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शनिवार, जून 30

गन्ने सा पिसता किसान


विपक्ष का कहना है कि अब जिन्ना नहीं गन्ना चलेगा और महागठबंधन की ताकत के सामने मोदी-योगी की जोड़ी कैराना से लेकर नूरपुर तक धराशाई हो जाती है, जवाब में सरकार कहती है कि शास्त्री जी भले ही कांग्रेस के प्रधानमंत्री रहे हों, लेकिन जय-जवान और जय किसान के नारे को पुनर्जीवित करने का श्रेय तो   मोदी सरकार को ही जाता है। सियासत के बीच सर्जिकल स्ट्राइक का वीडियो रिलीज़ किया जाता है और इसी बीच गन्ना किसान भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने दूरदराज गांवों से दिल्ली पहुंच जाते हैं। मीटिंग का एजेंडा था कि किसान सिलसिलेवार तरीके से बता  सकें कि गन्ना किसानों के जीवन में कितनी मिठास है या गन्ना किसान सरकारी नीतियों और मिल मालिकों के बीच गन्ने की तरह पिस तो नहीं रहा।

प्रधानमंत्री से मिलने के लिए पांच राज्यों के डेढ़ सौ किसान 4 बसों में भरकर पहुंचते हैं लेकिन इस बीच  सबके मन में यह सवाल भी होता है कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और महाराष्ट्र से ये किसान आए कहां से?  आखिर किस संगठन से इनका वास्ता है और किस आधार पर इनका चुनाव हुआ ?  दिनभर रिपोर्टर किसान संगठनों से बात करने की कोशिश करते रहे, ताकि बैठक का एजेंडा साफ हो सके। भारतीय किसान यूनियन के राकेश और नरेश टिकैत और वी एम सिंह से बात करने पर  पता चलता है कि जो संगठन सरकार की गन्ना नीति के खिलाफ सड़कों पर लामबंद हुए थे, उनके किसानों को तो इस मुलाकात का न्योता ही नहीं मिला ।

लिहाजा कयास लगाये गए कि न्योता तो संघ की सोच रखने वाले किसान संगठनों को मिला होगा फिर भारतीय किसान मोर्चा से लेकर भारतीय किसान संघ तक सबके दफ्तरों में फोन खड़काया जाता है, लेकिन तब भी ये साफ़ नहीं होता कि यह किसान आखिर प्रधानमंत्री के दिल्ली आवास 7 लोक कल्याण मार्ग पर गन्ना कल्याण के लिए किस आधार पर प्रकट हुए?

बैठक से पहले गन्ना किसानों को बागपत से चुन कर आये केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह के घर पर भोजन कराया गया। उसी बागपत से कभी गन्ना किसानों के मसीहा कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह चुन कर आते थे। बहरहाल बड़ी जद्दोजहद से मालूम पड़ा कि किसानों का चुनाव कैसे किया गया?

पीएम से मुलाकात करने वाले किसानों की फेहरिस्त खुद PM के सिपहसालार जनप्रतिनिधियों ने बनाई थी। उत्तर प्रदेश के गन्ना मंत्री सुरेश राणा से लेकर पूर्व कृषिराज्य मंत्री संजीव बालियान और मौजूदा मंत्री सत्यपाल सिंह सरीखे नेताओं  की तरफ से पीएमओ को ये लिस्ट भेजी थी, ऐसे किसान जो बीजेपी की विचारधारा के हो पर वो नहीं जो बीजेपी के प्राथमिक सदस्य हों। यानी अपने ही करीबियों को बिना कमल के निशान के प्रधानमंत्री के सामने उनकी नीतियों पर ताली बजाने के लिए दिल्ली तलब किया गया, फिर भी किसान खुश हुए कम से कम वजीर-ए-आजम के यहां चाय पीने का मौका तो मिला, बारिश के मौसम में दिल्ली भी घूम ली और पीएम मोदी से हाथ मिलाकर फ़ोटो ही खिचवा ली। हालांकि बरसात के पानी से ज्यादा पसीना हमारा गन्ना किसान बहाता है, फिर भी, हर घंटे देश में 2 किसान आत्महत्या कर लेते हैं लेकिन सरकारी इनपुट्स की मानें तो  असुरक्षित किसान नहीं हमारे प्रधानमंत्री हैं।

घंटे भर के इंतजार के बाद किसान घंटेभर के लिए प्रधानमंत्री से मिलते हैं और फिर वादों का घंटा बजाकर किसान,  किसान नेता, मंत्री और सांसद मोदी जी के निवास से रवाना हो जाते हैं। मुलाकात के बाद मीडिया में शानदार जुमलों वाली ब्रेकिंग बनती है कि, अब देश में पहली बार गन्ना किसानों के लिए चीनी का न्यूनतम समर्थन मूल्य ₹29 रख दिया है। पेप्सिको और कोका-कोला जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर भी अब चाबुक चलेगा और उन्हें कहा जाएगा कि वो कोल्डड्रिंक में कम से कम 5% फलों का जूस मिलाएं ताकि किसानों को फायदा हो। यही नहीं पीएम मोदी के आदेश होंगे तो देश के बड़े बड़े उद्योगपति बीज से लेकर बाजार तक ट्रैक्टर से लेकर फूड प्रोhसेसिंग तक अपने कुल निवेश का कम से कम 5% कृषि क्षेत्र में निवेश करेंगे। हालांकि यूरोप और अमेरिका में निजी उद्योगपतियों के निवेश का आंकड़ा 15 से 20% है, फिर भी बहुत बेहतर कदम है क्योंकि भारत में यह आंकड़ा अभी तक 1% तक भी नहीं पहुंचा है। 

 प्रधानमंत्री ने पूरी दुनिया देखी है, लिहाजा दुनिया के अच्छे-अच्छे प्रयोगों से सरकार के लिए अच्छी-अच्छी खबरें कैसे निकाली जाए यह उनसे बेहतर शायद ही देश में कोई विज्ञापन गुरु भी नहीं जानता?  गन्ना किसानों के लिए पीएम मोदी अमेरिका से लेकर ब्राज़ील तक की बात करते हैं और बताते हैं कि अमेरिका में कॉर्न यानी वही पॉपकॉर्न जो फिल्म का मजा लेते हुए आप खाते हैं, उसी मक्के से वहां एथेनॉल बनाया जाता है। ब्राजील में तो हिंदुस्तान से भी ज्यादा गन्ना होता है और ब्राजील में लगभग आधे वाहन पेट्रोलियम नहीं एथेनॉल से से चलते हैं। पीएम यही प्रयोग भारत में भी करने की बात कर रहे हैं। यानी पेट्रोल में कम से कम 10% एथेनॉल का इस्तेमाल करना जरूरी होगा। एथेनॉल की कीमत भी ₹3 प्रति लीटर बढ़ाने का वादा किया गया, जिससे चीनी मिलों को फायदा होगा और वही फायदा गन्ना किसानों तक पहुंचेगा। प्रधानमंत्री से किसानों की मुलाकात किसी साइंस फिक्शन फिल्म से कम नहीं थी। उन्हें यह सब्जबाग भी दिखाए गए कि जैसे DNA से स्वास्थ्य बदल रहा है, ठीक उसी तरह जैसे जेनेटिक तकनीक से उनकी फसल की काया पलटने के दावे किये गए थे।

