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बुधवार, जून 23

हम लड़ेंगे साथी – मुहब्बत के शहीदों के वास्ते

India is the nation of white man’s burden and a country of snake charmers. गोरो की इस कहावत को गूगल ने पलट कर रख दिया..आखिर गूगल के चश्मे से दुनिया को भारत का बाजार जो नज़र आता है। लेकिन शायद आज भी हम सपेरों और सांपो के देश में भी है। जो सांप (परिवार वाले) खुद अपने अंडों को (बच्चो) खा जाते हैं। सपेरे (खाप-पंचायत) उस सांपो को पालते है और सियासी सियाने इनका तमाशा बेतहाशा देखते हैं। दुनिया कहती है कि भारत बदल रहा है। ये मुहब्बत का मुल्क है, दौलत का देश भी..लेकिन महज समाजिक सांपों की केचुली उतार के देख लीजिये...नैतिकता का नंगा नाच समाने आ जाएगा..।

सांप भूख लगने पर अपने बच्चों का खा जाता है और जाति के ये ठेकेदार बुरा लगने पर..। केंचुली दोनों के पास है और जातिगत जहर भी। मैं हरियाणा चुनाव में जगह-जगह लाइव रिपोर्टिंग करता था। सड़को से समाज तक विकास देखा.. हरी खेती पर चलते महिंद्रा (ट्रैक्टर) और पक्की रोड पर चलती मर्सडीज गाड़ियां भी देखी..। हुड्डा जी के विज्ञापन पर पिज्जा का नाम आता था लेकिन प्यार के बोल नहीं..। अमेरिका के जो सियाने न्यूयार्क के टाइमस-स्वेर पर खड़े होकर चिल्लाते हैं, कि बाजार बांछे फैलाकर सबको समा लेता है...उन्हें जरा इस देश के अगड़ो की पिछड़ी सोच देखनी चाहिये..।

दिल्ली की पत्रकार को परिवार ये पढ़ाया तो सही लेकिन अगर वो सही-गलत का फैसला खुद करने लगे तो घरवाले खुद को खुदा मानकर उसे मारने का मन बना लेते है। हालांकि उनकी इस सोच के पीछे कई सिद्धांत भी मौजूद है। जैसे एक गोत्र में शादी करने से आने वाली नस्लों में खामियां आ जाती है। ठीक है वैज्ञानिक विचार है और ब्रिटेन के राज-परिवार का उदाहरण भी..। लेकिन कोई इन सियाने को समझाये कि जब ये गोत्र बने थे, तब जितनी आबादी दूर तलक के ईलाके की रही होगी, आज उससे ज्याद एक गोत्रों की है। हजारो और कहीं कहीं तो लोखों, फिर विज्ञान के ये ज्ञान उन्हें समझ भला क्यो नहीं आता..।


फिर ये सांप और सपेरे परम्पाओं की दुहाई देते हैं..। तो 4 वेद, 6 शास्त्र, 18 पुराण, 108 उपनिशदों में कहां लिखा है कि गोत्र विवाह करने वालो को मत्यु-दंड देना चाहिये। कम से कम वो प्यार करने वाले शादी तो करते है..। हमारे एक भगवान की तरह तो नहीं है जो रास रचायें किसी के साथ और रानी बनाये किसी और को..या दूसरे भगवान जैसे जिसे अपनी पत्नी से ज्यादा भरोसा अग्नि परीक्षा पर था और जिसने एक धोबी के करने पर गर्भवति स्त्री को जंगल का रास्ता दिखा दिया..। आपको मेरे बातें बुरी लग सकती है, बेहुदा भी..लेकिन मै तो लोक की बात करने वाला बेचारा हूं..क्या करुं, कभी परलोक देखा ही नहीं..। वो महान भगवान हो सकते हैं लेकिन बेहतर इंसान नहीं। बेहतर इंसान तो वो है जिन्होनें अपने प्यार को इस सांप और सपेरों के देश में शादी के मुकाम तक पहुंचाया..।

