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शुक्रवार, मई 21

अनजानी अंग्रेजी आगे अंधे बने - हम लोग

हिन्दी फिल्मी फसानें में अंग्रेजी को बड़ा funny दिखया गया है..अमिताभ से धर्मेन्द्र तक..। लेकिन कपिल देव ने इस कया को हमेशा के लिये पलट दिया। आप सोच रहे होंगे क्रिकेट, कपिल और इस कायापलट का क्या मेल है। जी हुजूर वास्ता बड़ा गहरा है। कपिल जी ने क्रिकेट वर्ल्डकप जीता..। और कपिल बन गये उस वक्त के सचिन..जिनके आगे ना जानें कितनी ऐड-कम्पनियां लैड-कार्पट बिछायें खड़ी थी..। टीवी उस वक्त रामायण-महाभारत और हमलोक तक सीमित था। तो कपिल जी उठाये पिंट के विज्ञापन के वास्त कदम..फिर लो हो गई काया पलट।


कपिल देव ने जिस किताब का ऐड किया..वो आज की देवी बनी बैठी हैं। उसका नाम था - “रेपिड एक्शन इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स”। फिर क्या है फिल्मी अफसाना..हकीकत का फसाना बन गया। जब हरियाणा के पूत कपिल अंग्रेजी बोल सकते हैं तो पूरा भारत क्यों नहीं। I can walk English, I can laugh English से I Can Speak English हो गया। बड़े-बूढ़े और बच्चे अंग्रेजी पढ़ने लगें। कप्यूटर अंकल आये तो हम लोग कॉल-सेन्टरों के बादशाह बन बैठे। नेट की नौंटंकी से नया इंडिया बना गिया। जहां अंग्रेजी हमारी पित्र भाषा है..।


60 के दशक में हिन्दी के नाम उत्तर-दक्षिण में बटने वाला भारत..इंडियां हो गया। नोकरी चाहिये हो या छोकरी अंग्रेजी से मिलेगी...। आलाद्दीन का चिराग भी इतना फेमस कहां हुआ होगा..जो काम इस भाषा ने कर डाला। ज्ञान अब, अंग्रेजी का मोहताज बन बैठा है..। अंग्रेजी नहीं आती तो आप अनपढ़-गवार है, फिर चाहे ससंकृत में शास्त्री की पदवी क्यो ना मिल गई हो..।


हम हिन्दौस्तानियों में एक खूबी हमेशा से रही है। हम रह चीज का भारतीयकरण कर देतें हो..चाहे तुका हो या बेतुका, शील हो या अशलील। भाषा को मां कर दर्जा दिया जाता है, लेकिन हमने तो अंग्रेजी की ही मां ही.....दीं। कुछ अल्फाज सीख लिये, जिनका बेमतलब-बेकार इस्तेमाल करने को हम लोग..Gen-Next Style कहते है। जैसे chill कर..। दुख में सुख में, घर पर - दफ्तर पर, ब्रेक-ओफ से लेकिन पैच-अप तक। अगर कोई पूछे कि मौसम कैसा है..तो हम लोग style कहेगें chill hae या cool hae। भले आदमी, 45डिग्री की गर्मी chill या cool कैसे हो सकती है। कोई अंग्रेज सुन ले तो शर्म से मर जाये कि कैसे उनकी भाषा की वाट लगा रखी हैं।


ऐसी ही एक शब्द का जादू हो जो किसी को भी बच्चा बना देती है – Baby। ये है हमारा stylish प्यार। ohh Baby, chill it. कहना रिवाज बन गया है। लड़का हो या लड़की या फिर किन्नर सब बेबी है और बच्चे भी- बूढ़े भी। बेचारी अंग्रेजी किस देश में फस गई। जो कल तक “ चलो छोड़ो यार” कहते थे वो आज “ fuck off Man” हो गया है। गाली का भी नया अंदाज है, ये अगड़े और देसी भाषा बोलनें वाले भारतीये पिछड़े। ना या हा, कहना कितना आसान लगता है। लेकिन हमने उसे भी nupe-yup बदल दिया। जीं, चैकिंग सीखनी है तो नई अंग्रेजी भी सीखो और वो भी Made in India.
ऐसा नहीं है कि ये हाल मेट्रो का है, गांव भी इसी रास्ते पर चल रहे है। ठंडा का मतलब दंत्तेवाड़ से देहरादून तक एक ही है। बोले तो ठंडाई या लस्सी नहीं, soft drink. । आखिर Its happens only in India. । गर्मी में छाछ की जगह कोक ने ले ली और ठंड में मलाईमार दूध को चाय कोफी ने रिप्लेस कर दिया..।


