चला रही है। पंचायतें कानून नहीं मानती, खाप के नाम पर कोर्ट को ही लाठी जरुर दिखा जाती है। मुख्यमत्रीं गुरुजी (शिबू सोरेन) हो या हुड्डा जी सब इस समानतर सरकार को सलाम बजाना पड़ता है।
कभी दिल्ली के आसपास चंद जातियो की सत्ता चलती थी। आज सूर्यवंशी राजपूत से ठसक प्रेमी जाट, खुद को क्षत्रिये कहलवानें वाले गूजर हो या श्रीकृष्ण के वंशसज अहीर सबको अपनी जात पर गरुर जरुर है पर सबको आक्षण की बैसाखी भी चाहिये। कुछ उसी तरह ही जैसे नक्सली ईलाकों को केंद्र सरकार का आर्थिक पैकज चाहियें। दोनो के पास सिर और बाजू बहुत है, अपराध दोनो जगह है, शक्लें भी एक ही है, महज नामो का फर्क है, जो सोती-सरकार को नहीं दिखता। शक की सूई से फोन टेप यहां भी होते है। जामियां की जनता को यहां की पुलिस भी नक्सली स्लीपर सेल कम नहीं समझती। आखिर जब दिल्लीवाले अमेरिकी हो गये है तो सरकार गोरी सोच क्यो न रखें। जिसनें रेड इंडियनों को जंगल से निकाल कर चड़ियांघर में रखकर चमाशा बना दिया। क्योकि उन्हें कंक्रीट के जंगल में घोसले से घरो में रहना पसंद नहीं था।
एक अंग्रेजीं फिल्म याद आती है “अवतार” जिसमें सभ्यता के पुजारी दूसरी दुनिया के लोगों को सड़क देना चाहतें थे पर उन्हें अपने पैडो से प्यार था। आज भी गुड़गांव से गांव को दूर कर दिया हमने कि, हमारी राते वहां रगींन हो सकें। दिल्ली के वास्ते दारू राजस्थान से आती है, पत्थर पल्वल से, राजधानी जो जगमग रखने की बिजली के बादले यूपीवालो को अंधा-धूवा मिलता है। हमारे पृयावरणमत्रीं कोपनहेगन जाकर अमीर देशो शीशा दिखाते है पर अपना शीशमहल नहीं देखते। शीला जी भी दिल्ली के बढ़ते बोझ से परेशान है लेकिन इसका जवाब नहीं देती कि अगर गांव के हिस्से का पैसा वहीं ठीक से खर्च किया जाता, तो कोई पूरबवाला पेट की खातिर दिल्ली नहीं आता। चाहे आईआईटी हो डीयू या एम्स।
दिल्ली हमारे दिलो में है, होनी भी चाहिये। विकास सबको प्यारा है पर किसके लिये और किसती कीमत पर ये सोचना होगा, आखिर ये दिल्ली अमेरिकी नहीं अपनी है। हम लोगों की है जीके से सीलमपुर तक। दंतेवाड़ा से बस्तर तक ये सबकी राजधानी है, चंद अमीर राजाओ की नहीं देश की और देश से बढ़कर भी नहीं।
शायद ये दो संसारो का मिलन था। जो बहुत बुरा रहा। कौन ज्यादा सभ्य निकला ये तो पता नहीं, लेकिन संस्कारी तो वो अधेड़ उम्र का आदमी ही था। जो उजले कटे-फटे पकड़े पहने डेलीआइटस् से दो पग दूर रहना ही पंसद करता था। कहीं शहरी नर उसे वानर समझकर नाराज़ ना हो जाये। पहले भी रेलवे-स्टेशनों पर ऐसे पल देखे थे, जहां शहरी लोगो के आगे, हमारे गरीब ग्रामीण सिमट जाते हैं। मानो गुलाल का वो गाना पीछ से कोई गुनगुना रहा हो कि “ हाथ से खादी बनाने का ज़माना लद गया, अब चड्डी भी है सिलती इंगलिशो की मिल में हैं। आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये, अपनी आजादी तो भईया लौंडिया के दिल में है।“ सर फिरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
दिल्ली मेट्रो लंदन ट्यूब को टक्कर दे रही है और दिल्ली वाले अंग्रेजों को। यहां इज्जत किसी को हजम नहीं होती, सर कहो तो सिर पर बैठ जाते हैं, ताऊ-चाचा कहने का रिवाज तो रास ही नहीं आता। कभी बचपन में मां के साथ रेड लाइन में सफर करता था, जिसका नाम आज ब्लूलाइन पड़ गया है। तब तमाम लोग कहते थे, दिल्ली में दिल्लीवाला कोई नहीं कहलाता। यहां गांव में हरियाणा का टच है, विभाजन के बाद पंजाबी शहर में आ बसे। करोलबाग में बंगाल और आर.के पुरम में दक्षिण भारत के लोग रहते हैं। जमनापार यूपी और लुटियन ज़ोन में बिहार के कुछ अफसरान बसर करते है। पर दिल्लीवाला कोई कहलाना नहीं चाहता, सिवाये पुरानी दिल्ली के। आज का मंजर उलट है। दिल्ली 6 को नई दिल्ली से दूर पुराना शहर माना जाता है। जहां ठसक तो है पर डेलीआइट् नहीं। शहर में नई क्लास का जलवा है जो आये तो किसी भी कोने से हो पर उस कोने को काला सोचकर, उसे छोड़कर कहलाना तो डेलीआइट् ही चाहते हैं। पहले इस शहर को दिल्ली कहते थे अब दिखावी कहते हैं। अगर किसी को दिल्ली देखनी हो तो राजौरी-साकेत के मॉल्स देखे, चांदनी-चौक का बाजार नहीं।
