दहक रहे है युवा
वो दौर बीत गया जब
हमारा सपना था अधेड़ उम्र की दहलीज पर अपनी कार की सवारी और रिटायरमैंट के पैसे से
अपने घर खरीदना, आज युवाओं में पैशेंस नहीं है और होना भी नहीं चाहिए। अजस्ट करते-करते
हम 125 करोड़ के पार पहुंच गए, अब मेट्रो से बस की सीट के लिए एजस्ट ही तो कर रहे
है । अब सहना मान है और साहस जरुरी । हमारी सौच में वर्क-हार्ड और पार्टी-हार्डर
का कॉसेप्ट रहता है, हमें क्रेडिट कार्ड पर खुशियां खरीदें की आदत है। हम 18 घंटे
काम को तैयार है बशर्ते महीनें के अंत में सैलरी 6 अंको में मिले । हम जितनी मेहनत
खुद करते है उतनी ही सरकार से भी चाहते है, तभी 12 घंटे काम करने वाला सीएम चाहिए
और 15 घंटे काम करने वाला पीएम । दहकते है चैंज से लिए, पुरानी पीढ़ी से हमें
आजादी विरासत में मिली लेकिन आजादी की उड़ान हमे विकास से भरनी है। अब अमेरिका
नहीं जा सकते है पर अपने देश को को वेस्ट से बेस्ट बना सकते है । यह बात हमारी सोच
में नज़र आती और सपनों में भी...
ऐसा भी नहीं है कि,
हम पुरानी पीढ़ी से सरोकार नहीं रखते, बस शर्त केवल इतनी है कि, उन बुजुर्गों की
सोच में भी युवा जोश होना चाहिए , जब अन्ना ने कहा “ वो नेता
नौकर है नौकर और हम जनता मालिक है” हम युवा देहके और
फेसबुक की वर्चुअल दुनियां छोड़ रामलीला मैदान से भ्रष्टाचार के खिलाफ महाभारत का
ऐलान कर दिया । ऐसा भी नहीं की हमारे जोश को किसी नेता की हर दम जरुरत हो, 16
दिसम्बर को दामिनी की अस्मत पर हमला हुआ और हम अपनी उस बहन के वीरा (भाई) बन
विजय-चौक पर पहुंच गए, सत्ता के ठेकेदारों को अपने जूते की ठोकर की धमक दिखाई,
इंडियां गेट पर लाठी खाई लेकिन ख़ाख़ी और ख़ादी को इसकदर मजबूर कर दिया कि उन्हे
संसद की चौपाल से नारी के सम्मान का बिल पास करना पड़ा ।
हमें अब नेताओ के
वादे नहीं इरादें चाहिए , पांच साल तक इंतजार करना हमारी फितरत में शुमार नहीं ।
जब-जिस पल लगा की सरकार खुद को खुदा समझ रही है, जनपथ पर उतरकर राजपथ जाम कर
देगें..। हमारी आवाज़ चैनलों और अख़बारों की मौहताज़ भी नहीं, फेसबुक-टयूटर-यू-टियूब
से ही अब रक्तहीन क्रांति का आगाज़ करने की ताकत रखते है। 377 को नहीं मानते,
लिव-इन के लिए शादी की शर्त भी मंजूर नहीं, हमने बाबरी पर बावरा होना छोड़ दिया
है, हमें मंदिर नहीं मेहनत पर भरोसा है, विकास की भूख है और हमे इंतज़ार का अचार
पंसद तक नहीं ।
हमारी दहती सोच के
निशाने पर सरकार और सियासत ही नहीं पुरातन समाज और सस्कांर भी है जो स्कूली
बच्चियों को सर्कट पेहनें से रोकते है और हमे लगता है 10 बरस की बच्ची की सर्कट से
छोटी उनकी सोच है जो उस कन्या में भी वासना का वास देख लेते है। संसद और
विधानसभाओं में तो नेता सिर्फ जाति-धर्म की ज़ज़ीर तोड़ने का भाषण देते है पर हम
तो लव-मैरिज़ से वर्ग औऱ वर्ण के बंधन तोड़कर जीनें का मंत्र जानते हैं । वो लोग
तो आज भी खाने में नोर्थ और साउथ इंडियन की सोच रखते है पर हमे को कॉटीनेंटल पंसद
है, ग्लोबल हमारी समझ है और बटावा हमें भाता नहीं ।
जड़ो से प्यार हमें
भी है, लेकिन जड़ो में जकड़े जाना मुनासिब नहीं लगता, 15 अगस्त पर अग्रेज़ों के
अत्याचार की कहानी बार-बार सुनना हमे बोरिगं लगता है, करेप्शन की कांट लाल-किले के
प्राचीर से बताओं तो जानें...। हाथ जोड़ना हमारे संस्कार में है पर हमेशा जुड़े
रहे यह जरूरी नहीं , हमे सपनों का भारत नहीं बल्कि सचाई का भारत चाहिए । आरटीआई,
आरटीई, फूड-सिक्रोरिटी उनकी भीख नहीं हमारी भूख की वजह से मिला वरना जिन नौकरशाहों
को एक सरकारी फाइल पर साइन करने में परेशानी होती है वो सिटीजन-चार्टर के तहत अपनी
मर्जी से काम करने लगे यह तो संता-बंता से बड़ा जोक होगा । कुछ लोग कहते है कि
युवा जोश हमेऱशा ठोकर का शिकार होता है लेकिन गिरता वहीं है जो दौड़ता है और हमें
खड़े-खड़े पाषाण बन जाते है ठोकर खाती नदीं बनता बेहतर लगता है । हमने पड़ोसी
पाकिस्तान औऱ श्रीलंका से तुलना करना छोड़ दिया है हमे चीनी ड्रेगन सी रफ्तार चाहिए और अमेरिकी अंकल
सेम सी अरीमी भी ..और हम इसे सिर्फ कहकर नहीं छीनकर लेगें...।