ऐसा नहीं है कि हम लोगो ने इस अंग्रेजी या विलायती भाषा से कुछ सरीखे का सीखा नहीं। पंजाब में जहां देसी-घी की नंदिया बहती थी, हमारी कम्पियों से डालडा का चस्का चटा दिया। यूपी-बिहार में भी नीम का मंज़न नहीं होता, कोल्गेट की जाती है। हरियाणा-राजस्थान के माटी के पूत भी विलायती साबुन से स्नान करते हैं।


इसपर एक औऱ अंग्रेजी शब्द याद आता है – paradigm-shift , मतलब उल्टा परिवर्तन। भारत बदल गया है, अब सपेरों के देस में भी सवेरा हो चला है। ठीक उसी तरह जैसे कभी पाली-प्राकृत की जगह संस्कृत राज भाषा रहीं, गरीबों की खड़ीबोली के स्तान पर बादशाहों की फारसी, और फिर अंग्रेजी। भाषा हो या शेली वहीं राज करती हैं,जिसे बालने वाले बहुसंख्यक और अमीर हो,यानी सरल भाषा में जिस बोली का बड़ा बाजार हो। हमारे पास तो सो करोड़ लोगों का बाजार हैं। शायद तभी, आज हौलीवूड की सबसे सफस फिल्म का नाम “अवतार” है। यूरोप में लोग forest को जंगल कहने लगें है। कोक हमारा पीना है तो बांसमती अमेरिका का खाना, पूरा अमेरिका बांसमती चावल का दीवाना है और दुनियां भरे के क्रिकेट खिलाड़ी आईपीएल के..। भाषा बदलती है बदली की तरब, बहती है धारा की तरह, लेकिन किसी भाषा या शेली को अंधा होकर cut-copy-past नहीं करना चाहियें। ताकी हम लोगों को याद रहें कि “भाषा ज्ञान का माध्यम है, मापक नहीं..।“

शुक्रवार, मई 14

जाति है की जाती नही...।।

2001 से 2010, बीते दस सोलों में देश कई गुना आगे निकल गया है। बाजार से रोजगार तक, गांव से शहर तक और दलितों से सवर्णो तक ने विकास का स्वाद चखा है। लेकिन हमारी जातियां पिछड़ रहीं है। आजादी के वक्त कुछ कम पिछड़ी थे, 1991 में ज्यादा पिछड गई और अब इनं पिछड़ो की गणना करना चाहती है सरकार। शायद अंग्रेजों के समय से आज तक राज वहीं सकता है जो बाटनें की नीति पर चलता हो, चाहे बात गोरो की हो या नेताओं की। धर्म से जाति तक, शहर से गांव तक, आदमी से औरत तक बटते बटते हम लोग, हम से मैं हो गये है..फिर ये गिनती क्या..?

गिनतियां क्या - क्या गुल खिला सकती हैं , यह पंजाब के मामले में जनगणना के भाषाई पहलुओं की रोशनी में देखा जा सकता है। पंजाबी , जो हिंदुओं और सिखों की समान भाषा थी , तकनीकी रूप से सिर्फ सिखों की भाषा रह गई क्योंकि हिंदुओं ने राजनीतिक प्रभाव में आकर अपनी मातृभाषा हिंदी लिखाना मुनासिब समझा। विख्यात भारतविद् मार्क गैलेंटर का यह कथन एकदम सही है कि जातिगत सेंसस बेरोजगारी , शिक्षा और आर्थिक हैसियत से संबंधित सूचनाओं में भी गड़बड़ी पैदा करता। जो जाति खुद को जितना अशिक्षित , गरीब और बेरोजगार दिखाती , उसे राजनीतिक क्षेत्र में सरकार के संसाधनों पर उतनी ही बड़ी दावेदारी करने का मौका मिलता।

