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शुक्रवार, अगस्त 26

हम भारत के लोग (We The People)

आज़ादी के 64 साल बाद 74 साल का एक बूढ़ा हमे आज़ादी की दूसरी लड़ाई लड़ने के लिए आवाज़ दे रहा है। आज़ादी के वक्त वो 10 साल का बच्चा होगा, जिसे उस दौर में आज़ादी का अर्थ भी शायद ही पता हो पर आज वो 10 दिनों से ज्यादा भूखा है और 10 साल का बच्चा भी उसका नाम जानता है। इसे आज़ादी की दूसरी लड़ाई ना भी कहें पर आवाज़ बुलंद है, बुलंद भारत के वास्ते।

इस लड़ाई के गर्भ में जनलोकपाल बिल रहा था, था इसलिये कह रहा हूं क्योंकि आज यह लड़ाई जनलोकपाल से बड़ी होकर जन (जनता) बनाम पाल (सियासी मंडली) है। लोकपाल को समझना ज्यादा कठिन है उसके लिये अगर मन में इच्छा हो और कम्प्यूटर में गूगल तो जान सकते हैं, कि क्यों 1968 से बिल राजनैतिक बिलों में छुपा रहा, लोकनायक जयप्रकाश भी इसे पास नहीं करवा पाए, एनडीए की सरकार सड़क पर आ गई, अरुणदती राय की राय यूपीए ने नहीं मानी को अन्ना की आंधी इसे रामलीला मैदान तक ले आई।

यहां मैं बड़ा सवाल उठाना चाहता हूं, सवाल संविधान के विधान का, सवाल Public Vs Parliament का और सवाल आज के कबीर के सच्चे दोहे का कि  “100 में से 99 बेईमान फिर भी मेरा भारत महान”। सवाल यह की भ्रष्टाचार “सहूलियत कर” है या “बेबसी और बेईमानी”। सवाल यह कि महज़ एक वोट के बदले हम पांच सालो की ग़ुलामी कबूल कर लेते है। सवाल यह कि जब इतिहास में एथेंस के लोकतंत्र से लेकर यूपी-बिहार की लच्छवि गणतंत्र में कानून लोकशाही से चल सकते थे तो आज क्यों नहीं ? सवाल ये के जब 47 करोड़ लोग ई-मेल कर सकते है, 75 करोड़ मोबाईल कनेक्शन मौजूद है तो तकनीक का इस्तेमाल जनतंत्र के लिये ज़रुरी क्यो नहीं होता ? 2009 के आम चुनाव में 50 करोड़ से कम लोगो ने मतदान किया था, उससे ज्यादा लोग SMS कर सकते है तो तकनीक व्यवस्था की जगह लेकर लोकतंत्र को लोकनीक में तब्दील क्यो नहीं किया जा सकता।

सवाल उनके भी है, अहम नहीं पर जमहूरियत की ख़ूबसूरती मतभेदों मे ही है, सो उठाना ज़रुरी है। क्या अक्लियत वन्देमातरम् नारे से खुद को जोड़ सकती है ? क्या सातवीं पास फ़ौजी ड्राइवर जनलोकपाल की समझ रख सकता है ? आखिर क्यो अन्ना के गृह नगर में बीते 25 सालो से पंचायत चुनाव नहीं हुऐ ? अन्ना छूटपन में संघी विचार सुना करते थे। अपने बेटी का एडमीशन पूर्व-उतर कोटे से करवाने वाली किरण बेदी बेईमान नहीं, क्या PIL-Baby कहें जाने वाले भूषण भ्रष्टाचार की खिलाफ कर सकते है ? नक्सलियों से स्नेह रखने वाले अगणी वेष देश-हित की बात कैसे कर सकते है ? और केजरीवाल क्यो लोकपाल दायरे को मीडिया और NGO के दूर रखना चाहते है ? क्यो उनकी NGO के लिए विदेशी फंड का फंडा चलता है ? कुछ बुद्धिमान को यंहा तक कहने लगे है कि यह लोग सर्वण-जाति से है, जो आरक्षण को खत्म नहीं कर पाये तो भ्रष्टाचार के नाम पर अपनों के लिए नौकरी की ख्वाहिश पाले हैं ?