आम सांपो का फन दोहरा होता है..लेकिन इन आदम सांपो के फन के कई और-छोर हैं। जब इनकी दाल देश में गलती तो विदेशी माल को मानने में भी इन्हे मलाल नहीं..। Look West भी इनका एक फन है। आज-कल इस सामज के ठेकेदारो को David-Easton’s theory of right और UNO 1992 का चार्टर वो चार्टर जरा ज्यादा याद आने लगा है, जिसमें कहा है कि सरकार का फर्ज है कि वो उस क्षेत्र के लोगो की परमपराओं और मानव-अधिकारों की रक्षा करें। लेकिन एक और अंग्रेजी कहावत भी है, कि Less knowledge is more dangerous. वो 1992 के चार्टर को तो याद करते है, लेकिन सबसे पहले प्राकृतिक अधिकार (Natural Right) को नहीं..जो है “ जीने का अधिकार (Right to live) “ आप किसी की बलि नहीं ले सकते बड़ बोले भाईसाहब..। David-easton के साथ साथ Thomas hobbes, John locke और Rosso को भी पढ़े तो बेहतर होगा..।

लेकिन हम लोग अपने जवाब के लिये परदेश जाने की जरुरत नहीं हमारी मीडिया को चाहिये की खाप कि खबरों का बहिष्कार करें..ठीक वैसे ही जैसे प्रवीन तोगड़िया और राज ठाकरे सरीखे नेताओं के समाचारों के साथ किया जाता है। हमे चाहिये कि हमारी परमपारओं का शास्वत सच देखे कि,शिव के लिये के व्रत के पीछे सोमवार का वो मेला था..जिसमें कुंवारे लड़के-लड़कियां अपने साथी का चुनाव करती थे, ये ठेठ दिहाती सव्यंवर था। जिसे ये सांप सोचना नहीं चाहते। इतिहास देव-दासियों, नगर-वधुवो से पटा पड़ा है लेकिन ये पढ़ना नहीं चाहते। बसे इन्हें खाप और नेताओ की बीण सुनाई देती है..।

बलि और बलवान का इतिहास तो बरसो का रहा है। नारी की पूजा करो, पर उसे प्यार नहीं करने दो, वरण जाति के जहर से जान ले ली जाएगी। भला कोई समझाये कि लव-मैरिज में बराई क्या है। इससे जाति की जज़रीजें टूटती है, जो आपके मंडल और कमडल नहीं तोड़ पाये। दहेज का दर्द मिटता है, जिसे आपका काला कानून नहीं रोक पाया। जाति, रंग, क्षेत्र, भाषा और बोली एक होती है, जो काम आपके अनेकता में एकता के किताबी-बोल नहीं कर पाये। फिर बुराई भला है क्या , कोई नहीं जानता।

अरस्तु ने कभी कहा था कि, संपा के कान नहीं होते, उसे सुनाई नहीं देता और भगत सिंह ने कहा था, कि बहरो को सुनाने के लिये खमाका जरुरी है। विस्फोट विचारो का हो, कांति युवाओं की हो और इन्कलाब इष्क का..। आखिर एक गलत बात पर एक गलत बलि देखने से लड़-जाना बेहतर होगा..।

गुरुवार, जून 10

मीठा जहर पीते सुकरात बने – हम लोग

हमारे शहर एंथेनस से अलग दिखने होगें, गावं भी स्पाटा से जुदा है, लेकिन फिर भी हम भारत के लोगो का सरोकार सुकरात से सबक लेने वाल है। सियाने कहते हैं कि भारत में मीठे जहर का काम जातियां करती है और जाति है की जाती नहीं..। अल्लाह जाने की मुन स्मृति में ऐसा क्या राज़ है। सियाने ये भी समझाते है कि अगर मनु महारजा को नहीं जाना तो जाति नहीं जान पाओगे और उसका जाल भी नहीं..। लेकिन मुझे अग्रेजी के ISM और हिन्दी के वाद से नफरत है, ये जिस सिद्धांत के पीछे लग जाते हैं, उस सोच को चश्मा बना देते है..जिससे आपको दुनियां रंगीन नहीं काली या सफेद दिखने लगती है। हर चीज में बुराइयां ही बुराइयां नज़र आती है, भलाईयां नहीं..।