हर दस साल में होने वाली जनगणना के गले में एक बार फिर जाति अटक गई है। जनगणना में जाति को शामिल करने की मांग आज से दस साल पहले यानी 2001 में जनगणना शुरू होने के पहले भी उठी थी , पर तब इस मांग को बिना किसी दुविधा के खारिज कर दिया गया था और उस पर कोई खास राजनीतिक प्रतिक्रिया भी नहीं हुई थी। इस बार मामला कुछ अलग है।


सवाल यह है कि अपनी संख्या कौन जानना चाहता है ? केवल वही जिसे संख्या बल के आधार पर किसी तरह के फायदे की उम्मीद हो। भारतीय लोकतंत्र के संस्थापकों को यह अहसास था। इसलिए शुरू से ही उनकी नीति संख्या के महत्व को एक हद से ज्यादा न बढ़ने देने की थी। उन्होंने संख्याओं का इस्तेमाल किया , पर पारंपरिक पहचानों के सेक्युलरीकरण के लिए। 1939 के बाद भारत की जनगणनाओं में जाति का उल्लेख करना बंद कर दिया गया था। आजादी के बाद यह परंपरा बदले हुए परिप्रेक्ष्य में जारी रखी गई। चूंकि संविधान निर्माताओं ने पूर्व - अछूतों और आदिवासियों की विशेष स्थितियों के मद्देनजर उन्हें उनकी जनसंख्या के मुताबिक राजनीतिक आरक्षण देने का फैसला किया था , इसलिए जनगणना में केवल उनकी संख्या का जिक्र किया गया। संविधान पिछड़ी जातियों को राजनीतिक आरक्षण देने के पक्ष में नहीं था। वह उन्हें सिर्फ नौकरियों और स्कूल - कॉलेजों में आरक्षण देना चाहता था। उसके लिए गिनती की बजाय शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाना ही काफी था। इसलिए पिछड़ी जातियों को जनगणना में शामिल करने की जरूरत नहीं समझी गई।

आरक्षण , जाति और जनगणना के इस व्यावहारिक त्रिकोण को अपनाने के पीछे जो दूरंदेशी थी , उसकी कामयाबी आज आसानी से देखी जा सकती है। इस सफलता के तीन पहलू हैं : पहला , सरकारी लाभों को बांटने के मकसद से इसके आधार पर जातियों की पारंपरिक पहचान अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग जैसी सेक्युलर श्रेणियों में बदलने की प्रक्रिया शुरू हुई। दूसरा , पिछड़ी जातियों ने चुनावी राजनीति के माध्यम से अपने संख्या बल को आधार बना कर आरक्षण प्राप्त किए बिना विधायिकाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया। और , साथ में उन्हें नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण मिल गया। पिछड़ों को आगे बढ़ने के लिए न तब जरूरत थी और न अब अपनी गिनती जानने की जरूरत है। तीसरा , आरक्षण के दायरे में न आने वाली अगड़ी जातियां खुले दायरे में आधुनिक शिक्षा और बाजार के जरिए मिलने वाले अवसरों के माध्यम से सेक्युलरीकरण के दौर से गुजरीं। वे वैसे ही संख्या में बहुत कम हैं। इसलिए उन्हें अपनी संख्या जानने की उत्सुकता बहुत कम होती है।

