*वॉर रिपोर्टिंग: तैयारियों का दौर* (भारत)
चाहे युद्ध हो या युद्ध रिपोर्टिंग तैयारी बेहद महत्वपूर्ण है। 2022 नये साल की शुरुआत से ही बेलारूस और रूस ने युद्ध अभ्यास के जरिए कीव के किले पर फतह करने की तैयारी कर ली थी। उनकी तैयारी इतनी तेज थी कि अमेरिका के इंटेलिजेंस एजेंसी सीआईए ने 24 फरवरी को युद्ध शुरू होने से पहले ही 16 फरवरी को रणभेरी की डेट वर्ल्ड मीडिया में फाइनल कर दी। हमारे यूक्रेन जाने से पहले लगभग 17 मीडिया कर्मी इस जंग की लाइव कवरेज के दौरान मारे जा चुके थे, हालांकि अनौपचारिक आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा हो सकता है, लिहाजा हमने चेक लिस्ट बनाकर ही मातृभूमि से निकलने का फैसला किया।
इस चेक लिस्ट की तीन सबसे अहम कड़ी थी पहला भोजन, दूसरा वस्त्र और तीसरा दवाइयां तीसरी से शुरुआत करते हैं। एलएनजेपी हॉस्पिटल जाकर अपने कैमरा सहयोगियों के साथ मेडिकल सुपरिटेंडेंट की मदद से हमने *सीपीआर और फर्स्ट एड* देने की ट्रेनिंग ली, क्योंकि जिस देश का भूगोल हर घंटे बदल रहा हो ,वहां मेडिकल सुविधाएं समय पर मिलना यूटोपियन ख्वाब जैसा है, डॉ रितु सक्सेना ने हमें दवाइयों की सूची दी, जिसे मेरे सहयोगी क्रमबद्ध तरीके से लेकर आए कि अगर जंग में घायल हो जाएं तो इलाज मिलने तक जिंदा रहने और रखने की हर मुमकिन कोशिश कर सकें।
दूसरा सबसे जरूरी *वस्त्र, कपड़े* का अर्थ सिर्फ यह नहीं कि गरम जैकेट ले ली जाए, इस बात का अनुमान तो -30°C पर चीन सीमा के करीब युद्ध अभ्यास के दौरान ही हो गया था, कि जब तेज हवा के साथ बर्फ के नन्हे कारण त्वचा को चीरने की कोशिश करते हैं तो किस तरह के कपड़े आपको बचा सकते हैं। उसके तैयारी पहले ही कर ली गई थी। यहां वस्त्रों का अर्थ है कि किस लेवल की बुलेट प्रूफ जैकेट ली जाए। वह कितनी कैलीबर की गोलियों से बचा सकती है ,उसका भार कितना हो कि दिन में कम से कम 10 घंटे उसे पहन के हम रिपोर्टिंग कर पाए। इसमें सीआरपीएफ, आईटीबीपी और गृह मंत्रालय से पूरा समर्थन मिला। मंत्रालय की तरफ से इस बात की इजाजत मिल गई कि हम एयरपोर्ट से हेलमेट और बुलेट प्रूफ जैकेट ले जा सकते हैं। पैरामिलिट्री फोर्स के अधिकारियों ने बताया की रॉकेट के छर्रों और असाल्ट राइफल की गोलियों से बचने के लिए लेवल 4 की जैकेट मुफीद रहेगी, ऑफिस के सहयोग से इन तैयारियों को भी मुकम्मल कर लिया गया।
अब अंतिम पड़ाव भोजन अगर आप शाकाहारी हो तो किसी भी पश्चिमी देश में रहना वैसे ही मुश्किल हो जाता है और जब युद्ध ग्रस्त क्षेत्र में जाना हो ,जहां रूस के प्रक्षेपास्त्र पीने की पानी की लाइन पर भी कहर बरपा रहे हो, तब तो स्थिति और भी ज्यादा खराब हो जाती है। लिहाजा सबसे पहले हमने काजू, बादाम, किशमिश, पिस्ता जैसे ड्राई फ्रूट उसके बाद डब्बा बंद फ्रोजन खाने के पैकेट और वह सारा सामान जो 1 महीने तक खराब ना होता हो, जो जीने और पेट भरने के काम आ सकता हूं वह सब कुछ ले लिया।
कुछ औपचारिक चीजें जैसे युक्रेन रक्षा मंत्रालय की अनुमति vfx योरोज़ोन वीज़ा,इंटरनेशनल सिम ,कार्ड इंटरनेशनल क्रेडि,ट कार्ड हार्ड केश में यूएस डॉलर आदि के साथ हम युरोप जाने के लिए तैयार हो गए। मानसिक रूप से अभी भी बहुत से भवर मनोतिथि को गोल गोल घुमा रहे थे, जैसे गोलियों में घिर जाने के बाद क्या दिमाग काम करेगा, इंसानी लाशों के ढेर पर खड़े होकर क्या जीने के लिए भूख लग पाएगी, जिन देशों की अधिकांश जनसंख्या को हिंदी तो छोड़िए अंग्रेजी भी नहीं आती.. वह कब तक गूगल ट्रांसलेशन का संवाद इंटरनेट के आभामंडल में चल पाएगा।
इन सवालों के कौतूहल में यूरोप यात्रा की खुशी, सुकरात जैसी नजरों से अलग सभ्यता, संस्कृति और शहरों को देखने का आकर्षण युद्ध के पैराडॉक्स में खो चुका था। सबसे बड़ा सवाल तो यह भी था कि क्या जिंदा लौट आएंगे या नहीं, पता चला कि वॉर जोन में कोई इंश्योरेंस काम नहीं करता, हालांकि पीआईबी कार्ड धारक होने के नाते भारत सरकार की तरफ से मरने के बाद 5 लाख का बीमा मिल जाएगा, ऐसा भरोसा दिलाया गया। मौत से ज्यादा डर या यू कही दुख तो इस बात का था कि जिस युद्ध में जान जाए वह युद्ध हमारा नहीं, जिस जमीन पर जान जाए वह जमीन हिंदुस्तान के नहीं और जिस मकसद के लिए हम जा रहे हैं उसका भारत से कोई सरोकार नहीं, सिर्फ पत्रकारिता के प्रोफेशनलिज्म के लिए प्राणों की आहुति देना कहां तक ठीक है, हालाकी पत्रकारिता का प्रोफेशनलिज्म और वोर रिपोर्टिंग एक्सपीरियंस दोनों अपनी जगह कायम था और हम आगे बढ़े रणक्षेत्र की ओर..
2 टिप्पणियां:
Bravo my son
Kudos to you. यह साहसिक पत्रकारिता का बेहतरीन नमूना है।उज्जवल भविष्य के लिए शुभकामनाएं भाई। अगली कड़ियों का इंतजार रहेगा।
Dr R P Singh
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