वादों और इरादों के बीच वही अंतर होता है जो गन्ना किसानों के जीवन में चीनी की मिठास या गुड़ की महक की जगह मिल मालिकों और सरकारी नीतियों के बीच रिसते हुए गन्ने की पीड़ा में तब्दील हो जाती है, ऐसा इसलिए क्योंकि वादे अलग हैं पर इरादे कुछ और।

पहला:  पेप्सिको और कोका कोला जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सरकार की तरफ से सिर्फ अपील की गयी है कि वह अपने कोल्ड ड्रिंक में 5% फ्रूट जूस रखें, लेकिन सरकार इसके लिए कोई दिशानिर्देश जारी नहीं करेगी।

दूसरा: यह बात सिर्फ किताबी है, वो यह कि भारत कृषि प्रधान देश है और भारत की अर्थव्यवस्था मिश्रित लोक कल्याण अर्थव्यवस्था है। अब प्रधानमंत्री के घर का पता भले ही लोक कल्याण मार्ग के नाम पर हो, लेकिन सरकार सीएसआर की तर्ज पर कानून बनाकर उद्योगपतियों पर दबाव नहीं बनाएंगी कि वह कृषि क्षेत्र में 5% निवेश करें ही। फिर निजी उद्योगपतियों के निवेश में  यह खतरा भी बरकरार रहेगा कि कहीं किसान अपने ही खेत को गवां कर उद्योगपतियों का कृषि मजदूर तो नहीं बन जाएगा।

तीसरा: एथेनॉल का प्रयोग नया नहीं है बीते कई दशकों से इसका प्रयोग चल रहा है। लेकिन ब्राजील और अमेरिका से उलट भारत की आबादी बहुत ज्यादा है ।ऐसे में  यदि गन्ने का इस्तेमाल एथेनॉल के लिए ज्यादा किया गया तो खाद्यान्न का संकट भी खड़ा हो सकता है। वहीं एथनॉल में प्रति लीटर ₹3 का इजाफा करने की बात मान भी ली जाए तो भी 2014 में मौजूदा मोदी सरकार के वक्त एथोनोल की कीमत ₹47 प्रति लीटर थी, जोकि वर्तमान समय में ₹40 प्रति लीटर रह गई है। यानी ₹3 का इजाफा भी किया जाये तो भी कीमत कांग्रेस के दौर से 4 रुपये कम ही रहेगी। ऐसे में यह कैसा बदलाव ?

चौथा: अगर तकनीक के जरिए किसानों की तकदीर बदल कर उनकी आय को 2022 में दोगुना करने के लिए जेनेटिक प्रयोग का उदाहरण दिया जाता है। तो जेनेटिक प्रयोग का इतिहास भी हमें याद रखना चाहिए। जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों को भारत में 1996 में पहली बार अनुमति मिली। अमेरिका की एक कंपनी के साथ महाराष्ट्र की कंपनी का करार हुआ और यह कहते हुए बीटी कपास के बीज किसानों को दे दिए गए कि अब अन्नदाताओं का भाग्य बदलने वाला है, लेकिन बदलाव इस कदर आया कि कपास बोने वाले विदर्भ में किसानों की मौत का आंकड़ा लगातार बढ़ता ही गया और अमेरिका की कंपनी मोनसेंटो आज भी बीटी कपास के बीजों के रॉयल्टी के नाम पर सैंकड़ो करोड़ ले उड़ती है। हैरानी ये की तब भी सरकार खामोश रहती है और दिल्ली हाईकोर्ट को ये कहना पड़ता है कि भारत में जीवित वस्तुओं का पेटेंट नहीं किया जाता, लिहाजा  बीटी बीज के पेंटेंट का पैसा अमेरिका नहीं जाएगा। यूरोपियन यूनियन जहां जैविक खेती की तरफ चल रहा है, वही पश्चिमी देशों की कंपनियां भारत की खेती में रासायनिक  प्रयोग करना चाहती है, इन प्रयोगों से भारतीय खेती के चौपट होने का पूरा खतरा है।

पांचवा: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों से कहा कि वह स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को अक्षरश है पूरा करने की कोशिश करेंगे, लेकिन स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट गन्ना किसानों के विषय में कहती है कि, भारत के तटीय प्रदेश जैसे महाराष्ट्र और कर्नाटक में गन्ने में चीनी की मात्रा अधिक है और उत्तर के मैदानों में चीनी की मात्रा कम। लिहाजा महाराष्ट्र और कर्नाटक के किसानों को गन्ने के लिए ज्यादा पैसे दिए जाने चाहिए, तुलनात्मक रुप से उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों को कम.. तो क्या इस रिपोर्ट को मानते हुए यूपी का गन्ना सस्ता बिकेगा और अगर ऐसा हुआ तो यूपी में सांसदों की संख्या देखते हुए बीजेपी के लिए यह सियासी संकट नहीं होगा।

छटा: इस बैठक के बाद केंद्र सरकार की तरफ से यह तय किया गया कि, चीनी का न्यूनतम मूल्य ₹29 से कम नहीं हो सकता। जिससे मिल मालिकों और किसानों दोनों को फायदा पहुंचेगा। लेकिन कृषि विशेषज्ञों की माने तो 29 से कम चीनी का मूल्य बिना सरकारी आदेश के भी बहुत कम बार गया है। जबकि 1 किलो चीनी की लागत लगभग एक ₹32-33 के करीब पड़ती है,यानी सरकारी मूल्य भी गन्ना किसानों और मिल मालिकों के लिए घाटे का सौदा है।

