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रविवार, अक्टूबर 16

समय का चक्र बना सुदर्शन



कल रात अंग्रेजी फिल्म "V" वीमार्टा देख रहा था..इससे बेहतर फिल्म कभी देखी नहीं और शायद कभी देखने को भी नहीं मिले.."मी अन्ना" के विचार से, "Y4E" के जातिविहीन भारत और आज "Capture the wall street" के विरोध के पीछे एक ही नक़ाब है..रूसो का - हम लोग (We The people) ! इस फिल्म का नायक एक नक़ाब के पीछे है लेकिन उसके पीछे है जनता। जो उसी नक़ाब को नेता और खुद को नायक बना देती है। वो गोलियों से मरता नहीं क्योंकि Ideas are bulletproof.



रा-वन की स्क्रीनिंग महज 4000 प्रिंट्रस के साथ हो रही होगी लेकिन V का प्रिंट आज हर जगह है..लंदन के दंगों में, रामलीला मैदान में, यमन के दमन में, न्यूयार्क के भीड़ में, तहरीक के चौक में, फेसबुक और ट्यूट में, आप में और मुझे में..क्योंकि हम दोनो तरफ एक ही है "मैं"..। आज V के नक़ाब के पीछे कोई एक चेहरा नहीं वो 74 साल का बूढ़ा है जो 42 साल के युवराज से उसकी प्रजा को छीनकर जनता बना जाता है। वो राष्ट्रपति है जो गृह युद्ध से गिरे देश में आधी आबादी (नारियों) के दम पर सेक्स पर रोक लगा देती है और जंग धम से ठम जाती है।



आज पूरी दुनिया एक केनवस है और जनता चित्रकार..साम्यवाद, पूजींवाद, गाँधीवाद, नारीवाद की आंधी से दुनिया आगे निकल गई है। आँखें खोल कर देखो समय का चक्र सुदर्शन बन गया है और प्रजा जनता के रुप में जनसेवकों को उसकी सेवा का ईनाम ग़द्दाफ़ी और राजा के रुप में दे रही है। यह क्रांति इतिहास सबसे बड़ी आग है, मिखाइल गोर्बोच्येव आखिरी सोवियत मुगल होंगे, अनशन से अँग्रेज़ हारे होगें, नासिर से इस्लाम से मायने बदले होंगे पर आज काल कार्ल ज्यादा व्यापक है। जो यूरोप अपने धन के धमक के लिए जाना जाता था वो लंदन के दंगों, यूनान के दिवालियापन, स्पेन की बदहाली, रोम के प्रदर्शनों के मशहूर है। 1991 के बाद विश्व के बेताज बादशाह बना यूएस अपनी ही जनता के हाथों हार रहा है। वो जनता जो कंगाल है, जिसके घर पर फोन है पर दवा के पैसे नहीं, जिनके पास कार पर बे-कारी भी, जिन्हे कल तक भारत और चीन ही नही ओबामा भी आलसी कहते थे आज सड़क पर उतर कर सत्ता को चुनौती दे रहे है।



अफ्रीका जल रहा, खाड़ी देशों की लोकतंत्र की मांग अब अधिकार बनने को है। भारत में एक राजपरिवार के युवराज से ज्यादा फैन एक बूढ़े के है, आज से महज चंद महीनों पहले कोई सोच भी नही सकता था कि एक छोटा, सांवला, खादी पहनने वाला, जिसे ठीक से हिन्दी नहीं तक आती, अगर मेट्रो में मिल जाए तो आप उसे सीट तक न दें..भारत के कथित राजपरिवार को बौना बना देगा। नेपाल में राजशाही जाती रही, बर्मा में सैनिक सत्ता जाने की कगार पर है, राजा जेल में है और मनमोहन महँगाई की मेल में...।





अगर वॉल स्ट्रीट बर्लिन की दीवार बन गई, अगर रामलीला मैदान 10जनपथ को घुटनों पर ले आई, अगर अरब के शेख, जम्हूरियत के फ़क़ीर बन गये, अगर V का नक़ाब, अन्ना की टोपी, तहरीक के यू-टयूब और फेसबुक की जनता जीत भी गई तो आगे क्या ?



सोवियत का रास्ता टूट चुका है, सर्वादय का मार्ग छूट चुका है, समाजवाद के नारा रूठ चुका है...यहां तक हिन्दी फिल्म की तरह V भी जीत के बाद खत्म हो जाती है..। इस हायतौबा के बाद क्या..?  कांग्रेस की हार के बाद क्या ? क्या गारंटी है अरब में लोकतंत्र आने के बाद वहां के नेता भ्रष्टाचार से शेख़ नही बनेगें ? क्या लीबिया कल आज के इराक़ से जुदा होगा या इस समय का चक्र बना सुदर्शन लाशों के ढेर, पार्टियों के पतन, वो ठंडी आँख बनाकर रह जाएगा तो सबकुछ देखकर भी बर्फ सी जमी होती, आपके कलाई की घड़ी की तरह तो चलते हुए भी हाथ पर थमी होती है।



इस जवाब आपके पास ही है, पड़ोस में, सोच में, हर रास्ते में, हर बात में...अगर आप देखने चाहे तो..?  आप सीखने चाहो तो ? आप एहसास करें तो ? बस इस बार नीचे से उपर नहीं बल्कि उपर से नीचे देखते की ज़रुरत है, जरुरत है उसे जीने की, जिस जीवन को आज आप जीने योग्य तक नहीं मानते, उन टीचरों की जिन्हे आज हम सभ्यता का पाठ पढ़ाते है, उस दुनिया देखने की जो हमारे पास है पर हम खुद को उससे दूर करना चाहते है।



हम पढ़े-लिखे लोग, पड़े-पड़े गूगल पर पर्यावरण का पाठ तो पढा करते है पर पड़ोस की झुग्गी में जाकर नहीं देखते कि वो गरीब कैसे हमारे कचरे से पूँजी निर्माण करते है, हम आज भी कार में बैठकर उन्हे बे-कार मानते है और वो धरती को हमारी गंदी से बचाकर उसके ऐसे पैसा कमा जाते है जैसे हम सोच भी नहीं सकते। अगर सत्ता को समझना चाहते हो तो संसद नहीं जगलमहल जाकर देखो, देखो की कैसे जिन्हे हम पिछड़े आदिवासी कहकर दुत्कार देते है वो दिल्ली के दिग्गजों से बदतर शासन करना चाहते है। वहां पेड़ नहीं करते, अमीर और गरीब में अंतर नहीं, लव-मैरिज़ शिव के मेलो में होती है, दहेज़ का सवाल नहीं उठता, न्याय पंच करते है और सजा समाज देता है।



शायद आपके और मेरे लिए झुग्गी या जगलमहल में जाने से सरल है काम से घर पर जाता और घर से काम पर आना..इसी तरह जीना और मर जाना..। लेकिन कम से कम शाम को काम से घर लौटते वक्त उन पंछियों को तो निहार सकते है जो साथ उड़ते है और हम साथ चल भी नहीं सकते..। देखना ज़रूर क्या पता उस डूबते सूरज में आपको कल के सवेरे की झलक दिख जाए..। V कोई और नहीं WE हम है..।


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