ये शहर जबलपुर और नागपुर की तर्ज पर तरक्की कर रहा है। आप सोच रहे होगें की सिडनी या न्यूयार्क क्यो नहीं कहा। तो जनाब इन चारों शहरों में कोई खासा फर्क भी नहीं है। पहले दो शहरों में आदिवासी रहते थे और बाद के दो में रेड इंडियन। दोनो को निकाल कर निगल गये हम लोग। उनकी जमीन पर अपनी जामात बिठा ली। कहने को मुवावजा मिला पर भीख ने रोटी मिलती है समानता और सम्मान नहीं। ये देश का दिल है तो नक्सलबाड़ी तो बन नहीं सकता पर ज्यादा फर्क भी नहीं हैं। जिसकी जमीन पर कोमनवेल्थ गेम्स होने है, वो जाट-गूजर नक्सल राह पर है। गूजरो आरक्षण आन्दोंलन में हुई मौतो की सख्या दंतेवाड़े से कहीं ज्यादा है। जाट खाप-पंचायत समानतर-सरकार चला रही है। पंचायतें कानून नहीं मानती, खाप के नाम पर कोर्ट को ही लाठी जरुर दिखा जाती है। मुख्यमत्रीं गुरुजी (शिबू सोरेन) हो या हुड्डा जी सब इस समानतर सरकार को सलाम बजाना पड़ता है।
कभी दिल्ली के आसपास चंद जातियो की सत्ता चलती थी। आज सूर्यवंशी राजपूत से ठसक प्रेमी जाट, खुद को क्षत्रिये कहलवानें वाले गूजर हो या श्रीकृष्ण के वंशसज अहीर सबको अपनी जात पर गरुर जरुर है पर सबको आक्षण की बैसाखी भी चाहिये। कुछ उसी तरह ही जैसे नक्सली ईलाकों को केंद्र सरकार का आर्थिक पैकज चाहियें। दोनो के पास सिर और बाजू बहुत है, अपराध दोनो जगह है, शक्लें भी एक ही है, महज नामो का फर्क है, जो सोती-सरकार को नहीं दिखता। शक की सूई से फोन टेप यहां भी होते है। जामियां की जनता को यहां की पुलिस भी नक्सली स्लीपर सेल कम नहीं समझती। आखिर जब दिल्लीवाले अमेरिकी हो गये है तो सरकार गोरी सोच क्यो न रखें। जिसनें रेड इंडियनों को जंगल से निकाल कर चड़ियांघर में रखकर चमाशा बना दिया। क्योकि उन्हें कंक्रीट के जंगल में घोसले से घरो में रहना पसंद नहीं था।
एक अंग्रेजीं फिल्म याद आती है “अवतार” जिसमें सभ्यता के पुजारी दूसरी दुनिया के लोगों को सड़क देना चाहतें थे पर उन्हें अपने पैडो से प्यार था। आज भी गुड़गांव से गांव को दूर कर दिया हमने कि, हमारी राते वहां रगींन हो सकें। दिल्ली के वास्ते दारू राजस्थान से आती है, पत्थर पल्वल से, राजधानी जो जगमग रखने की बिजली के बादले यूपीवालो को अंधा-धूवा मिलता है। हमारे पृयावरणमत्रीं कोपनहेगन जाकर अमीर देशो शीशा दिखाते है पर अपना शीशमहल नहीं देखते। शीला जी भी दिल्ली के बढ़ते बोझ से परेशान है लेकिन इसका जवाब नहीं देती कि अगर गांव के हिस्से का पैसा वहीं ठीक से खर्च किया जाता, तो कोई पूरबवाला पेट की खातिर दिल्ली नहीं आता। चाहे आईआईटी हो डीयू या एम्स।
दिल्ली हमारे दिलो में है, होनी भी चाहिये। विकास सबको प्यारा है पर किसके लिये और किसती कीमत पर ये सोचना होगा, आखिर ये दिल्ली अमेरिकी नहीं अपनी है। हम लोगों की है जीके से सीलमपुर तक। दंतेवाड़ा से बस्तर तक ये सबकी राजधानी है, चंद अमीर राजाओ की नहीं देश की और देश से बढ़कर भी नहीं।
4 टिप्पणियां:
आपने बहुत सटिक बात लिखी है राहूल जी, मैं आपकी बातों से पूरी तरह से सहमत हूं। मुझे आपको ब्लॉग पर यह लेख बहुत अच्छा लगा।
apka blog acha lga.delhi ke badalte parivesh ko bahot hi gahrae se ukera h jise ham aksar dekh h.chote shahro se aye log yahan ke namuno se bachte h wo bhi bina kuch bole. sach hi h ki shahro ki sabhayta khatm hoti ja rahe h lekin sirf delhi ko isme shamil krna galat hoga y bat sabhi bade shahro pr lagu hote h.
bahut ache rahul kam se kam tumane to bharat aur india ke antar ko sahi disha me samjhaya.
bahut ache rahul kam se kam tumane to bharat aur india ke antar ko sahi disha me samjhaya.
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