रामलीला मैदान के गांधी को देखने भारत जुटा और F1 की आंधी देखने इंडिया..दोनो धुर विरोधी हैं पर दोनों दोस्त भी हैं। F1 की रेस के रेले में शुमार कई सितारे अन्ना के आन्दोलन की भी चमक थे, दोनों तरफ तिंरगें थे एक ओर गांधी टोपी और दूसरी तरफ लेडी गागा के गाने..। लेकिन इस दोनों मलासा ख़बरों के अलग भी एक तीसरा आयाम है। वो आयाम जो दिल्ली के दुरुस्त और मुंबई की माया से जुदा मणिपुर है। जहां आज 101 दिनों से आर्थिक नाकेबंदी हो रही है। जहां LPG Gas 2000Rs/किलो और पेट्रोल 200 रुपए लीटर बिक रहा है। जिसकी आवाज़ सुनने को कोई तैयार नहीं क्योंकि वहां ट्रकों के चलने से दिल्ली की रिंग रोड़ पर जाम नहीं लगता, ख़बरिया भेड़ियों के TRP नहीं मिलती और संसद के चौपाल पर जूं नहीं रेंगती। ठीक उसी तरह जैसे कांग्रेस के युवराज का कलावती के घर जाना नेशनल टीवी पर आता, उसका नाम संसद में सुनाया जाता है पर राहुल के जाते ही बस समाप्त...मौत की खामोशी में कलावती सो जाती है, किसानी के कर्ज में उसकी बेटी मर जाती है पर ख़बर नहीं बनती।
हम ग्लोबल गांव में जीने वाले हैं इसलिए दिल्ली हो या दुबई, न्यूयार्क हो या नागपुर कहीं कोई अंतर नहीं है। दुनियां या यू कहें की पूंजीवाद के ठेकेदार अमेरिका में भी अपने हिन्दुस्तान के दो देश बसते है। एक आवाम की आवाज़ है जो कहती हैं वॉलस्ट्रीट पर कब्ज़ा करो, 99 फीसदी की रोटी काट-काट कर 1% पेट भरना सरकार का पेशा नहीं है। वो मुहिम है कि मंदी का मार Tax के रुप में अमीर अमेरिकियों पर पड़े, सरकारी सेवा कम करके जनता पर नहीं, वहीं अमीर पूंजीवादी बेल-आउट पैकेज के नाम पर अपने लिए वक्त चुरा रहे हैं। बीमारी का इलाज नहीं होता..महज महंगाई पर मरहम लगाने से...। उस अमेरिका के पास भी भारत के मणिपुर की तरह एक तीसरा आयाम है वेनेज़ुला वो छोटा सा पड़ोसी देश अपने गन्ने और तेल के दम पर पूंजीवाद के खिलाफ दंबग बनकर भी अपनी जनता के पेट भरना जानता है।
आपके मन में सवाल उठता होगा की यह तीसरा आयाम आखिर है क्या और आयाम से आवाम का भला क्यों होगा? इसे समझने के दो रास्ते हैं, पहला अरस्तु और प्लेटों के सिद्धांत का चक्र कि वक्त खुद हो दोहराता है, और वाद ISM अमित नहीं होते। 1917 के रुसी क्रांति के 100 साल होने में महज पांच वर्ष बाकी है, USSR का किला ढल गया और पूंजीवाद के दुर्ग भी ढहने की कगार पर है। समझने के लिए दूसरा रास्ते ठेठ देसी है, कि जैसे आपका TV Black&White से रंगीन हो गया वैसे ही बाहरी दुनिया को देखने की सोच का चश्मा भी काला या सफेद नहीं रंगीन ही रखिए। जैसे जिस मुल्क में हम रहते हैं वह इंडिया और भारत का बेटा ज़रुर नज़र आता है पर अलग नहीं है। ठीक हिन्दी और उर्दू के बीच की हिन्दुस्तानी की तर्ज पर...।
मैं आरक्षण के खिलाफ हूं, सब्सिडी के भी..। हमें बैसाखी नहीं चाहिए पर Rock-Star मूवी की ज़ुबान में “साडा हक ऐथे रख” ज़रुर चाहिए..। हक़ पढ़ने का ताकी आरक्षण की नीति के साथ-साथ Cast Vote Bank की राजनीति के भी अंत हो जाए। हक़ सेहत का ताकी हर साल महंगे इलाज के चलते एक करोड़ लोग गरीबी रेखा (BPL) से नीचे नहीं आए...। हक़ समानता का ताकी मुंबई के शेयर बाज़ार के हाल और दिल्ली के जाम के बीच मणिपुर का मर्म छिप ना जाए। हक़ ज़मीन का ताकी खेती और प्लेट के बीच का मुनाफ़ा चंद बिल्डरों का बैंक ना उठा ले..। हक़ अभिव्यक्ति की आज़ादी का ताकी अन्ना के चंद दिनों के अनशन के साथ-साथ उत्तर-पूर्व की उस महिला (इरोम शार्मिला) का नाम भी सबको याद हो जो बीते 12 सालों से अनशन पर बैठी है।
हक़ तीसरे आयाम का जो गूगल के गलियारे, अँग्रेजी के अल्फाज़ो और मीडिया के ख़बरों से दूर बसता है मंदी और महंगाई का इलाज़ है जिसे संजीवनी हो हम AIMS की चका-चौंध में खोजना नहीं चाहते और देखकर भी अंधे बन जाते हैं। आयाम जो दिखाना है कि ज़जमानी प्रथा (अन्न के बदले सामान), इस्लामिक बैंकिंग (बिन ब्याज़ के कर्ज) और गांधी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत (मालिक भी एक कामगार है और कम्पनी एक परिवार) से आज भी बदलाव मुमकिन है बशर्ते हम तीसरे आयाम को देखना चाहते। लेकिन इस हक़ के लिए कीमत भी चुकानी पड़ेगी क्योंकि कर्तव्यों के बाद भी अधिकार संभव है। इसलिए आपको तीसरे आयाम की सोच और एक सवाल के साथ छोड़ जाता हूं...सवाल मेरी पत्नी के शब्दों में “सरकारी स्कूलो में पढ़ना हमे मंज़ूर नहीं, सरकारी अस्पताल में इलाज़ हमें गवारा नहीं, सरकारी सड़कों को दोष देते हैं और सरकार को गाली पर सरकारी नौकरी सबको चाहिए आखिर क्यों….?”