माक्सवादी निजी-पूंजी को बुराई मानते हैं और फेमिजिस्ट्र (नारीवादी) आदमियों को आवश्यक बुराई का दर्जा देते हैं। मानो दो प्यार करने वालों को ही नहीं, भाई-बहन और मां-बेटे के रिश्तें को गाली दे रहे हो..। मनु कथित हो या काल्पनिक लेकिन बड़े वाले जरूर रहे होंगे..आखिर उसके चलते हिन्दु ही नहीं इस्लाम और सिखों में भी जाति का जाल बुन गया..। हालांकि आजादी के बाद इस मज़र को बदले के लिये बड़े-बड़े मजमें लगे, जिसमें में एक हमारी संविधान सभा भी थी। जिसने जाति के जोतो को तो नहीं तोड़ा आरक्षण का पौधा जरुर बो दिया। अब आरक्षण का ये पौधा पेड़ बन गया है, जिसे मंडल और कमंडल से खुराक ने सीचा था। आज इस पेड़ पर फल भी लगने लगे है, क्या हुआ उससे गरीबों का पेट नहीं भरता पर नेताओ का वोट-बैंक तो भर ही जाता है।

वहीं हम भारत के लोग पालतू कुत्तों की तरह, जो खुद को पिछड़ा साबित करने के लिये लाइन में अगड़े होकर आरक्षण की पैडीगिरि खाने को बेताब है। मानो पूरा भारत बीपीएल कार्ड और रिजर्वेशन की खैरात खातिर करार में खड़ा हो..। इतने सलीखें की कतार यूपी के आश्रम या दिल्ली के रेवले-स्टेशन पर लगती हो, भीड़ की भगदड़े सैकड़ो बेगुनाहं मारे नहीं जाते। अगर जाति की ज़जीर को तोड़ने की कोई कोशिश भी करें, तो खाप-पंचायतों का खौफ है। आखिर उनके लिये तो सवाल जाति का नहीं, रोटी और बेटी का है। मानो दोनो सामान हो, एक भोजन की वस्तु और दूसरी भोग की।

एक खासियत और है हमारे देश में कि यहां सुधारक चाहे कोई ना हो सियाने सभी है..कुछ सियाने कहते हैं शिक्षा के फैलाव से जाति-जाती रहेगी। लेकिन ऐसा दिखना नहीं है, राजस्थान को ही ले-ले अलवर से जौधपुर तक सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों में जाति के जोते आपको दिख जाएंगे। ब्राह्णमणों का, राजपूतों का, जाटो का, गुर्जरों का और मीणाओं का अलग-अलग समुह इस सियानी सोच के चीथड़े उड़ाते नज़र आता है..।

इसके लिये दिल्ली से दूर जाते की भी जरुरत नहीं है साहब, हर साल डीयू के चुनावी अखाड़े में जाटो और बिहारियों (ठाकुरों) की दगल की नंगी-नुमाई होती है। आखिर दोनो सैनानी है, लड़ाई तो बनती ही है। एक दलितों के घर जलाकर, जल्लाद बनने को बेताब है तो दूसरे रणबीरसैना और ना जाने कितनी सैनाये बनाकर पिछड़ो का मारकर खुद को खुदा समझने लगें हैं।

जहन्नुम (ताथाकथित शिक्षा का मन्दिर) के जल्वे तो आपने देख लिये, अब जरा जन्नत की हकीकत पर निगहां मार लें। मरने के बात इंसासित रह जाती है, इंसान नहीं। और अगर वो जवान मुल्क की खातिर फना हुआ हो तो बात ही क्या है। लेकिन जाति वहीं भी जाति नहीं। 1962-65-71-99 या यू कहे सिख, मराठा, राजपुतानो और जाट रैजिमेंट अपनी जाति के नाम लेकर शहादत में भी सेधमारी करती दिखती है। और बड़े गर्व से अपनी-अपनी जाति की पलटन की बेहुगा नुमाईश करती है, कि जाटो के चलते टाइगर हिल पर कब्जा हो पाया था और ना जाने क्या-क्या कारनामें। क्यों, क्या कोई पडिंत, मुस्लिम या हरिजन मुस्क से महोब्त नहीं कर सकता, क्या ये प्यार भी क्षत्रियों (पृथ्वीराज) की जागीर संयोगिता है..। कम से कम माटी के लालो के लहू की लाज करो साहब..।

