छुटपन में मां के साथ मंडी जाता था और बहुत बार मां पापाजी से कहती थीं, कि मंडी में सब्जी सस्ती तो मिलती है पर अच्छी नहीं। आज सालों बात पत्रकारिता के एक दिगज का ब्लॉग पढ़कर फिर से वो यादें जहन में ताज़ा हो गईं। आज सूचना समान बन गई है, ख़बरिया चैनल सौदागर, जो अपनी जादूगरी से नागिन के तमाशों से भी पैसे कमाने में माहिर हैं। अब ऐसी मंडी में अगर सस्ती की जगह अच्छी सब्जीनुमा ख़बरे परोस दी जाये तो भला बुरा क्या हैं।
इसी ख़बरियां मुद्दे पर फिल्म बनी थी रण लेकिन शायद उसका नाम रन होना चाहिये था। आखिर फिल्मी फसाने से खबरी अफसाने तक हम दौड़ ही तो रहे हैं। कभी पेड न्यूज़ के पीछे, कभी पॉलिटीकल पार्टी तो कभी बॉस की बात रखने के लिये। मेरा एक दोस्त कहने को तो किसी बी-ग्रेड चैनल में ब्यूरो-चीफ है, लेकिन उसका मालिक बच्चों के मिशन एडमीशन से घर में पानी की बोरिंग तक काम उसे सौंप दिया करता है। बॉस उसे आलाद्दीन का चिराग समझता है और वो खुद को पत्रकारिता का दलित दलाल।
ऐसे में वो ब्लॉग सटीक साबित होता दिखता है,कि मीडिया मिशन नहीं प्रोफेशन भर होनी चाहियें। कम से कम हम जनमत को बीटी बैंगन या सल्फाइट आलू के जगह साफ सुथरी खबरें तो परोसेंगे। जिसके धम्म को धारण करने से समाज सुधार हो या नहीं आप बीमार तो नहीं ही पड़ेंगे।
ब्लॉग की बहस में एक हालिया शिगूफा भी शुमार हो गया है कि जिस नाचीज के आगे कैमरा लग जाये उसमें कास्टिंग काउच की जैसी चीज चीपत हो जाती है। फिर चाहे फिल्मों के कलाकार हों या खबरों के अदाकार..आखिर अल्फाज़ो से अस्लियत तो बदले का पेशा तो दोनों का ही हैं। दोनो समाज का आइना है पर अपनी शक्ल उसमें देखना नहीं चाहते।
चलो अपनी सब्जी-मडीं में वापस चलते है। नानी की कहानी में एक खेत था जहां चंद अनाज के दानों के बदले ताज़ा खेत की सब्जी किसान दिया करता था। कोई बिचौलिया नहीं, बेइमानी, बस ओर्गेनिक फूड। नानी उसे जजमानी प्रथा कहती थी, आप कॉस्मोपोलिटिन लोग उसे बाटर-सिस्टम पुकार कसते है। उन्ही कहानियों में उस दौर की मीडिया की भी झलक मिलती है। किस्से युगान्तर और सन्धया के समाचारों के, तिलक के लेख और गांधी के हरिजन के। जिस वक्त पत्रकार कलम और झोला लिए, तन पर खादी और मन में मिशन के साथ काम करता था, जनता सहज ही जुड़ जाती थी। सेवा नहीं सुधार होता था और अनपढ़ आवाम भी उसकी आभा को महसूस करती थी। आज के नए दौर में मोटर-गाड़ी, दिलीप कुमार के तांगे तो पछाड़ चुकी है। पत्रकार, गांधी के ठपे वाले पत्रों के साथ कार में समाचारी सफर करता है। जो सियासी सौदागरों की खिलाफत करता था। आज उनका सिपाही बन गया है। शायद तभी जन दोनों सियानो में कोई भेद नहीं करती।
नेता, अभिनेता और उनकी नौटंकी दिखाने वाली मीडिया सब एक है। अगर ये सच है इस सच का सरोकार आप से है। दिल्ली की मेट्रो हो या मुंबई की लोकल। हम लोग कानों में इयर-फोन लगाकर मास-मीडिया के जरिए मदमस्त रहते हैं। पड़ोस में कोई बुजुर्ग बमुश्किल खड़ा है,तो खड़ा रहें, हमे क्या मतलब। सोशलनेटवर्किंग मीडियम से संसार को साथ लिये चलते है पर परिवार से दूर हो जाते है। कहने का मक्सद सिर्फ इतना है..जैसे लोक होगे वैसा लोकतंत्र और मीडिया भी। सास-बहू और बेटियों की बात से ज्यादा तवज्जो अगर सीरियस खबरों को मिलती तो..आज भी मीडिया मडी नहीं मिशन होता।
गलती हम लोगों की है लेकिन यहां हम लोग का अर्थ किसी टीवी शो की बहस से नहीं उस रुसो के कॉट से है जिसकी हम लोग की आवाज पर फ्रंच रैवूलुशन हो गया और समानता, स्वतत्रंता, बधुंत्व की बात होने लगी। इसलिए फिल्मी कलाकारों या खबरियां अगाकारों पर बहस करने से बेहतर होगा “हम भारत के लोग” अपनी सोच बदलें क्योंकि इस सब्जी मंडी का सरोकार समाज से है आप से है।
इसी ख़बरियां मुद्दे पर फिल्म बनी थी रण लेकिन शायद उसका नाम रन होना चाहिये था। आखिर फिल्मी फसाने से खबरी अफसाने तक हम दौड़ ही तो रहे हैं। कभी पेड न्यूज़ के पीछे, कभी पॉलिटीकल पार्टी तो कभी बॉस की बात रखने के लिये। मेरा एक दोस्त कहने को तो किसी बी-ग्रेड चैनल में ब्यूरो-चीफ है, लेकिन उसका मालिक बच्चों के मिशन एडमीशन से घर में पानी की बोरिंग तक काम उसे सौंप दिया करता है। बॉस उसे आलाद्दीन का चिराग समझता है और वो खुद को पत्रकारिता का दलित दलाल।