अब वापस गन्ना किसानों की पीएम से हुई मुलाकात पर लौटते हैं। मुलाकात में गन्ना किसान शिष्टमंडल के सदस्य के तौर पर भारत सरकार के पूर्व राज्य मंत्री संजीव बालियान भी शामिल थे, बलियान ने  खुद बतौर मंत्री 2014 में एथेनॉल की कीमत में बड़ा इजाफा किया था और बीटी बीज की कीमतें घटाने में बड़ी भूमिका निभायी थी।लेकिन वो भी इस बैठक की कमियां गिनाने के बजाये तारीफ करते हुए नजर आए।

अब ऐसा भी नहीं है कि इस बैठक से कुछ बदलाव नहीं हुआ। कुछ कदम ऐसे हैं जिनकी सकारात्मक सराहना करनी चाहिए। आखिर सरकार हम से है और कुछ ना कुछ सरोकार भी किसानों से तो रखा ही जाता है। केंद्र की मोदी सरकार ने चीनी पर आयात शुल्क सौ प्रतिशत बढ़ा दिया है, इससे चीनी मिल और गन्ना किसान दोनों को फायदा होगा। याद रहें मोदी से पहले मनमोहन सरकार में जब शरद पवार कृषि मंत्री हुआ करते थे। तब हमारा देश भारत की सस्ती चीनी विदेशों में निर्यात करके, विदेशों से महंगी चीनी आयात करता था। जिससे किसानों और मिल मालिकों दोनों को बड़ा नुकसान हुआ था।

तकनीकी रूप से औद्योगिक इस्तेमाल से दूर करने के लिए यूरिया का नीम कोटिंग करना और स्वाइल हेल्थ कार्ड बनाकर मिट्टी की उर्वरा क्षमता के अनुसार खाद डालना एक बेहतर कदम है। चुनावी वर्ष में ही सही लेकिन बीते चंद दिनों में किसानों तक केंद्र सरकार के 4 लाख 30 हजार करोड़ पहुंचे।आखिर 2009 चुनाव से पहले कांग्रेस ने भी चुनावी वर्ष में ही किसानों का कर्ज माफ किया था।

अब सवाल यह नहीं है कि, गन्ने पर राजनीति होती है। वह तो होती ही है, और आगे भी होती रहेगी। आखिर गन्ना की भूमि कहे जाने वाले कैराना की हार के बाद गन्ना किसान दिल्ली मोदी से मुलाकात करने पहुंचतें हैं, जबकि मनमोहन सरकार के वक्त चीनी का कटोरा कहा जाने वाला मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक आग में सुलगाया गया था।

सवाल यह है कि अगर राजनीति किसानों को व्यक्ति नहीं वोट माने, तो भी अगर सरोकार साधे जाते हैं, तो वो साधने चाहिए। लेकिन इस बात का भी एहसास जरूर रखना होगा कि, आने वाले सालों में किसानों के हित नेताओं की नीतियां नहीं बल्कि उद्योग जगत की रणनीतियां तय करेंगी। बीज से ट्रैक्टर तक, फूड प्रोसेसिंग से और फूड कंपनियों तक जो निवेश हो रहा है वह किसानों को वोट तक नहीं मानता,  बल्कि किसान उसके लिए बाजार हैं, जहां किसान कबीरा सा बाजार में खड़ा रह जायेगा,  जो बेचेगा भी और बिकेगा भी। अब यह अन्नदाताओं के हाथ में हैं कि वह अपनी हैसियत का एहसास निवेशकों और नेताओं को किस तरह से दिखाते हैं। क्योंकि जब गन्ना पिसता है तो चीनी बनती है, पर जब गन्ना उठता है तो लट्ठ बनता है और सिर्फ पिसते रहना तो भारतीय किसानों की नियति हो नहीं सकती।

राहुल डबास 

टीवी पत्रकार

सोमवार, जून 25

काल के जाल में कश्मीर


कश्मीर समस्या क्या है?  इसका उत्तर आपकी सोच पर निर्भर करता है। अगर आपका चश्मा भगवा रंग में रंगा है, तो आपको नजर आएगा नेहरू का दौर, कि कैसे ताकतवर देश होने के बावजूद भारत 1948 में संघर्ष विराम करवाने के लिए संयुक्त राष्ट्र की दहलीज पर जा पहुंचा था? आपको राजा हरि सिंह और कांग्रेस नेतृत्व की साझा उपज धारा 370 भी दिखाई देगी, इसी धारा के तहत इस राज्य को मिले कुछ विशेष प्रावधानों के तहत अगर कोई कश्मीरी लड़की भारत के किसी भी राज्य के लड़के से शादी करती है तो कश्मीर से उसकी संपत्ति का हक समेत कई दूसरे नागरिक अधिकार समाप्त हो जाएंगे, लेकिन वही लड़की पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में शादी करती है तो कश्मीर में उसके सभी अधिकार पहले जैसे ही बने रहेंगे। हालांकि तब से अभी तक धारा 370 में कई संशोधन भी हुए हैं, जैसे कभी कश्मीर में प्रधानमंत्री का पद बदल कर  मुख्यमंत्री में तब्दील हो गया, राष्ट्रपति शासन न सही राज्यपाल शासन तो लगाया ही जा सकता है और कश्मीर के  इतिहास में 8 बार लगाया भी जा चुका है, मौजूदा वक्त भी राज्य में राज्यपाल शासन ही चल रहा है। आपको वो दौर भी नजर आएगा जब 65 की जंग में भारत लाहौर तक पाकिस्तानी फौज को खदेड़ चुका था और जाट रेजिमेंट ने हाजीपीर भी जीत लिया था, इस जीत के चंद दिनों के भीतर हम पूरा कश्मीर भी वापस ले सकते थे, न जाने किस दबाव में ताशकंद का समझौता हुआ और हमने सेना को सीमा पार करने जैसा सख्त और सटीक आदेश देने वाले लालबहादुर शास्त्री को गवां दिया। आपको शिमला समझौता भी नजर आएगा कि, कैसे पाकिस्तान के दो टुकड़े करने वाली इंदिरा गांधी भी कश्मीर की समस्या का हल नहीं तलाश सकीं? इसी बहाने पी.वी नरसिम्हा राव का वह दौर भी याद कर लीजिएगा जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के घाटी छोड़ने के नारे लगे थे, उस वक्त आतंकी सरेआम ‘कश्मीरी पंडित चाहिए लेकिन औरतों के साथ, आदमियों के बिना’ के इश्तहार बांटते घूम रहे थे और तत्कालीन कांग्रेसी सरकार सिर्फ गूंगी-बहरी ही नहीं अंधी भी बनी हुई थी।