इस जमिदारीं और जाति के जुल्म के खिलाफ कभी नक्सलबड़ी में बगावत की मुहिम चली थी, आज वो भी जाति के जाल में फस चुकी है। जहां जेएनयू और कलकता युनिवर्सिटी के अभिजात छात्र, बह्माण के रोल में है, पुराने जमिदार इसके क्षत्रियें है तो आये दिन राज्यों की पुलिस की पैंट उतारतें रहते है, लैबी उघानें वाले इसके वैश्य है और बेचारे-बेकसूर आदिवासी इनके दलित जो आमतौर पर इनं शेरो का शिकार ही बनते है, फिर चाहे गोली माओवादियों की हो या सीआरपीएफ की..।

एक नहीं जाति और भी है इस देश मे, जो जवान होती चली जा रही है। जिसका परवानगी तब दिखी जब आईपीएल के मैदान पर एक चैयल लीडर को आने से मना कर दिया गया। क्योकि वो दक्षिण अफ्रीका की नीग्रो थी। क्योकि उसका रंग हम सावलों से भी काला था। और हमे आजकल गोली चमड़ी का नशा है। अगर गाधीं आज जिंदा होते तो हाट-अटेंक से मर जाते, कि जिस रंग-भेद के लिये वो दक्षिण अफ्रीका में जाकर लगे थे और आज उसी मुल्क की बाला के साथ अपने ही देश में वहीं हो रहा है।

हम लोगो को उज्ले कपड़े रिन से धुरे हुये पंसद है, चमड़ी को चमकाने के लिये लड़के और लड़कियों के लिये अलग अलग पैलिश नहीं फेयरनेस क्रीम भी मौजूद है। फिर चाहे दिल कितना भी काला क्यो ना हो पर शक्ल सफेद और गोरी होनी ही चाहिये। हमारे इस पंसद का अनांज़ा इंटरनेशनल माक्रिट को भी है। तभी तो नब्बे के दशक के बाद हमारी नारियां मिस-वल्ड, मिस युनिवर्स बनने लगी..। क्या इससे पहले हमारी बालायें बला की हसीनं नहीं होती थी..या यका यका दुलियां उन्हें भारत के बढ़ते बाजार के चश्मे से दिखने लगी..। ये आज की जाति है जो अग्रेजीं से शुरू होती है, उज्ले-कपड़ो से गोरी चमड़ी के रास्ते भारत के गावं तक बाछे फैलाकर पहुच जाती हैं।

अब सवाल उठता है..कि मनु, नक्सल और कास्मोपोलिटिनं जातियों के जाल से निकलने का रास्ता क्य है। जो जबाव को तो आप खुद ही देख रहे है..जी मेरा ब्लाक नहीं,ये इनटंरनेट। आर्कुट, फेसबुक के रास्ते मुल्क और सरकारों की सरहगें बोनी होनें लगीं हैं। जो काम मंडल और कमंडल नहीं कर पाये वो लव-मेरिजें दबे-पावं कर रही है। आखिर दिल किसी जाति के ठेकेदार की खैरात नहीं है, जिसपर उसके सरोकरा की इमारत ही बनें...ये तो प्यार की बोली है जनाब, जो क्लास और कास्ट के बधनों में नहीं बधंती..। पर लड़ाई अभी बहुत बाकी है मेरो दोस्तो..हम लड़ेगें साथी जाति से जाल के खिलाफ, महोब्त के मौनसून की खातिर..सुकरात और प्यार के पयाले के लिये आखिर रुकने झुकना और बिखर जाना, हम भारतीयों की नियती.. लगती तो नहीं...बाकि आप समझजार है साहब..।

बुधवार, जून 2

मुहब्बत का मुल्क या दौलत का देश

है प्रीत जहां की रीत सदा, हर 15 अगस्त और 26 जनवरी के आस-पास ये गाना फिज़ा में घुलनें लगता है। एक पुराना गाना और है जो ठीक मनोज कुमार की पूर्व-पश्चिम की तरह देर रात कभी-कभार एफएम में बज जाता है.. “मेरे मन की गंगा और तेरे मन की जमुना का बोल राधा बोल संगम होगा की नहीं” लेकिन आज इनं गीतों की तर्ज पर ये बाते भी पुरानी पड़ गई है। भारत कुमार बीत गये, राधा आज राखी बन गई, जिसका संवर बार-बार दोहराया जाता, दौलत की खातिर..कुल मिलाकर महोब्त का मुल्क दौलत के देश बन गया है।


