जन-लोकपाल बिल पर जीत हासिल करने के बाद अन्ना हज़ारे RTR यानी राइट टू रिकॉल के लिये आंदोलन करेगें। अन्ना हज़ारे यह घोषणा 100 घंटो तक चले अमरण अनशन के बात आई हैं। आखिर इस बार सरकार और संसार ने भी देख लिया कि फेसबुकिंग करने वाले युवा जंतर-मंतर पर फेस-टू-फेस भी हो सकते है। ट्विट करने वाले अभिनेता, अन्ना के मंच पर जनादेश का मंचन भी कर सकते हैं, सनसनी और भूत बेचने वाले खबरियां चैनल हज़ारे का हथोड़ा बनकर सरकार की चूल्हे तक हिला सकते हैं।
अन्ना हज़ारे वहीं गाँधीवादी हैं, जिन्होनें 2003 में 12 दिन की भूख हड़ताल करके RTI यानी सूचना के अधिकार को लागू करवाया था और आज 42 सालों से ठंडे बस्ते में पड़े लोकपाल बिल पर मनमोहन सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर डाला। अब इस गाँधीवादी महानायक ने आरटीआर यानी वापस बुलाने के अधिकार का आवाहन किया हैं। इस अधिकार का उदाहरण पहले पहल ग्रीस के नगर राज्यों में मिलता था। जहां एथेंस और स्पाटा के नगरिक अपने चुने हुऐ नेताओं के विरोध में चुनाव ने पहले वोट देकर उन्हे सत्ता छोड़ने पर कानूनी रुप से बाध्य कर सकते थे।
वर्तमान में इसका चलन कुछ हद तक अमेरिका के छोटे राज्यों में है लेकिन आमतौर पर इसे बड़े मुल्कों और लोकतंत्र में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि यह कानून प्राचीन यूनानी नगर-राज्यों में तो चल सकता था लेकिन आज के राष्ट्रीय राज्यों और खासतौर पर भारत जैसे मुल्कों में इसकी कोई जगह नहीं, जहां की आबादी 120 करोड़ से भी ज्यादा हैं। हांलाकि आज भी भारत की पंचायतों में पंच को ग्रामसभा बहुमत के कार्यकाल खत्म होने से पहले भी रुक्सत कर सकती है और संसद में हर 6 महीने के बाद, 50 सासंदो के ज्ञापन से सरकार को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा सकता है, लेकिन मुख्य रुप से वापस बुलाने के अधिकार से इस देश के नागरिक अज्ञान और वंचित हैं।
अन्ना हज़ारे की कोशिश है कि अव्वल तो सूचना के अधिकार से भ्रष्ट नेताओं और अफसरों के खिलाफ सबूत जुटायें जाए, उसके बाद लोकपाल कानून से उन्हे सज़ा दिलाई जाऐ और फिर भी उनका सत्ता का नशा नहीं टूटे तो आरटीआर से उन्हे वापस बुलाने का अधिकार भी जनता के पास होना चाहिये। हालांकि इसके लिये अभी दूर तक चलना होगा पर जंतर मंतर से अन्ना से जता दिया कि वो जनता के लिये कितनी ही दूर तक चलने की ताकत रखते हैं।
सरकार का कहना है कि वैसे भी चुनाव में जो खर्च आता है उसे झेलना भारत जैसे विकासशील मुल्क के लिए बड़ी बात है और अगर आरटीआर को कानूनी दर्जा दिया गया तो देश का दिवालिया निकल जाएगा। चुनावी खर्च देश को कंगाल कर देगा और विकास का रास्त रुक जाएगा। इस तर्क को काटने के लिये दो तीर है पहला तकनीक और दूसरा जनादेश ..। आज दिल्ली की आबादी से ज्यादा इस शहर में सेल फोन है, हर दूसरा नागरिक ई-मेल करना जानता है। देश-भर में 70 करोड़ लोग मोबाईल धारक हैं और 70 फीसदी पढ़े-लिखे भी..। तो क्या मेल या एसएमएस से वोटिंग मुमकिन नहीं ? क्यों लोकतंत्र का अर्थ बस एक बार वोट देकर पांच साल की सत्ता सौंपना भर है ? क्या यूनानी नगर-राज्यों और भारतीय पंचायतीराज के मूल्यों से गांधी के स्वराज को पाया नहीं जा सकता ?
अगर फिर भी सरकार का जवाब नेगटिव रहता है तो याद रहे लीबिया, मिस्र और यमन में चुनाव नहीं हुऐ है पर सरकारें बदल गई हैं, सत्ता छिन गई है और तख़्त पलट दिए गये है। कोई पांच साल का इंतज़ार नहीं और किसी पार्टी का घोषणा-पत्र नहीं..आवाम उठी और तक़त उलट गये। आज 10 जनपंथ और 7 आरसीआर से भी अन्ना के अनशन की शक्ति देख ली है और अगर 100 घंटो का यह आंदोलन नहीं थमता तो जंतर-मंतर, तहरीक चौक बन सकता था और 100 कदमों की दूरी पर था संसद..। बच्चे के रोये बिना को उसकी मां दूध तक नहीं पिलाती तो अधिकार से लिये लड़ाई तो करनी ही होगी..नक्सलियों की तरह जंगलो में छुपकर नहीं..देश की राजधानी में उसकी सरकार के सामने क्योकि यह गंदातंत्र नही हमारी लोकशाही है और अभी लड़ाई जारी हैं..!!