यहां यह सवाल पूछना जायज है कि अगर जनगणना में हर नागरिक की जाति का जिक्र किया जाता , तो उसके क्या परिणाम निकलते ? उसका पहला नतीजा यह निकलता कि आजादी के बाद समाज में राजनीति और बाजार के जरिए सामाजिक ऊंच - नीच की भावना में अब तक जो कमी आई है , वह काम नहीं हो पाता। दूसरे , जिस परिघटना को अभी हम वोट बैंक कहते हैं , वह एक मोटी - मोटी अवधारणा ही है। दरअसल व्यावहारिक अर्थ में किसी जाति का वोट बैंक मौजूद नहीं है। चुनावी आंकड़े बताते हैं कि जातियों का वोट एक पार्टी को कुछ ज्यादा मिलता है , पर बाकी वोट विविध कारणों से बंट जाते हैं। इससे असल जमीन पर जातिगत समुदायों का कोई राष्ट्रीय एकीकरण नहीं हो पाता है और उनके सेक्युलरीकरण की व्यापक प्रक्रिया बिना धक्का खाए धीरे - धीरे ही सही , पर चलती रहती है। अगर सभी नागरिकों से जनगणना के दौरान उनकी जाति पूछी जाती तो हमारी राजनीति को असल में वोट बैंक का स्वाद पता चलता। तीसरे , गिनती से जुड़े हुए मौजूदा फायदों को उठाने के लिए तो लोग अपनी जातियों को बदल कर पेश तो करते ही , उनकी संख्या का अहसास ही उन्हें फायदों की राजनीति करने के लिए उकसाता। आज उनके पास निश्चित संख्याएं नहीं है , इसलिए ऐसी कई मांगों को नजरअंदाज किया जा सकता है। मसलन , महिला आरक्षण विधेयक में पिछड़ी जातियों का कोटा शामिल करने की मांग को ठुकराना तब नामुमकिन हो जाता और संविधान की भावना का उल्लंघन करते हुए स्त्रियों के नाम पर पिछड़ी जातियों द्वारा राजनीतिक आरक्षण हड़पने की संभावना बढ़ जाती। आज के जमाने में जातिगत सेंसस की प्रासंगिकता और भी कमजोर हो गई है। व्यक्तियों और समुदायों का आर्थिक विकास अब सरकारी क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा , बल्कि इसमें प्राइवेट सेक्टर और बाजार की भूमिका ज्यादा है। बाजार एक सीमा तक ही अफरमेटिव ऐक्शन को अपना सकता है।

प्राइवेट और पब्लिक से दूर, दर्द तो इस बात का है कि हमारी सरकार ने भी गोरो की चाल अपना ली..बाटों और राज करों। वो भी राजा की तरह नेता की नहीं..। जाति के नाम पर प्यार करने वालो को सूली पर चढ़ा दिया जाता हैं, जनता को जला दिया जाता, जन्म से भेदवाद किया जाता, आरक्षण पर हिंसा होती है, और उसे जायज़ दिखानें के लिये जनगणना..। पर पापा ने तो बचपन में कहा था कि जाति जोड़ने का काम करती है, शायद जन की इस गणना का गणित मेरी समझ में नहीं आया..। पापा की बात ही नहीं...गांधी के हरिजन, टैगोर के आंनद, अम्बेडकर के दलित, मनु के मानव और जाति की जनगणना को भी, मै जानं नहीं पाया..। इंन सबसे बढ़कर हम लोग सोच भी मेरी समझ में नहीं आती, जो खुद को पिछड़ा साबित करने के लिये अगड़े होकर मरने-मारने सदैव तैयार है, मेने दुनियां में ऐसा कभी-कहीं नहीं देखा....आपक पता हो तो कृपया बता दें ….?