कभी इस देश की पहचान ताज महल और अजंता की गुफओं से थी, आज बीएसई और एनएससी से उसका दर्पण देखा जाता है। सोनी महिंवाल अब प्यार में डूबते नहीं, डूबे तो भी कैसे , नदियों में कचरा, पानी से ज्यादा है, इतना की आप कचरे के पुल से पैदल ही दरिया पार कर जाये। फिर गांगा और जमुना के मिलन में मुहब्बत कैसे आएगी। हीर-रांझा की लव-स्टोरी के सट के लिये हमारी सरकार ने जंगल छोड़े ही नहीं, अगर कहीं कुछ जगंल बचे भी हैं तो वहां वो प्यार करने वाले नक्सली गोली या खाप-पंचायतो की लाठी की भेंट चढ़ जाते हैं।


खुदाई ने निकल कर खुद की बात ही करु तो ऐसा नहीं है, कि मेरे किसी से प्यार किया नहीं या किसी को मुझे प्यार हुआ नहीं..। एक तरफा से लेकर दोनो तरफ की मुहब्बत भी देखी, लेकिन किसी दोस्त ने सच कहा था कि, कुछ लोग रिश्ते बना नहीं पाते और कुछ निभा नहीं पाते.। गलती किसी थी, कहां हुई भूल इसके बारे की फिर कभी बतियाएंगे, इस दफा तो बात महोब्त और दौलत जंग की है भारत बदल रहा है, सोच से तेज और हम दौड़ रहे है मन की रफ्तार से। कल किसी दोस्त के साथ रात के खाने पर गया था। बेचारी चाहती नहीं पर घर पर शादी की बात चल रही है। ऐसा नहीं है कि उसे किसी से प्यार है पर लड़को को रिजेक्ट कर देती है। आखिर क्यों..? तो जवाब था कि उन किस्म के लड़कों से शादी करके छोटे सहर की सैर करनी होगी और मैडम को बड़े शहर की शौहरत की आदत है।


मैने उसे कहा कि कितना अच्छा होता है वो छोटा शहर, जहां आप पूरे परिवार के साथ रात का खाना खा सकते हो, अखबार पढ़ने का वक्त मिलता है और फुर्सत के कुछ पल..। ठीक उसी तर्ज पर जैसे गोरे भारत आकर झोपड़ियो की फोटा उतारते है और कसीदें पड़ है..। लेकिन मै तो ठहरा ठेक देसी, सो रात को खुद से पूछो कि क्या मै ऐसे छोटे शहर की सवारी करना चाहुगां। जो जवाब मिला नहीं.., मुझे तो पांच दिनों में हिमालय कि वादियां भी काटने लगती है। दिल्ली के शोर की आदत तो पढ़ गई। तेज रफ्तार जिंदगी, मां की बातें कम और एफएम की बक्वास ज्यादा सुनने की..। पैसे नहीं पावर ही सही पर चाहिये तो बहुत कुछ..। शायद यहीं हाल आज के प्यार का है वो पहला, दूसरा या तीसरा नहीं होता, प्यार तो महज़ प्यार होता हैं। जो फेसबुक-आर्कुट या टि्वीट करने से शुरु होता है, वैब-कैम से परवान चढ़ता है फिर नेट की नौटंकी की तरह जल्दी ही उसका सरवर-डाउन हो जाता है। फिर नया कनेंक्शन लो और लगे रहो इंडिया...।।


फाइव-डे, ODI और 20-20 खेल की पींग पर प्यार भी बदल रहा है, कभी शादी सात जनम का संबध थी, फिर Life partner की बाते होने लगी, उसके बाद Living कल्चर का दौर आया और अब तो One Night stand का जमाना है। उसमें में कुछ सज्जन बोर हो जये और Copal shuffling trend भी आजमाया जाता सकता है। उसके लिये भी एक खेल है जो दिल्ली-मुंबई के पॉश ईलाको में खेल जा है। पार्टी के बाद लड़के अपनी गाड़ियों की चाबियां एक बाउल में डालते है, लड़ियां अपनी आखों में पट्टी बांधती है। फिर जिसके हाथ जिसकी चाबी लगी, वहीं रात का साथी। कुल मिलताकर अब जीवन रफ्ता-रफ्ता नहीं रफ्तरा से जलता है..।