अब कश्मीर को सियासी चश्में के एक दूसरे लेंस से देखते हैं। अगर आप कांग्रेसी नजरिए से इत्तफाक रखते हैं तो आपको इसका दूसरा पक्ष भी साफ-साफ नजर आता है। जैसे ‘जहां हुए शहीद मुखर्जी-वह कश्मीर हमारा है’ का नारा लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी जब पहले-पहल सत्ता में आई, तो खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई बस में बैठ कर दोस्ती का हाथ बढ़ाने लाहौर जा पहुंचे थे। समझौता एक्सप्रेस भी चलाई गई, हुर्रियत को दिल्ली से बात-चीत का न्योता भी मिला, लेकिन इन तमाम खुशगवार कोशिशों के बदले पाकिस्तान ने कारगिल के जरिए हमारी पीठ पर छुरा ही भोंका। इसी कारगिल युद्ध के सेनापति जनरल परवेज मुशर्रफ जब राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ बने तो हमारी ‘अटल’  वाजपेई सरकार ने उन्हे प्रेमपूर्वक आगरा का ताजमहल दिखाया, दिल्ली की बिरयानी खिलाई और समझौते की तैयारी भी की। कहा जाता है कि अगर तत्कालीन सूचना-प्रसारण और मौजूदा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उस वक्त बयान नहीं दिया होता, तो शायद मुशर्रफ और वाजपेई कश्मीर पर तैयार किए गए उस ऐतिहासिक समझौते पर दस्तखत भी कर देते। तमाम घटनाक्रमों पर नजर दौड़ाएं तो मौजूदा मोदी सरकार भी वाजपेई सरकार से कम नहीं रही। शपथ समारोह से लेकर नवाज शरीफ के परिवार की शादी तक मोदी और नवाज साथ-साथ दिखे। पठानकोट एयरबेस में हमला करने वाले आतंकवादियों की शरणस्थली पाकिस्तान के अधिकारी ‘कथित रूप से आईएसआई अधिकारी’  पठानकोट पहुंचकर हमले की जांच भी करते हैं , लेकिन 56 इंच वाली सरकार खामोश रहती है। प्रधानमंत्री खुद कहते हैं कि उत्तर और दक्षिण ध्रुव के संगम से विकास होगा और बेमेल होने के कटाक्षों के बीच भी BJP- PDP के साथ सरकार बना लेती है। सरकार गठन के बाद से प्रधानमंत्री 10 दफे कश्मीर जाते हैं, जवानों से मुलाकात कर दीवाली मनाते हैं, लेकिन वो मुखर्जी और 370 धारा दोनों को भूल जाते हैं, लेकिन अचानक चुनाव से 1 साल पहले गठबंधन धर्म पर चलने वाली पार्टी को राजधर्म याद आता है और वो राष्ट्रधर्म की दुहाई देते हुए रास्ते अलग कर लेती है।

जम्मू कश्मीर को समझना हो तो करीब से समझना होगा। टीवी चैनलों की बहसों में कश्मीर की समस्या तो नजर आ सकती है लेकिन कश्मीरी सरोकार नहीं, क्योंकि जब भी जम्मू-कश्मीर की बात होती है, तो घाटी के प्रतिनिधि को ही बिठाया जाता है। क्या कभी किसी टीवी डिबेट में जम्मू कश्मीर पर चर्चा के दौरान आपने जम्मू या लेह के किसी प्रतिनिधि को बहस करते देखा है ? दरअसल टीआरपी भी राष्ट्रवाद का लबादा ओढ़े घाटी के कट्टरपंथियों से ही मिलती है। ऐसा भी नहीं है कि हिंदू, सिख और बौद्ध बहुल क्षेत्रों को छोड़ पूरा राज्य मानसिक तौर पर भारत से खफा है। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि आप रात 1 बजे भी कारगिल जिला मुख्यालय जाओगे तो आपको डर नहीं लगेगा, जबकि कारगिल में 90 फीसदी आबादी मुस्लिम है। द्रास में तो होटल की रसोई में जाकर मेरी प्रोफेसर मित्र ने कश्मीरी खाना बनाना सीखा, पर अंतर तब आता है जब भारत-पाकिस्तान और चीन की सीमा से लगा जोजिला दर्रा पार किया जाता है। सोनमर्ग पहुंचते ही नजारे और मिजाज दोनों ही बदल जाते हैं। जोजिला के उस पार के सूखे-मुरझाए से पहाड़ दिलकश हरियाली में तब्दील हो जाते हैं। अचानक से चिनार, देवदार के दरख्त, खुली-फैली खूबसूरत घाटियां, हाथों में संगीने लिए सुरक्षा बलों के जवान नजर आने लगते हैं और इसी के साथ ही हाथों में पत्थर लिए और इंडिया गो बैक के नारे लगाते युवा भी।

घाटी में पहुंचकर घाटी के हालातों को भी करीब से देखना जरूरी है। वहां के स्थानीय पत्रकार बताते हैं, जब भी घाटी में कर्फ्यू लगता है तो उस दौरान रिपोर्टिंग के पास स्थानीय कश्मीरी पत्रकारों को न देकर दिल्ली के नेशनल रिपोर्टर्स को दिए जाते हैं। कश्मीर को लेकर अगर आपकी रुचि है तो "हाफ विडो विलेज" जैसे सच भी कश्मीर जाकर ही नजर आते हैं। श्रीनगर से चंद किलोमीटर दूर ही ऐसे कई गांव हैं, जिन्हें हाफ विडो विलेज की संज्ञा दी जा सकती है। ‘हाफ विडो विलेज’ यानी ऐसा गांव जहां के कई पुरुष या तो सुरक्षाबलों की गोलियों का निशाना बन गए, या उन्हें आतंक के समर्थन के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया हो। कई बार तो डर से सभी जवान मर्द गांव छोड़कर ही भाग गए हैं। ऐसे गांवों की औरतें आधी विधवा या यूं कहें कि आधी सुहागन कहलाती हैं। अपने पति, बेटों की वापसी की राह ताकती इन औरतों को पता ही नहीं होता कि उनके पति जिंदा भी हैं या नहीं,  वो कश्मीर में है या पाकिस्तान भाग चुके हैं। उन गांवों में सिर्फ आधी-अधूरी उम्मीदें लिए औरतें रहती हैं। धीरे-धीरे गांव के गांव पुरुषों से खाली होने लगे और ‘हाफ वीडो विलेज’ में तब्दील हो गए। इन गांवों में भारतीय सेना के ऊपर यौन शोषण के आरोप भी लगते रहे हैं। मैं कोई जज नहीं, जो राजदंड की ताल ठोक कर कह सकूं कि वह सभी आरोप गलत हैं, लेकिन यह आरोप धर्म के नाम पर सिर्फ कश्मीर में लगाया जाना और इनका कश्मीर के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय चश्मे से देखा जाना भी गलत है। ऐसे आरोप मध्य भारत के नक्सलवादी इलाकों से लेकर पूर्वोत्तर के उग्रवादी समर्थक क्षेत्रों में भी सुरक्षा बलों पर लगाए जाते रहें हैं।