बुधवार, मई 12

2020 : पेज़ नम्बर 2611, कसाब का हिसाब

कहते है कि अगर आज सच्ची तस्वीर देखनी हो, तो आने वाले कल की खिड़की से उसे देखना। क्योंकि सोच के चश्मे झूठे हो सकते हैं, इतिहास के पन्ने नहीं सो सोच 2020 में ले चलें और टी-20 के तर्ज पर देखें कसाब का हिसाब।
राजधानी की सड़क खुदी है, पाइप-लाइन फटी है..आखिर कुछ सालों में इस शहर में ओलम्पिक गेम्स होने हैं। बच्चे बमुशिल स्कूल पहुंच पाते हैं। सोशल की क्लास चल रही है। क्लास में एसी है, ब्लैक-बोर्ड की जगह स्मार्ट स्क्रीन है, जहां चॉक से नहीं क्लिक से काम होता है। आज टीचर ने 2611 के पेज़ पर क्लिक किया हैं। लेकिन बच्चों को पसीना आ रहा है। जी ये बोर्ड का बुखार नहीं। वो तो इतिहास हो गया। अब सेमेस्टर सिस्टम है। बच्चों के लिये पिज्जा हट से मिड-डे मील भी आया है। पर पसीना बंद नहीं हो रहा। क्लास की सक्रीन पर कसाब का चेपटर चल रहा है।
क्या कसाब को देख पर बच्चे डर गये? या मुंबई हमले की तस्वीरों से बच्चे गश खा गये। जी नहीं, ये दवीं की क्लास है। बच्चों के सेलफोन में ना जाने कितनी ब्लू फिल्में है। घर के लेपटॉप में एक्शन-थ्रीलरों की फेहरिस्त हैं। रेप, मडर और टर्र देखकर तो उन्हें कुछ फील नहीं होता। यहां तक की ओलम्पिकं की तैयारियों में खस्ता हाल सड़कों में भी इन्हे एक्शन गेम्स नज़र आता है।
फिर भी पसीना-पसीना..तो हुजूर लेसन के बाद टीचर जी ने एक सवाल पूछा है। कि क्या हो गया कसाब का हिसाब? कसाब को फांसी लगें सालो हो गये, बच्चो ने फांसी पर सियासत और कानून की अठखेली भी अभी-अभी देखी है। अफजल और कसाब की फांसी में महज़ सात दिनों का फर्क था। फासीं का फांस पर दो सरकारें बदल गई। लेकिन बच्चे बेचैनं है। कि क्या कसाब का हिसाब हो गया?
मुंबई हमले का बाद भी मज़र नहीं बदला, हमले होते रहे, सियासत रेल चलती रही, रैलियों का रेला भी, पाक आज भी पड़ोसी है, पंसद हो या न हो। अंकल सैम ने ईराक के बाद, ईरान और उत्तर-कोरिया को बर्बाद कर दिया, कहते हैं कि, वो अंकल के घर में बंम फोड़ना चाहते थे। लेकिन हमे नसीहत देते हैं कि सब्र रखो, हमारे हुक्मरान आज भी उसे नेता मानतें और बंम-विस्फोटों को दिवाली के पटाखें। दिल्ली मेट्रो ने न्यूयार्क ट्यूब को कब का पछाड़ दिया। यूरोप बजारों का दाम, हमारे दलाल पथ से तय होता है, लेकिन कसाबो का आने की तारीख कराचीं तय करती हैं। और सब्र करते हैं।
बच्चों ने दस साल पहले के बुजुर्गों की बातें भी सुनी हैं। किलर मशीन है कसाब, 160 मौतो के बदले, 160 बार फांसी पर लटकाया जाए, हम लोग भी उसे फांसी देने की खातिर जल्लाद बनना चाहते थे। पर उसकी फासीं से कुछ नहीं बदला, ना पाक के नापाक इरादें, न अंकल सैम की सिफारिशें और न ही मालेगांव धमाके करने वालो का मन।

एक बच्चा बोला सरजी कराब का हिसाब हो गया। जैसी करनी वैसी भरनी ये, मैं नहीं कहता –गीता में लिखा, पापा बताते हैं। दूसरा बोला नहीं सर, मेरे पापा के दोस्त का नाम कसाब था, जामिया से मीडियां की पढ़ाई की, पर नौकरी नहीं लगी। क्योंकि उसका नाम कसाब है। बेचारे बेरोजगार ही रहे, नाम की चलते नौकरी नहीं मिली। अंकल कहते थे कि राष्ट्रवाद चंद कच्छा धारियों की जागीर नहीं है, उन्हे भी मुल्क से मोहब्बत है। नौकरी नहीं मिली तो, पूजा आंटी की शादी कहीं और हो गई। मेरे नटखट अंकल नक्सली बने बैठे।

सर बोले बच्चो टाइम नहीं बदला महज़ वक्त गुजरा हैं। दिल्ली आज भी खुदी है कोमनवेल्थ से ओलम्पिक तक, खून आज भी बहता है,1984,92 और 2006 तक के जख्म आज भी हरे है, कसाब जैसे जालिम आज भी जिदां है। लेकिन दुनियां को जीरो देने वाले हम लोग कसाब के हिसाब का जवाब नहीं तलाश पाया। यह बच्चो की नहीं भारत की बेबसी है। तो क्या एक फांसी से कसाब का हिसाब हो जाएगा। जरा सोचिये..।