कुछ संस्कृति के ठेकेदार इसे पश्चिम की बुराई बताते है। उन्हे फ्रेंडशिप डे और वेलनटाइन डे तो नज़र आता है पर अंजता की गुफाये नहीं दिखती, गुप्त काल की कामासुत्र भी नहीं, देवदासी और कालीबड़ी की वैश्याओ की माटी से बनी काली मां मुर्त भी नज़र नहीं आती। फिर कुछ हिन्दु बाबाओं की बाते भी याद आत है कि ये इस्लामी-नापाक हरकत है, जहां चाचा-मामा की लड़कियों से शादी हो जाती है। तो उन्हें भी रामयाण का वो पाठ पड़ना चाहिये जिसमें लक्षमण सीता भाभी को मां का रुप दर्शाते थे और आज के हिन्दु परिवारों में बड़े भाई मौत के बाद देवर का पल्ला उड़ा दिया जाता है। फिर उसी भाभी मां से उसके देवर के बच्चे पैदा होते है।


Copal shuffling और कथित संस्कृति में समानता क्या है ? तो जवाब मिलेगा पूंजी या दौलत। पहले कैस में अमीर युवा लोग दौलत और दारु के नशे में सोये हैं और दूसरे में हमारे सांस्कृतिक ठेकेदार स्त्री को परिवार की सम्पति मानकर खोये हैं। सरल अल्फाजों में औरत घर का माल है, जो घर पर ही रहना चाहिये, चाहे बड़े बेटे का पल्लू बांधकर या छोटे का सहांग बनकर। कुछ यहीं हाल है समाज के प्यार का भी है, जहां यूपी और बिहार में ठाकुर और भूमिहार, वहीं राजस्थान और हरियाणा में राजपूत और जाट पिछड़ो को अपना पानी नहीं देते तो प्यार की क्या बात करें। समाज से निकल कल ठेठ भारतीय शादी की बात करें तो प्राय पति, पत्नि की चाहत को ताक पर रखकर सेक्स करते है। फिर चाहे कैसी भी हालत और कोई भी दिन हो और बेचारी स्त्री अपने इस ताथाकथित रेप की शिकायत ना कानून से कर सकती है या समाज से..। आखिर समाज की जगह सोशल-साइट लेने लगी है। वैब-कैम पर बच्चे पैदा नहीं हो सकते वरना अल्ला जाने राम..।


कहते है जब बुद्धी से जवाब ना मिले तो बच्पन में लौट चलो, आखिर बच्चे मन के सच्चे..। मै भी मुनसीपार्टी के स्कूल में कच्ची पहली कक्षा में बैठक देखता हु। बच्चे पहाड़े दोहरा रहा है। “दो एकम दो, दो दुनी चार “ इससे एक बात का ख्याल आया कि, इतिहास भी तो खुद को दोहता है। जब दौलत की भूख से पेट में दर्द होने लगेगा है तो प्यार की प्यास जागे जायेगी।


भारत दुनियां की सबसे बड़ी आर्थिक शाक्तियों में एक है, जल्दी ही सोने की चड़िया फिर से बन जाएगा। तब जाकर सेक्स और सेंसेक्स से दूर कहीं सवेरा होगा। मुहब्बत रगं लाएगी। मां की ममता और जीवन साथी के प्यार के मोल को हम लोग दौलत से नहीं तोलेंगें। तब सोनो तो बहुत होगा पर सच्चा साथी नहीं..। आज भी इस सच्चाई की समझ हमे आने लगी है। एक घन्टे सैल और नेट बंद हो जाऐ तो एहसास होता की दुनियां में भीड़ है पर हम लोग कितने अकेले है..। खुदा से दुआ करुगा को महोब्त की महक से गांग-जमना छलक उठे और फिर से हम भारत के लोग प्यार की धरती का वहीं गाती गुनगुनाएं... है प्रीत यहां की रीत सदा।