कश्मीर की समस्या को समझना हो तो फिल्मों की सिल्वर स्क्रीन से भी समझा जा सकता है। साठ और सत्तर के दशक का कश्मीर मोहब्बत के रंग में रंगा नज़र आता था। सायरा बानो की हसीन जुल्फें, चिनार के सूखे-सुनहरे पत्ते, खूबसूरत सी डल और उसपर चल रहे शिकारे, यानी तब सिल्वर स्क्रीन के लिए भी कश्मीर जन्नत ही थी लेकिन 90 का दशक आते-आते फिल्मों में भी कश्मीर के हालात बदलते गए। ‘मिशन कश्मीर’  में मोहब्बत नहीं मातम दिखता है और लालचौक पर धमाके के बाद मरघट सी शांति, फिर भावनाएं भड़काते हुए सनी देओल का वो डायलॉग याद आता है कि 'दूध मांगोगे तो खीर देंगे पर कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे’। बीते 70 सालों में फिल्मी फसाने से लेकर हकीकत के अफसानों तक और सायराबानो से लेकर सनी देओल तक कश्मीर बहुत बदल चुका है।

कुछ साल पहले कट्टरपंथी कहे जाने वाले समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान के साथ चर्चा चल रही थी। आज़म बोले ‘जब 6 दिसंबर 1992 के मनहूस दिन हिंदुस्तान  का सेकुलरिज्म जल रहा था, तब भी कश्मीर शांत था। भारतीय मुसलमानों से कश्मीरी और कश्मीरियों से भारतीय मुसलमान कम से कम मज़हब के नाते नातेदारी नहीं रखते’ यह तो रही कट्टरपंथी नेताओं की बात, अब  सेक्युलर छवि वाले कांग्रेसी नेता राशिद अल्वी का जिक्र करता हूं। यह तब की बात है, जब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे और करण पैलेस में आईबी के सर्वोच्च अधिकारी के तौर पर मनमोहन सिंह के कथित दामाद तैनात थे। अल्वी के घर कुछ कश्मीरी युवा आए थे, संयोगवश मैं भी वहीं मौजूद था,  उन युवाओं ने  अल्वी से कहा कि उनको तो कश्मीर की आजादी ही चाहिए -  तभी राशिद अल्वी ने उनसे सवाल किया "यह बताओ तुम्हारे घर में क्या कोई संपत्ति विवाद है?" सवाल सुनकर एक कश्मीरी युवक उठ खड़ा हुआ और बोला "हां मेरे घर में है, मेरे चाचा के साथ," युवक ने कहा कि वो गुलमर्ग में रहता है और उनके चाचा उनकी जमीन हड़पना चाहते हैं। युवक का जवाब सुन राशिद ने मुस्कुराते हुए कहा कि "समस्या का एक आसान समाधान है, क्यों नहीं अपनी सारी जमीन चाचा को ही दे देते हो, घर परिवार का मामला है, खून का रिश्ता है चाचा को सारी जमीन दे दो.." लड़का बोला "यह कैसे हो सकता है सर ?" कांग्रेसी नेता ने अकलमंद जवाब दिया बोले जब आप अपने परिवार में अपने सगे चाचा को अपनी जमीन नहीं दे, सकते तो हिंदुस्तान कश्मीर कैसे छोड़ सकता है ? आप को विकास चाहिए , तो केंद्र सरकार की योजनाएं हैं, चाहे हमारी सरकार रहे या NDA की बन जाए, लेकिन कश्मीर कोई नहीं देगा। यह जान लीजिए और मान लीजिए।

कश्मीर और कश्मीरियत की बात पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेई भी किया करते थे और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी करते हैं, लेकिन कश्मीरियत और कश्मीर दोनों तेजी से बदलते जा रहे हैं। मुझे याद है जब मैं पहली बार कश्मीर गया था तो टैक्सी ड्राइवर हिंदी में बातें कर रहा था। ये उसपर हिंदी फिल्मों का असर था।  हालांकि हमारे पहुंचने से कुछ रोज पहले ही श्रीनगर के एकलौते सिनेमा घर को हिंदी फिल्में दिखाने के जुर्म में आग लगा दी गई थी। दरअसल  हुर्रियत ने घाटी में हिंदी फिल्में न दिखाने को लेकर फरमान जारी कर दिया था, फिर भी ड्राइवर भाई की हिंदी अच्छी थी। मैंने पूछा भाई हिंदी में बात तो कर लेते हो क्या हिंदी में पढ़ना-लिखना भी आता है?  टैक्सी ड्राइवर ने जवाब दिया कि फिल्मों की वजह से, टूरिज्म के लिए हिंदी बोलना तो सीख लिया है लेकिन लिखना इसलिए नहीं आता क्योंकि 90 के दशक में, उसके बचपने में ही हिंदी पढ़ानें वाले कश्मीरी पंडित घाटी से खदेड़ दिए गए थे। लिहाजा ड्राईवर हिंदी बोलना तो सीख गया लेकिन लिखना-पढ़ना नहीं सीख सका। जाहिर तौर पर ड्राईवर का ये कथन यह जताने के लिए काफी है, कि जो कश्मीरियत कश्मीरी युवाओं के अंदर वाजपेई के कालखंड में हुआ करती थी, अब वह बदलने लगी है, क्योंकि तब के युवा आज अधेड़ उम्र के हैं और जिन युवाओं ने कभी दिलीप कुमार और सायरा बानो के साथ राज कपूर की फिल्मों की शूटिंग घाटी में देखी होगी, वो आज उम्र के आखिरी पायदान पर खड़े हैं। लिहाजा वक्त के साथ हालात बदल रहे हैं, लेकिन कुछ हालातों को हम नहीं जान पाते और कुछ को जान भी जाते हैं तो मानने को तैयार नहीं होते।