जवाब सीधा सा है कि अगर अन्ना की टीम में कोई कमी है तो वो भी जनलोकपाल कानून से नप सकते हैं। जब उंगलीमार डाकू संत बन सकता है तो यह टीम एक संत के साथ इस सही बिल के लिए बवाल क्यों नहीं कर सकती ? जो लोग उनपर आरोप लगाते है क्यो उनको  कांग्रेसी संदेश (मुखपत्र) से फंड नहीं मिलता ? क्या संघ का बाते सुनना अपराध है?  अगर शाही ईमाम देश के राष्ट्र गीत को गानें से मना करें तो वो सेकुलर और अन्ना अगर अक्लियत के बच्चो को इफ्तार कराये तो वो भगवा? याद करें US से फंड लेने का आरोप कांग्रेस जीपी पर लगा चुकी है और उसके बात कांग्रेस उसका झेंडे उठाने वाले भी नहीं मिले थे। अगर रामलीला मैदान की भीड़ सड़को पर बवाल करती है, लड़कियां कैमरे में आने के लिए सजकर आती हैं तो भी यह भीड़, उनके घरो तक भय तो पैदा कर ही देती है। चाहे इन्हे फेसबुक की जनता कहें जो घर लौटते ही रामलीला मैदान की फोटो ट्वीट करने लगते है पर 5 फुट 2 इंच के बूढे इंसान से, जिसे ठीक से हिन्दी भी नहीं आती, अँग्रेजी से अनजान है, जो अगर मेट्रो में नज़र आये तो आप उज्ले कपड़े पहने वाले, कानों पर fm लगाने वाले उसके पास खड़े रहना भी मुनासिब नहीं समझे आज इस भीड़ की आंधी को गांधी के रास्ते पर चला रहा है। उसके गृह नगर में पंच चुनाव नहीं हुऐ, यह सत्य है पर सच यह भी है कि उस गांव में एक भी शराब के ठेका नहीं है, कोई बीड़ी की दुकान नहीं है। अगर फेसबुक की जनता सड़को पर आ आये और फेस-टू-फेस होकर 7RCR (प्रधानमंत्री निवास) पर खड़े होने की हिमाकत करें तो जान लीजिए की जवान जाग गये है। कम से कम अपनी जाति के लिये कटोरा लेकर रेल की पटरी पर बैठने से तो यह बेहतर है। खड़े होकर गन-गण-मन गाने की रस्मअगायेगी से तो बेहतर है खड़े होकर, सियासी खिलाड़ियों की ख़िलाफ़त करना..।


जिन्हे वन्देमातरम् से समस्या है वो ना बोले, पर जिन्हे भ्रष्टाचार से समस्या है वो तो बोल सकते है साहब ? अगर राष्ट्रगीत से आपको शर्म आनी है तो राष्ट्रीय समस्या से आंखे मिलाकर देखे ! संविधान के विधान की बाते करने वालो, संविधान कोई गीता-कुरान नहीं है जिसे बदला नही जा सकता, वो हमारे लिए है, हमसे है, इसके पहले पांच शब्द है WE THE PEOPLE OF INDIA और याद रहे कि हम हमारे हाकिम नेताओं को खलीफा या मनु नहीं बनने देंगे। अगर वो रामलीला मैदान को तहरीक चौक बनाना चाहते है तो यह गदर उन्हे ग़द्दाफ़ी बनाने की ताकत भी रखती है याद रहें..!!