शनिवार, मई 1

अमेरिकन दिल्ली का दिल देखो

कल रात मेट्रो में सफर ने सोचने पर मजबूर कर दिया। एक लड़का अमेरिकी झंडे की चड्डी (बरमूडाज) पहने हुये था। पास में एक गरीब आदमी धोती और कुर्ता पहने, सिर पर खंडुवा बांधे खड़ा था। जो उस लड़के के लम्बे बालों की लटाओं को देख भर रहा था। मानो सोच रहा हो कि गांव में तो लड़के-लड़की में पैदा होते ही फर्क कर दिया जाता है। यहां तो दिखने में दोनों में ही कोई फर्क ही नहीं लगता। लड़का उसके पास आया, उसे घूरा और वो डर से सिमट कर कोने में बैठ गया। उस अधेड़ गरीब की आखों में अजनबी दुनिया की दहशत साफ तौर देखी जा सकती थी। फिर वही लड़का उसे बोला, मेट्रो में जमीन पर बैठना मना है। बिचारा उठा और अगले स्ट्रेशन पर उतर गया। लड़के ने ये देख पास खड़ी लड़की को स्माइल दी।

शायद ये दो संसारो का मिलन था। जो बहुत बुरा रहा। कौन ज्यादा सभ्य निकला ये तो पता नहीं, लेकिन संस्कारी तो वो अधेड़ उम्र का आदमी ही था। जो उजले कटे-फटे पकड़े पहने डेलीआइटस् से दो पग दूर रहना ही पंसद करता था। कहीं शहरी नर उसे वानर समझकर नाराज़ ना हो जाये। पहले भी रेलवे-स्टेशनों पर ऐसे पल देखे थे, जहां शहरी लोगो के आगे, हमारे गरीब ग्रामीण सिमट जाते हैं। मानो गुलाल का वो गाना पीछ से कोई गुनगुना रहा हो कि “ हाथ से खादी बनाने का ज़माना लद गया, अब चड्डी भी है सिलती इंगलिशो की मिल में हैं। आज का लौंडा ये कहता हम तो बिस्मिल थक गये, अपनी आजादी तो भईया लौंडिया के दिल में है।“ सर फिरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।


दिल्ली मेट्रो लंदन ट्यूब को टक्कर दे रही है और दिल्ली वाले अंग्रेजों को। यहां इज्जत किसी को हजम नहीं होती, सर कहो तो सिर पर बैठ जाते हैं, ताऊ-चाचा कहने का रिवाज तो रास ही नहीं आता। कभी बचपन में मां के साथ रेड लाइन में सफर करता था, जिसका नाम आज ब्लूलाइन पड़ गया है। तब तमाम लोग कहते थे, दिल्ली में दिल्लीवाला कोई नहीं कहलाता। यहां गांव में हरियाणा का टच है, विभाजन के बाद पंजाबी शहर में आ बसे। करोलबाग में बंगाल और आर.के पुरम में दक्षिण भारत के लोग रहते हैं। जमनापार यूपी और लुटियन ज़ोन में बिहार के कुछ अफसरान बसर करते है। पर दिल्लीवाला कोई कहलाना नहीं चाहता, सिवाये पुरानी दिल्ली के। आज का मंजर उलट है। दिल्ली 6 को नई दिल्ली से दूर पुराना शहर माना जाता है। जहां ठसक तो है पर डेलीआइट् नहीं। शहर में नई क्लास का जलवा है जो आये तो किसी भी कोने से हो पर उस कोने को काला सोचकर, उसे छोड़कर कहलाना तो डेलीआइट् ही चाहते हैं। पहले इस शहर को दिल्ली कहते थे अब दिखावी कहते हैं। अगर किसी को दिल्ली देखनी हो तो राजौरी-साकेत के मॉल्स देखे, चांदनी-चौक का बाजार नहीं।