राज्यपाल शासन में संभव है कि लाल चौक से डल झील की 3 किलोमीटर लंबी सड़क पर इंडिया गो बैक के नारे मिटा दिए जाएं, लेकिन isis के झंडे और हाथों में पत्थर लिए युवाओं की सोच कैसे बदली जाएगी?  क्या जिनके हाथ में बंदूके हैं, उन्हें ही आतंकवादी माना जाए? लेकिन जिनके दिलों में जिहादी सोच और हाथ में पत्थर हों, कैसे मान लिया जाए कि वह आतंकवादी सोच से वास्ता नहीं रखते? या हम इंतजार करें, उस दिन का जब हर पत्थरबाज के हाथों में एके-47 आ जाए। क्या तभी हम उन्हें रोकने के लिए बल प्रयोग करेगें? तब तक वह पत्थरबाज सिर्फ भटक हुए बच्चे ही हैं।

समस्या बहुत बड़ी है पर समाधान क्या है? कश्मीर को जानने वाले कुछ सूडो सेक्युलरवादी कहते हैं, कि कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय तौर पर एक आजाद मुल्क घोषित कर दिया जाए,  जहां भारत, पाकिस्तान और चीन के किसी भी व्यक्ति को आने-जाने , व्यापार करने की आजादी हो.. पर मुझे लगता है, यह वही सपना है, जो कभी यरूशलम के लिए देखा जाता था। इसी तरह के शब्दों के सर्कुलर फिलिस्तीन और इजराइल के बीच भी सुने-कहे जाते थे। तब वहां के सेक्युलर लोगों की ख्वाहिश थी कि जेरूसलम को वेटिकन सिटी की तरह ईसाइयों, यहूदियों और मुसलमानों के लिए समान रूप से खोल दिया जाए, लेकिन आज की तारीख में यरुशलम इज़राइल की राजधानी है ,जहां अमेरिका समेत आधा दर्जन देशों के दूतावास भी खुल गए हैं। कश्मीर की बात करें तो यहां चीन, भारत और पाकिस्तान तीनों ही परमाणु शक्तियां हैं, लिहाजा आजादी का हल सिर्फ आदर्शवादी किताबों तक ही सीमित है।

एक और सवाल पैदा होता है कि दिल्ली भले ही घाटी के विकास की कितनी भी योजनाएं लेकर आ जाए, पाकिस्तान और पाकिस्तान परस्त संगठन उस पर पानी फेरते रहेंगे। पाकिस्तान के साथ भी हम कश्मीर को लेकर ही 48 से लेकर 99 तक 4 जंगें लड़ ही चुके हैं, लेकिन कश्मीर समस्या जस की तस ही रही।  तो क्या इसका हल शांति के प्रयासों पर पानी फेरने वाले पानी के अंदर ही छिपा हो सकता है? याद कीजिए खिलाफत आंदोलन का वह दौर जब ऑटोमन एंपायर को मुस्लिम सल्तनत का खलीफा माना जाता था, लेकिन पाशा के नेतृत्व में टर्की में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता स्थापित हुई। उस दौर में अरब देश टर्की को आंखें दिखा रहे थे, लेकिन तुर्किस्तान ने जवाब दिया कि हमारे पास टिगरिस और यूपीरेटिस नाम की दो अहम नदियां हैं, जिनके पानी से अरब की प्यास बुझती है, तुर्की ने उन नदियों का पानी रोक देने और अरबों को उनका काला तेल पीने की भी धमकी दी। इसीतरह याद रखने लायक बात यह भी है, जिस सिंधु से लेकर पंजाब की सभी नदियां हिंदुस्तान से होकर ही बहती हैं, यानी टर्की की तरह पानी की लगाम हमारे हाथ में भी है, जो बिना बंदूक के भी पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकती है।

अगर ताकत के सहारे आतंकवाद को खत्म किया जा सकता है,  तो इसका उदाहरण हमारे अपने देश में ही है। जिस पंजाब से पांचों नदियों का पानी गुजरता है, उसी पंजाब से खालिस्तान का आतंकवादी दौर भी गुजरा था। जिसे केपीएस गिल जैसे पुलिस अधिकारियों और सत्ता के सख्त रुख ने रबी और खरीफ की फसलों की तरह पंजाब की धरती से काट फेंका।  हां उसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ी, प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री और जनता से लेकर सेना तक ने ये कीमत चुकाई, लेकिन उसी कीमत की बदौलत आज पंजाब शांत और खुशहाल है । यानी कीमत चुकाने के लिए तो हमें तैयार रहना ही होगा। बिना कीमत के ना तो समस्या मिलती है और ना ही समाधान।

वैसे ही सिर्फ बंदूक की गोली से कश्मीर की सत्ता हमारे पास रहे, यह चीन की माओवादी सोच हो सकती है, लेकिन गांधीवादी भारत की नहीं,  इसलिए गांधी और भगत सिंह की तर्ज पर लाठी और गाजर की नीति अपनाना जरूरी है। यह सोचना जरूरी है कि, जिनके हाथ में हथियार हैं वह हाथ काट डाले जाएं और उनकी कब्रें एनकाउंटर की जगह ही खोद डाली जाएं। जिससे उनके जनाजे में कट्टरपंथियों की भावनाएं, बंदूक की गोलियां और पाकिस्तान परस्ती के नारे नही गूंजे। इस समस्या को हिंदू या मुसलमान के चश्मे से देखने की भी जरूरत नहीं। आपको याद होगा मुलायम सिंह के रक्षा मंत्री बनने से पहले परिवार की भावनाओं को देखते हुए भारतीय सेना के शहीद जवानों का शव उनके परिवार को नहीं दिया जाता था। जब भावनाओं को देखते हुए जवानों के शव को परिवार के सुपुर्द करने से रोका जा सकता था। तो आज भावनाएं भड़काने पर रोक लगाने के लिए दहशतगर्दों के शवों को एनकाउंटर स्थल पर ही दफना देने से भी किसी को कोई परहेज नहीं होना चाहिए।