हम ग्लोबल गांव में जीने वाले हैं इसलिए दिल्ली हो या दुबई, न्यूयार्क हो या नागपुर कहीं कोई अंतर नहीं है। दुनियां या यू कहें की पूंजीवाद के ठेकेदार अमेरिका में भी अपने हिन्दुस्तान के दो देश बसते है। एक आवाम की आवाज़ है जो कहती हैं वॉलस्ट्रीट पर कब्ज़ा करो, 99 फीसदी की रोटी काट-काट कर 1% पेट भरना सरकार का पेशा नहीं है। वो मुहिम है कि मंदी का मार Tax के रुप में अमीर अमेरिकियों पर पड़े, सरकारी सेवा कम करके जनता पर नहीं, वहीं अमीर पूंजीवादी बेल-आउट पैकेज के नाम पर अपने लिए वक्त चुरा रहे हैं। बीमारी का इलाज नहीं होता..महज महंगाई पर मरहम लगाने से...। उस अमेरिका के पास भी भारत के मणिपुर की तरह एक तीसरा आयाम है वेनेज़ुला वो छोटा सा पड़ोसी देश अपने गन्ने और तेल के दम पर पूंजीवाद के खिलाफ दंबग बनकर भी अपनी जनता के पेट भरना जानता है।
आपके मन में सवाल उठता होगा की यह तीसरा आयाम आखिर है क्या और आयाम से आवाम का भला क्यों होगा? इसे समझने के दो रास्ते हैं, पहला अरस्तु और प्लेटों के सिद्धांत का चक्र कि वक्त खुद हो दोहराता है, और वाद ISM अमित नहीं होते। 1917 के रुसी क्रांति के 100 साल होने में महज पांच वर्ष बाकी है, USSR का किला ढल गया और पूंजीवाद के दुर्ग भी ढहने की कगार पर है। समझने के लिए दूसरा रास्ते ठेठ देसी है, कि जैसे आपका TV Black&White से रंगीन हो गया वैसे ही बाहरी दुनिया को देखने की सोच का चश्मा भी काला या सफेद नहीं रंगीन ही रखिए। जैसे जिस मुल्क में हम रहते हैं वह इंडिया और भारत का बेटा ज़रुर नज़र आता है पर अलग नहीं है। ठीक हिन्दी और उर्दू के बीच की हिन्दुस्तानी की तर्ज पर...।
मैं आरक्षण के खिलाफ हूं, सब्सिडी के भी..। हमें बैसाखी नहीं चाहिए पर Rock-Star मूवी की ज़ुबान में “साडा हक ऐथे रख” ज़रुर चाहिए..। हक़ पढ़ने का ताकी आरक्षण की नीति के साथ-साथ Cast Vote Bank की राजनीति के भी अंत हो जाए। हक़ सेहत का ताकी हर साल महंगे इलाज के चलते एक करोड़ लोग गरीबी रेखा (BPL) से नीचे नहीं आए...। हक़ समानता का ताकी मुंबई के शेयर बाज़ार के हाल और दिल्ली के जाम के बीच मणिपुर का मर्म छिप ना जाए। हक़ ज़मीन का ताकी खेती और प्लेट के बीच का मुनाफ़ा चंद बिल्डरों का बैंक ना उठा ले..। हक़ अभिव्यक्ति की आज़ादी का ताकी अन्ना के चंद दिनों के अनशन के साथ-साथ उत्तर-पूर्व की उस महिला (इरोम शार्मिला) का नाम भी सबको याद हो जो बीते 12 सालों से अनशन पर बैठी है।
हक़ तीसरे आयाम का जो गूगल के गलियारे, अँग्रेजी के अल्फाज़ो और मीडिया के ख़बरों से दूर बसता है मंदी और महंगाई का इलाज़ है जिसे संजीवनी हो हम AIMS की चका-चौंध में खोजना नहीं चाहते और देखकर भी अंधे बन जाते हैं। आयाम जो दिखाना है कि ज़जमानी प्रथा (अन्न के बदले सामान), इस्लामिक बैंकिंग (बिन ब्याज़ के कर्ज) और गांधी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत (मालिक भी एक कामगार है और कम्पनी एक परिवार) से आज भी बदलाव मुमकिन है बशर्ते हम तीसरे आयाम को देखना चाहते। लेकिन इस हक़ के लिए कीमत भी चुकानी पड़ेगी क्योंकि कर्तव्यों के बाद भी अधिकार संभव है। इसलिए आपको तीसरे आयाम की सोच और एक सवाल के साथ छोड़ जाता हूं...सवाल मेरी पत्नी के शब्दों में “सरकारी स्कूलो में पढ़ना हमे मंज़ूर नहीं, सरकारी अस्पताल में इलाज़ हमें गवारा नहीं, सरकारी सड़कों को दोष देते हैं और सरकार को गाली पर सरकारी नौकरी सबको चाहिए आखिर क्यों….?”
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