सवाल सिर्फ जनलोकपाल का नहीं लोक बनाम तंत्र का है, सवाल यह है कि प्रधानमंत्री अपने घर के बाहर खड़े लोगो की आवाज़ पर बाहर नहीं आ सकते है, उन्हे जनता से डर लगता है क्यो ? बीजेपी और लेफ्ट संसद की सर्वोच्चता की बाते करते है, क्या संसद भारत के लोकतंत्र की चौपाल नहीं ? इस गोल मंदिर को क्यो जनता के लिये खोला नहीं जाता ? क्या यह छुआछूत नहीं ? जब मनमोहन इस मज़हब को दिखाने लिए घर पर इफ्तार पार्टी करते है और एक बूढ़ा भूखा रहकर तिल-तिल कर मरता है तो इस चित्र क्या देश चरित्र रह जाएगा।



अभी-अभी लोकसभा टीवी पर कांग्रेस युवराज का बयान आया। राहुल गांधी का बयान स्वागत योग्य हैं, सच्चा भी जिसमें कोई कमी नहीं। पर कमी कहां रही इसपर विचार ज़रुरी है। क्या राहुल बाबा अभी तक भर नींद सो रहे थे जो सरकारी लोकपाल बिल में उसे संविधानिक संस्था बनाने का ख्याल नहीं आया ? क्या उनकी मंशा संविधान संशोधन के नाम पर इस बिल को सियासी बिलो में छुपाने की नहीं है? क्या कभी शुल्यकाल में कोई संसद लिखा हुआ भाषण पढ़ता है? क्या  अब सरकारी नीति मनमोहन की नियती से नहीं कांग्रेसी युवराज की नीयत से तय होगी ? क्यो देवभूमि के घोटालो और कर्नाटक के नाटक में बीजेपी इस मुद्दे को उठा नहीं पाई और अन्ना का आना पड़ा ? क्यो हमारा Political System-अंग्रेज़ी सरकार की तरह बहरा हो गया है, जिसे जगाने के लिए भगत सिंह का बम ना सही पर अन्ना की आंधी ज़रूरी है ताकि vote bank की भाषा समझने वाले नेताओं को भीड़ को शोर सुनाई दें। बड़ा सवाल यह है कि इस लोकतंत्र को भीड़तंत्र बना कौन रहा है ?  अन्ना की आंधी या नेहरु का गांधी ?

मैं नहीं कहता कि मेरा ब्लॉग ही अंतिम सत्य है या सियासी नेता की ज़ुबान ब्रह्मा की लकीर..पर अब जनता जागने लगी है। वो पीएम के घर धरना देती है, कांग्रेसी युवराज का घेराव करती है, उसकी आवाज़ ससंद परिसर में सुनाई देती है, प्रजा अब जतना बनकर बागी हो गई है, उसे सरकार  से डर नहीं लगता, सकार को उससे दहश्त होने लगी है और अब हम भारत के लोग हमेशा यहीं गाना नहीं गाएंगे “हम होंगे कामयाब एक दिन” आज वहीं एक दिन होना चाहिए.. दिन कवि दिनकर का कि - अब्दो-शताब्दियों का अंधकार, बीता गवाश अम्बर के दहके जाते है, यह और कुछ नहीं जनता के सप्न अजय, चीरते तिम्र का हिद्गय उमड़ते आते है, फव्हारे अब राज दंड बनने को है, हस्रते स्वर्ण सिंगार सजाती है, समय के रथ का हर-हर नाद सुना, सिंहासन खाली करो कि अब जनता आती है....!!

गुरुवार, अगस्त 11

अशनश और आरक्षण : गांधी बन्दर अब हल्ला बोल..