कश्मीर की समस्या के हल के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, राजनीतिक सोच की..सत्ता की इच्छा के बिना कुछ नहीं हो सकता, लेकिन यहां सत्ता को चुनावी तारीखों से दूर देखना होगा । क्योंकि गुलाम नबी आजाद का ताजा बयान और उस पर BJP के रविशंकर प्रसाद की प्रतिक्रिया, पूरा घटनाक्रम यह जताने के लिए काफी है कि चुनावी लाभ के लिए दोनों राष्ट्रीय दल कश्मीर की समस्या का सांप्रदायीकरण करने से कतई नहीं चूकेगें ।  गुलाम नबी आजाद जब कांग्रेस मुख्यालय में प्रेस वार्ता करते हैं, तो हमसे पूछते हैं कि तुम दिल दिमाग और शरीर से यहां हो या नहीं हो? आज मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आप दिल दिमाग और शरीर से हिंदुस्तानी हैं, हिंदुस्तान के संविधान के साथ हैं या नहीं?  अगर आजादी देनी है तो भारतीय सेनाओं को देनी चाहिए। हमें भी देखना होगा कि कैसे चेचेन्या में रूस और बलूचिस्तान में पाकिस्तान ने अलगाववादियों और विद्रोहियों का दमन किया है।  हमें सेना को बेहतर हथियार और संसाधन देने होंगे, क्योंकि जब आतंकवादियों के हाथ में एके-56 हो और हमारे अर्धसैनिक बलों के जवानों के हाथ में देसी इंसास, तो यह मुकाबला कई बार बराबरी का  नहीं रहता । अगर कश्मीर की समस्या का हल चाहिए तो सीखिए डोनाल्ड ट्रंप से कि कैसे उत्तर कोरिया के तानाशाह को डराकर बातचीत के टेबल पर बुला कर लोकतांत्रिक तरीके से बिना हिंसा के अपनी बात मनवाई जा सकती है । कश्मीर की समस्या को अगर हिंदू मुसलमान के चश्मे से देखना बंद कर दिया जाए और गाजर और लाठी की नीति के तहत एक हाथ में विकास और एक हाथ में सत्ता का सैनिक चाबुक रखा जाए, तो घाटी में अमन का दौर फिर वापस लौट सकता है । लेकिन इसके लिए 'हमें' साथ आना होगा। यहां हम का अर्थ हिंदू + मुसलमान से नहीं, ना ही श्रीनगर + दिल्ली से है। यहां हम का अर्थ हैं आपसे और मुझसे क्योंकि हम से हैं हिंदुस्तान हैं और हम ही हैं जो कश्मीर में करिश्मा कर सकते हैं।

राहुल डबास
टीवी पत्रकार

सोमवार, जून 18

इंसान: इतिहान बनेगा या इतिहास बनाएगा!

हमारी पीढ़ी पर दो साइंस फिक्शन फिल्म या यूं कहा जाए 2 साइंस फिक्शन की धाराओं का बुनियादी असर पड़ा। यहां पीढ़ी का अर्थ है, जिनका बचपन 90 के दशक में गुजरा हो, वह दशक जब भारत में अर्थव्यवस्था के खिड़की और बाजार के दरवाजे विश्व के लिए खोल दिए थे। वह दशक जब सब कुछ नया नजर आ रहा था, उस दशक में दो फिल्मों की सीरीज की खासी अहमियत रहती थी।  जिसके सीक्वल आज भी बच्चों और युवाओं को नए अंदाज में नई दुनिया के दर्शन कराते हैं "टर्मिनेटर और जुरासिक पार्क"।

यह सिर्फ दो फिल्में ही नहीं भविष्य की दो धाराएं भी हैं। जो वर्तमान को डराते रहते हैं, एक है एआई की तकनीक, दूसरी है पुरातन का नूतन रूप।  एक में वो इतिहास दिखाया जो वर्तमान में डायनासोर के रूप में खड़ा हो जाता है, जो जेनेटिक और DNA के प्रयोग से ऐसे जुरासिक काल के मांसाहारी प्राणी के रुप में सिल्वर स्क्रीन पर ऐसे नजर आए मानो, उनमें मानव की बुद्धि हो, दानव की ताकत और देवताओं की अलौकिक कला..।

वही भविष्य को वर्तमान में दिखाने की कोशिश टर्मिनेटर ने दिखाई कि कैसे एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इंसान के चेतन मस्तिष्क को आदिमानव से बौना समझता है और जानता है कि भविष्य मानव नहीं मशीन तय करेंगी।

ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ सिल्वर स्क्रीन की तकनीकी कल्पना हो, बल्कि इसका सरोकार ऐसे भविष्य से है। जो जितना ललचाता है, उतना ही डर आता भी है। DNA को समझे बमुश्किल तीन-चार दशकों का दौर गुजरा है और अभी से हम DNA के जरिए कैंसर जैसी बीमारी के इलाज की वास्तविक कोशिश करने लगे हैं। वैज्ञानिकों की माने तो आने वाले चंद दशकों के अंदर हम अपने बच्चों के भविष्य को गर्भ में ही तय कर पाएंगे। DNA के जरिए हम यह पहली ही तय कर लेंगे कि उससे बुद्धि ज्यादा देनी है या बल। आज भी लाइफ-कार्ड के जरिए स्टेम सेल्स को संरक्षित करना आम हो चुका है। जिसके जरिए DNA की जैविक ताकत का प्रयोग किया जा सकता है।

अभी तकनीक हड्डियों से डायनासोर के DNA को जिंदा करने की ताकत नहीं रखती। फिर भी विज्ञान के शुरुआती दौर में छोटा ही सही पहला कदम हमने रख लिया है। कई सरकारें आज भी इससे डरी हुई है, तभी ज्यादातर उन्नत जैविक और डीएनए के प्रयोग इंटरनेशनल वाटर में किए जाते हैं, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समुंद्र वह क्षेत्र है जहां किसी देश के राष्ट्रीय कानून नहीं चलता हैं। वैज्ञानिकों का एक वर्ग डायनासोर जैसी प्रजाति तो नहीं, लेकिन इंसान के शरीर को DNA के जरिए विकसित करना चाहता है।  जिससे एड्स और कैंसर का इलाज ही नहीं बल्कि महामानव का जन्म हो, जबकि वैज्ञानिकों का दूसरा वर्ग इतना डरा हुआ है, कि उन्हें लगता है कि बतौर ह्यूमन सेपियन यह सदी हमारी आखरी सदी होगी। इसके बाद ऐसे महामानव का विकास DNA के जरिए होगा जिसे प्राकृतिक रूप से विकसित होने में लाखों साल लग जाते।

ऐसे विकास से डरना लाजमी है, क्योंकि तब इंसान आज से कहीं अधिक शक्तिशाली होगा और आज का मानव भी प्रकृति और पृथ्वी ही नहीं खुद न्युक्लियर पावर की वजह से अपनी अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा। हमारी सदी के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में से एक स्टीफन हॉकिंग्स में कुछ ही सालों पहले भविष्यवाणी की थी कि, मानव अस्तित्व को सबसे बड़ा खतरा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के भविष्य से है।