ये शहर जबलपुर और नागपुर की तर्ज पर तरक्की कर रहा है। आप सोच रहे होगें की सिडनी या न्यूयार्क क्यो नहीं कहा। तो जनाब इन चारों शहरों में कोई खासा फर्क भी नहीं है। पहले दो शहरों में आदिवासी रहते थे और बाद के दो में रेड इंडियन। दोनो को निकाल कर निगल गये हम लोग। उनकी जमीन पर अपनी जामात बिठा ली। कहने को मुवावजा मिला पर भीख ने रोटी मिलती है समानता और सम्मान नहीं। ये देश का दिल है तो नक्सलबाड़ी तो बन नहीं सकता पर ज्यादा फर्क भी नहीं हैं। जिसकी जमीन पर कोमनवेल्थ गेम्स होने है, वो जाट-गूजर नक्सल राह पर है। गूजरो आरक्षण आन्दोंलन में हुई मौतो की सख्या दंतेवाड़े से कहीं ज्यादा है। जाट खाप-पंचायत समानतर-सरकार चला रही है। पंचायतें कानून नहीं मानती, खाप के नाम पर कोर्ट को ही लाठी जरुर दिखा जाती है। मुख्यमत्रीं गुरुजी (शिबू सोरेन) हो या हुड्डा जी सब इस समानतर सरकार को सलाम बजाना पड़ता है।


कभी दिल्ली के आसपास चंद जातियो की सत्ता चलती थी। आज सूर्यवंशी राजपूत से ठसक प्रेमी जाट, खुद को क्षत्रिये कहलवानें वाले गूजर हो या श्रीकृष्ण के वंशसज अहीर सबको अपनी जात पर गरुर जरुर है पर सबको आक्षण की बैसाखी भी चाहिये। कुछ उसी तरह ही जैसे नक्सली ईलाकों को केंद्र सरकार का आर्थिक पैकज चाहियें। दोनो के पास सिर और बाजू बहुत है, अपराध दोनो जगह है, शक्लें भी एक ही है, महज नामो का फर्क है, जो सोती-सरकार को नहीं दिखता। शक की सूई से फोन टेप यहां भी होते है। जामियां की जनता को यहां की पुलिस भी नक्सली स्लीपर सेल कम नहीं समझती। आखिर जब दिल्लीवाले अमेरिकी हो गये है तो सरकार गोरी सोच क्यो न रखें। जिसनें रेड इंडियनों को जंगल से निकाल कर चड़ियांघर में रखकर चमाशा बना दिया। क्योकि उन्हें कंक्रीट के जंगल में घोसले से घरो में रहना पसंद नहीं था।


एक अंग्रेजीं फिल्म याद आती है “अवतार” जिसमें सभ्यता के पुजारी दूसरी दुनिया के लोगों को सड़क देना चाहतें थे पर उन्हें अपने पैडो से प्यार था। आज भी गुड़गांव से गांव को दूर कर दिया हमने कि, हमारी राते वहां रगींन हो सकें। दिल्ली के वास्ते दारू राजस्थान से आती है, पत्थर पल्वल से, राजधानी जो जगमग रखने की बिजली के बादले यूपीवालो को अंधा-धूवा मिलता है। हमारे पृयावरणमत्रीं कोपनहेगन जाकर अमीर देशो शीशा दिखाते है पर अपना शीशमहल नहीं देखते। शीला जी भी दिल्ली के बढ़ते बोझ से परेशान है लेकिन इसका जवाब नहीं देती कि अगर गांव के हिस्से का पैसा वहीं ठीक से खर्च किया जाता, तो कोई पूरबवाला पेट की खातिर दिल्ली नहीं आता। चाहे आईआईटी हो डीयू या एम्स।


दिल्ली हमारे दिलो में है, होनी भी चाहिये। विकास सबको प्यारा है पर किसके लिये और किसती कीमत पर ये सोचना होगा, आखिर ये दिल्ली अमेरिकी नहीं अपनी है। हम लोगों की है जीके से सीलमपुर तक। दंतेवाड़ा से बस्तर तक ये सबकी राजधानी है, चंद अमीर राजाओ की नहीं देश की और देश से बढ़कर भी नहीं।