इसे जून का जादू कहें या जन के जज्बात लेकिन जून का महीना है, कांग्रेस की सरकार, आवाम की हालत और आपातकाल के हालात सभी समान नज़र आते हैं...। महज़र किरदार बदल गए पर कहानी नहीं बदली। जय प्रकाश नारायण का ज़ज़्बा और लोहिया के लोग अब अन्ना के अनशन और रामदेव के सत्यागृह में बदल गए हैं। आज अन्ना को RSS का मुखौटा कहा जाता है कभी जेपी के नक्सिन का मास और CIA का एजेंट कहा गया था..। दिल्ली के प्रेस कल्ब में अन्ना आवाहन करते है कि लोकपाल के लिये मरना मंज़ूर है और 1974 में पटना से जेपी जवाब देते थे भारत में रुसी क्रांति के वास्ते पुलिस और सेना का सरकार का साथ छोड़ना होगा..।
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आप इसे महज़ संयोग कह सकते है, यह भी 74 का भारत, 2011 के इंडिया जुदा है। पर जून का जादू और कांग्रेस का हाथ वहीं है..। 2011 में, 50 ख़बरिया चैनलों की मौजूदगी में, 50000 लोगो के आंखों के सामने, दिल्ली के रामलीला मैदान में जो पुलिया भीड़तंत्र देखने को मिला क्या आपको वो संभव लगता था..? इसे अरिंदम चौधरी अपने मैगज़ीन को बेचने के लिये इसे 2011 का जंलियावालाबाद कह सकते है। सुप्रीम कोर्ट सवाल उठा सकती है कि रात में 1बजे सोये हुऐ लोग क्या कानून व्यवस्था बिगाड़ सकते थे..? अंकल सैम के हाइट-हाउस से इसपर प्रतिक्रिया आती है पर हम खामोश रहते है...? अगर आपके कालोनी में आज सिलिगं करने MCD वाले पहुंच जाए तो आप चुप नहीं बैठेगें..। घर पर काम वाली बाई अगर वक्त पर ना पहुचे तो आप चुप नहीं बैठेंगे..। आपकी गाड़ी को कोई गलत तरीके से ओवर-टेक कर जाए तो आप चुप नहीं बैठेगें..। पर आज ख़ामोश क्यो है..?
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कहते हैं कि जहां पोल्टिकल विल का The End और जाता है वही से पब्लिक विल की क्रांति शुरु होती हैं। आज बाबा की रामलीला का अंत हो चुका है और महाभारत की शुरुवात भी..। अन्ना और बाबा दोनो के लक्ष्य एक है पर नीति नहीं....जैसे गांधी का स्वराज और मार्क्स का साम्यवाद। हांलाकि कुछ लोग कहते है कि बाबा की गाढ़ी में कई तिनके है, तभी हाथ ने पुलिस के दम पर उन्हे उखाड़ दिया जबकि अन्ना क्लीन शेव है। बाबा के पास भगतों का काडर है पर अन्ना के पास आवाम की आवाज़..। या यू कहें कि बाबा के पास भग्तो का काडर तो है पर पड़े-लिखे जवान नहीं। वहीं अन्ना के पास शहरी युवाओं की खुशबु तो है पर बाबा की तरह ग्रामीण भारत की महक नहीं।
यहां सवाल यह भी उठता है क्यों लोकपाल के लिये अन्ना या कालेधन के लिये बाबा की बलि देना जायज़ होगा..क्योंकि आमरण अनशन करने वाले को लाखों होगें पर जिनके अनशन से सरकार की चूह्ने हिल जाए..ऐसे लोगो को उंगलियों पर गिना जा सकता है। सवाल यह उठता की क्या अन्ना और उसके लोग ही सिविल-सोसाइटी है और हमारे चुने हुऐ नेता अन-सिविल..। क्या चंद नुमांदों को संसद या सरकार की जगह कानून बनाने का हद या उन्हे ब्लैक-मेल करने की इजाज़त है..। जवाब सीधा सा है कि सोनिया की NAC कानून का मसौदा बना सकती है, 10 जनपथ से 7RCR को संचालित हो सकता है तो अन्ना लोकपाल-बिल क्यो नहीं बना सकते..। समाजसेव किसी दल-सरकार या इंसान की जांगीर नहीं जनाब । यह कोई भी कर सकता है, चाहे बाबा हो या अन्ना..। सरकार पर सवाल उठाने और समाजसेवा का हक जितना गांधी परिवार को है उतना ही हमे भी है..ये जम्हुरियत है बाबु यहां लोग..जनता कहलाते है प्रजा नहीं...फिर चाहे जून का जादू चले या आपातकाल का चाबुक पर आवाम की आवाज़ बुलंद रहनी चाहिये..।
2 टिप्पणियां:
classic, shuruati lineo ne to dil he jeet liya
ya its true my friend. now the decision is ours.
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