मोहन दास गांधी ने कभी सोचा नहीं होगा की बुरा ना देखो, सुनो और बोलो कहने वाले उनके बंदरों को आज का आम-आदमी अपनी आदत में शुमार कर लेगा..। बस वो बंदर बहरा, अंधा और गूंगा बन चुका है। जो हर बदलाव से डरता है, हर बात से बचता है और सच से छुपता है।

खुद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के ख़ुदा (नेता) कहने वालो ने लोकतंत्र (आवाम की आत्मा) हत्या कर दी और अब वो पोस्टमार्टम भी नहीं करवाना चाहते। उन्हे हर उस बात से डरते है जो संवेदनशील है। वो जनता की संवेदना का ही कत्ल करना चाहते है ताकि जनता प्रजा नामक सूअर बनकर रोज रोजी-रोटी में जीते रहे और चुनाव के बाद वोटो की माला पहनाकर उसी सूअर की बलि दे दी जाती है।  वो SEX-Edu पर बात नहीं करते, समलैंगिकता पर बहस से बचते है, 84 की दिल्ली और 03 के गुजरात पर आम-राय नहीं बनाते और आरक्षण-अनशन पर उनके अल्फाज़ों का ही अंत हो जाता है।

किताबों पर पढ़ा था लोकतंत्र में उदारता होती है, संवाद और बहस का मौका मिलता है..पर शायद किताबों का किस्सा किसी और देश के लिए रहा होगा..। वो ख़ुदा (नेता) डेली-बेली में मां-बहन की सुन सकते है, प्यार के पंजनामें में नंगा-नाच देख सकते है, फिल्मों के नाम अगर कमीने हो तो भी उन्हे कोई दिक्कत नहीं पर..आरक्षण पर बात करना भी उन्हे गंवारा नहीं..। फिल्म में मौलिक सवाल उठाया गया था कि जब पिछड़े आपके घर की सफाई कर सकते है, खेतों में काम कर सकते है, आपकी ट्टी तक उठा सकते है तो उनकी मेहनत पर किसी को शक नहीं होना चाहिए साथ ही यह बात भी उतनी सच है कि विकास के लिए आरक्षण की बैसाखी नहीं मैरिट के पैमाने की जरुरत है।

लेकिन हमारे नेताओं को यह विषय ही गलत लगता है। क्योंकि यह जातिवाद और आरक्षण पर सवाल उठाता है। साहब जब जाट आरक्षण के नाम पर रेल को जाम कर रहे थे, गुर्जर और मीणा राजपूताना को जला रहे थे। जब मंडल वाले सरकार चला रहे थे तब किसी भी नेता को आरक्षण के नाम पर जातिवाद फैलाने की याद क्यों नहीं आई ? क्यो आगे बढ़ते भारत में साल-दर-साल कुछ जातियां पिछड़ जाती है ? इसपर कोई नेता सवाल क्यों नहीं उठाता ! जाति के नाम पर बनी खाप-पंचायतें देश का कानून को कचरे की टोकरी में डालकर अपना फतवा सुनाती है तो किसी को सविंधान की याद क्यो नहीं आती ?


सिर्फ इसलिए की यह एक सवेंदनशील मुद्दा तो इस पर बहस नहीं हो सकती। इसलिए स्कूलों में sex-edu नहीं देनी चाहिए फिर चाहे भारत दुनियां में सबसे आबादी वाला देश बने या एड्स के मरीज़ो का नया विश्व किर्तिमान बनाए, संसद के बाहर लोकपाल पर बहस मंज़ूर नहीं है फिर चाहे नेताओ के घोटाले 2 लाख करोड़ के हो या वो पूरे मुल्क को बेचे दें...। इसे लोकतंत्र नहीं लाशतंत्र कहा जा सकता है, जिसमें हर शख्स एक जिंदा लाश है, जिसे जब चाहे पुलिस वाला लात मार सकता है, सरकारी बाबू भ्रष्टाचार के नाम पर उसकी जेब काट सकते है, नेताओं के नियम उसकी नियती तय सकते है और वो गांधी जी के बंदर की तरह मुंह-आख-कान बंद करके जिंदा लाश बना रहता है।