अब बात करते हैं टर्मिनेटर की बुनियादी सोच की, जिसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अहम किरदार अदा करती है। आपको लगता होगा कि टर्मिनेटर के रोबोट ह्यूमन बॉडी आर्नोल्ड जैसा विकास हमें दूर तक नहीं दिखता, लेकिन जो आज हो रहा है वह भी किसी करिश्मा से कम नहीं है। इसकी बुनियाद हमें 1955-56 तक ले जाती है, जब अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस शब्द को पहली बार एक सेमिनार में प्रयोग किया था । जिसके बाद 80 के दशक तक जापान, ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन ने भी ऐआई को आगे बढ़ाने के लिए सरकारी नीतियों के तहत प्रयास शुरू कर दिए। यहां तक की 2017 में  भारत की नीति आयोग ने भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को बढ़ावा देने के लिए नीति बनाने की शुरुवात की है, हालांकि हम सॉफ्टवेयर सुपर पावर बनने के बावजूद दुनिया से काफी पिछड़े हुए हैं।

मौजूदा दौर में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आपको हर जगह नजर आती है। भले ही उसकी शक्ल और शक्तियां ट्रांसफार्मर से अलग हो, पर वह है जरूर। एक दशक पहले जब iPhone ने सीरी का प्रयोग किया तो हमें वह एक खिलौना लगती थी, एक ऐसा खिलौना जो हमारे सवालों के जवाब देने की कोशिश करती है, पर धीरे-धीरे उसमे में मानवीय पहलू नजर आने लगे और अब तो Google ने Android के जरिए गूगल असिस्टेंट का बेहतर एआई वर्जन भी बाजार में उतार दिया है। कभी सोचा है कि आपका Facebook सजस्टिस फ्रेंड्स कैसे ढूंढता है उसके पीछे भी एआई है और जब आप गुगल मैप पर होम लिखते है तो वो आपको आपके घर का रास्ता बिना पता लिखे दिखाना है, क्योकि एआई जानता है की आप दफ्तर से रोज़ शाम कहां जाते है, उसी रास्ते को वो घर का पता मान लेता है।

कौन सोच सकता था, वह देश जहां लोकतंत्र नहीं राजशाही हो, यहां के कानून को सभ्य समाज मध्यकालीन परंपराओं से जोड़ता हो,  ऐसे सऊदी अरब में दुनिया की पहली रोबोट सोफिया बन जाएगी, जिसे सऊदी की नागरिकता मिल जाए। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस हर जगह है, आप के फोन से लेकर आधार कार्ड तक। जिसमें चीन सबसे व्यापक प्रयोग करता हुआ नजर आ रहा है। जहां सीसीटीवी से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को कुछ इस कदर जोड़ा गया है, जो लाखों करोड़ों कैमरों से अपने नागरिकों पर पैनी निगाह रखता है और किसी को भी उसके फेशियल रेकोनिजेशन से पहचान सकता है और अब तो चीनी तकनीक का निर्यात भी शुरू हो गया है। यानी दुनिया का सबसे शक्तिशाली तानाशाही मुल्क चीन अपने नागरिकों पर अनदेखे जाल से नजर रखता है। यहां तक की चीन में लोग अगर अपने फ़ोन या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म की चैट में रिपब्लिक, रेड आर्मी, माओ जैसे शब्द लिखते हैं तो वो अपने आप रिकॉर्डिंग मोड पर चली जाती है।

एआई हर जगह है, जहां आप सोच भी नहीं सकते वहां भी। चीन के बाद अमेरिका की बात करें, तो वह भी अपनी हेल्थ पॉलिसी को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जोड़ रहा है। यानी अगर आप बियर बार में ज्यादा वक्त गुजारते हैं तो, आपकी हेल्थ इंश्योरेंस महंगी हो जाएगी, क्योंकि आपके फोन की जीपीएस लोकेशन यह बता देगी कि आप धूम्रपान या मद्यपान ज्यादा करते हैं। वहीं युरोप के कुछ देशों में अगर अपना फिटनेस बैंड पहनकर आप 8 हज़ार कदम से कम एक दिन में चलते हैं तो डब्ल्यूएचओ के निर्देशानुसार उसे बीमारी को न्योता माना जाएगा, जिससे हेल्थ इंश्योरेंस और महंगी हो जाएगी। यानी हर जगह, आपकी हर हरकत कोई देख रहा है और वह एक इंसान की नहीं बल्कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की है।

यह पूरा लेख भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिए लिखा गया है। जिसमें वॉइस टाइपिंग कमांड का इस्तेमाल किया गया है। जो आपकी भाषा के साथ शैली को जोड़कर शब्द के उच्चारण के आधार पर उसे लिखता है। जैसे अंग्रेजी भाषा के लिए अमेरिका, ब्रिटेन, युरोप, भारत, ऑस्ट्रेलिया जैसे अलग-अलग देशों और महाद्वीपों की उच्चारण शैली को अलग-अलग रखा जाता है। ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने 700 टेराबाइट जितनी सूचना संग्रह सिर्फ 1 ग्राम DNA में हासिल कर लिया है।

ऐसी में सवाल उठता है कि हमें डरना किससे चाहिए DNA या एआई क्योंकि जहां डीएनए ह्यूमंस सेपियन के तौर पर हमारे विकास की विरासत को बदलने में लगे हैं। वही आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वीक एआई, से स्ट्रांग एआई और स्ट्रांग एआई से सिंगुलैरिटी में तब्दील होने की फिराक में है। जिसके बाद आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को माननीय दखल की जरूरत नहीं पड़ेगी,  उदाहरण के तौर पर एक  ऐसा ड्रोन को खुद बमबारी करेगा,  बिन किसी आदेश के। एआई खुद फैसला लेगी और तय करेगी कि इस दुनिया को किस ढांचे में ढालना है।

तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए की टर्मिनेटर में दिखाया गया कयामत का दिन तय है, बस तारीख का ऐलान बाकी है और जुरासिक वर्ल्ड की तरह कोई नई स्पीशीज मौजूदा इंसान की जगह ले लेगी भले ही वह डायनोसोर नहीं भविष्य का महामानव हो जिसे DNA तकनीकी मदद से मुमकिन किया जाएगा।

आपको लग सकता है कि यह डर दिखावटी है, पर जो सच हो चुका वह दिखाने के लिए काफी है कि दुनिया बदल रही है। ऐसे में याद आता है डार्विन का वह सिद्धांत कि, सिर्फ एक चीज ऐसी है जो रुक नहीं सकते वह है बदलाव। बदलाव होता रहा है, होता रहेगा और जो नहीं बदल पाएगा वह इतिहास बन जाएगा। अब यह मौजूदा मनुष्य के हाथ में है कि वह इतिहास बनेंगे या इतिहास बनाएंगे।