ऐसे में वो ब्लॉग सटीक साबित होता दिखता है,कि मीडिया मिशन नहीं प्रोफेशन भर होनी चाहियें। कम से कम हम जनमत को बीटी बैंगन या सल्फाइट आलू के जगह साफ सुथरी खबरें तो परोसेंगे। जिसके धम्म को धारण करने से समाज सुधार हो या नहीं आप बीमार तो नहीं ही पड़ेंगे।
ब्लॉग की बहस में एक हालिया शिगूफा भी शुमार हो गया है कि जिस नाचीज के आगे कैमरा लग जाये उसमें कास्टिंग काउच की जैसी चीज चीपत हो जाती है। फिर चाहे फिल्मों के कलाकार हों या खबरों के अदाकार..आखिर अल्फाज़ो से अस्लियत तो बदले का पेशा तो दोनों का ही हैं। दोनो समाज का आइना है पर अपनी शक्ल उसमें देखना नहीं चाहते।
चलो अपनी सब्जी-मडीं में वापस चलते है। नानी की कहानी में एक खेत था जहां चंद अनाज के दानों के बदले ताज़ा खेत की सब्जी किसान दिया करता था। कोई बिचौलिया नहीं, बेइमानी, बस ओर्गेनिक फूड। नानी उसे जजमानी प्रथा कहती थी, आप कॉस्मोपोलिटिन लोग उसे बाटर-सिस्टम पुकार कसते है। उन्ही कहानियों में उस दौर की मीडिया की भी झलक मिलती है। किस्से युगान्तर और सन्धया के समाचारों के, तिलक के लेख और गांधी के हरिजन के। जिस वक्त पत्रकार कलम और झोला लिए, तन पर खादी और मन में मिशन के साथ काम करता था, जनता सहज ही जुड़ जाती थी। सेवा नहीं सुधार होता था और अनपढ़ आवाम भी उसकी आभा को महसूस करती थी। आज के नए दौर में मोटर-गाड़ी, दिलीप कुमार के तांगे तो पछाड़ चुकी है। पत्रकार, गांधी के ठपे वाले पत्रों के साथ कार में समाचारी सफर करता है। जो सियासी सौदागरों की खिलाफत करता था। आज उनका सिपाही बन गया है। शायद तभी जन दोनों सियानो में कोई भेद नहीं करती।
नेता, अभिनेता और उनकी नौटंकी दिखाने वाली मीडिया सब एक है। अगर ये सच है इस सच का सरोकार आप से है। दिल्ली की मेट्रो हो या मुंबई की लोकल। हम लोग कानों में इयर-फोन लगाकर मास-मीडिया के जरिए मदमस्त रहते हैं। पड़ोस में कोई बुजुर्ग बमुश्किल खड़ा है,तो खड़ा रहें, हमे क्या मतलब। सोशलनेटवर्किंग मीडियम से संसार को साथ लिये चलते है पर परिवार से दूर हो जाते है। कहने का मक्सद सिर्फ इतना है..जैसे लोक होगे वैसा लोकतंत्र और मीडिया भी। सास-बहू और बेटियों की बात से ज्यादा तवज्जो अगर सीरियस खबरों को मिलती तो..आज भी मीडिया मडी नहीं मिशन होता।
गलती हम लोगों की है लेकिन यहां हम लोग का अर्थ किसी टीवी शो की बहस से नहीं उस रुसो के कॉट से है जिसकी हम लोग की आवाज पर फ्रंच रैवूलुशन हो गया और समानता, स्वतत्रंता, बधुंत्व की बात होने लगी। इसलिए फिल्मी कलाकारों या खबरियां अगाकारों पर बहस करने से बेहतर होगा “हम भारत के लोग” अपनी सोच बदलें क्योंकि इस सब्जी मंडी का सरोकार समाज से है आप से है।
7 टिप्पणियां:
आपके विचारों का सम्मान करता हूं.
I agree but some where the people facing this situation are also responsible as they have refused to stand up for themselves, be it for any reason social, financial or any thing.
bahut khub.sachayi yahi hai ki naye dour me do bigha jammen ki bat nahi, two room plat ki hoti hai to phir khadi ki patrakarita kaha se hogi. likhte raho.
media mandi bani kaise aur ise mandi banaya kisne. ispar bhi vichar karne ki jaroorat hai rahul jee. bachpan ki yaden sabko lubhati hain. asal me media is poonjiwadi vyavasta ka hi poshal hai aur isi vyavastha me iska hit sadhta hai. aap khud dikiye media me property dalal, neta aur naa jane kaise kaise log aa rahe hain. jab aise log aayenge to media ka mandi banana tay maniye. dalalon ke channel aur akhbaron ke patrakar dalali hee karenge na ki partakarita.
kuch nahi badla,kuch bhee to nahi badla..............
but...bahut kuch badal diya, bahuuuuuut kuch badalna bake
our eakla chalo our chalte raho..........
आपके विचार सम्मानीय हैं दोस्त
interesting.
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