लाशों के लोकतंत्र में आपका स्वागत है, जहां रह लाश आपको जी-कर मरना सिखाती है, कोई कहता है कि आरक्षण और अशनश दिखाने वालो की मत सुनो..। जो सरकार चाहे सविंधान की दुहाई देकर किसी फिल्म के बैन कर दें, पर क्या अभिव्यक्ति का अधिकार भी उसी सविंधान में नहीं लिखा ? क्या शांतिपूर्ण अशनश उसी सविंधान के मौलिक अधिकारों में दर्ज नहीं हैं ?  मैने शुरुआत में नेताओं को ख़ुदा कहा था, उसके गहरे अर्थ हैं वो हिन्दुओं के मनु और मुसलमानों के ख़िलाफ़ा की तरह सविंधान को किसी धार्मिक पुस्तक बनाकर इस्तेमाल करते रहते हैं और हम गांधी जी बंदर अपना मुंह उसके हर फतवे पर बंद रखना ही बेहतर समझते है ।

लाशों के लोकतंत्र में कुछ लाशें कहती है कि लोकपाल से कुछ नहीं बदलने वाला, हर एक अधिकारी और बढ़ जाएगा जिसे रिश्वत देनी होती, कल तक जो काम 50रुपये की रिश्वत से होता था लोकपाल के बाद 100रुपये देने होगें, आखिर 50रुपये कि रिश्वत तो लोकपाल का हक होगा। कुछ सियानी लाशें यह भी बताती है कि सविंधान की आत्मा है न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में शक्ति-संतुलन कायम रखने में है...जो लोकपाल आते ही बिगाड़ा जाएगा। लोग यह भी कहते हैं कि प्रकाश झा फिल्म से पैसा कमाना चाहता है और फौज में ड्राइवर रहा अन्ना क्या जाने लोकपाल बिल की बात..।

मैं उस लोकतंत्र की लाशों से एक सवाल पूछना चाहता हूं, आजकल बच्चे अपने मां-बाप की कद्र नहीं करते तो क्या वो बच्चे पैदा करने छोड़ देगें ? या अगर घी-दूध-सब्जी-फल-अन्न में मिलावट होने लगी तो क्या उन्होने भूख हड़ताल कर ली थी ? नहीं ! तो फिर लोगों को यह समझना चाहिए कि व्यवस्था की कब्र खामोशी की नींद से बेहतर होगा..अमनो के लिए, सपनों के लिए लड़ना..। जब एक फौज के रिटायर ड्राइवर (अन्ना हज़ारे) बुढ़ापे में भुखे रहकर लड़ सकता है, जब इस फिल्म निर्माता अपनी फिल्म और पूंजी को दाव पर लगाकर लड़ सकता है तो 125 करोड़ जिंदा लाशे क्यों नहीं...

लोकपाल से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा, RTI के बाद भी घोटाले होते है पर बंदर बनकर अंधे-गूगें और बहरे होने से, लोकतंत्र की जिंदा लाश बनने से, काम से घर और घर से काम पर जाने से, रिश्वत को सुविधा-कर मानने से, एक फिल्म पर पाबंदी लगाने से, एक अर्थशास्त्री को भगवान मानकर देश को दिवालिया बनाने से, लाल-सलाम के आतंक को सहने से, अफ़जल-कसाब को जेल में खिला-पिलाकर पालने से, सरकारी बाबुओ को गाली देकर भी उसी सरकारी नौकरी को पाने से, खैराती अस्पताल में अपनो को मरते देखने से, राम के नाम पर इमारतों को तोड़ने से, बुर्क़े और घूंघट में घुटने से, टूटे सपनों का मातम बनाने से, अधूरे अधिकारों की चिता जलाने से..लड़कर मर जाना बेहतर होगा..। शांति से लिए युद्ध ज़रूरी है और लोकतंत्र में जंग हथियारों से नहीं हौसले से लड़ी जाती है..। गांधी जी के बंदरों अब हल्ला बोलो....!!