वो शनिवार की रात मेरे लिये किसी पाठशाला से कमतर नहीं थी। किसी दोस्त के साथ देर रात हाईवे के ढाबे पर जाने का मन किया। सोचा घर का खाना और विलायती पकवान तो रोज ही खाते हैं। चलो आज देसी स्वाद को जरा फिर से चखा जाये। वो भी कॉलेज के अंदाज में।
घर से बाइक उठाई, दोस्त के साथ एनएच-8 की राह पर हो चले। राह तो वही थी पर रास्ते बदले-बदले से थे। ऐसा नहीं है कि गुड़ंगाव जाना कभी होता ही नहीं लेकिन इस तरह से तो नहीं ही होता। कभी चैनल की न्यूज़ के वास्ते वहां के मॉल्स की खाख छाननी पड़ती है, तो कभी दोस्तों के साथ पार्टी की पैमाशन। लेकिन इस बार गाड़ी की सवारी नहीं बाइक की राइडिंग थी, फ्रेंडली गर्ल्स नहीं दोस्तान का अंदाज। धौलाकूआं से चले और चलते रहे पर हाईवे पर ढाबा नहीं दिखा।
आखिर अब हाईवे, एक्सप्रेस-वे में तबदील हो गया है। खेतों पर ख्वाबों की इमारतें सजी है। तो भला ढाबा कैसे दिखे। पांच साल पहले अपनी जीएफ के साथ इस रोड से गुजरा करता था, आज वो लड़की गुजरा हुआ कल है। उसका दिल बदल गया है, रोड के दिन बदले गये हैं पर मेरी राय नहीं बदली। तलब आज भी ढाबे के खाने की ही लगी है। सो सड़क पर सवा सौ की रफ्तार से ढाबे की तलाश पर चलते चले। इफ्पो चौक मिल गया पर ढाबा नहीं। किसी सियाने से पूछा तो बोल साहबजी जिस सरीखे के ढाबा आप चाहते हैं, वो तो मानेसर के बाद ही मिले तो मिले।
फिर सोचा कॉलसेंटर में एक दोस्त काम करता है, अब यहां तक आ ही गये है तो उस दोस्त से भी मुक्का-लात कर लिया जाये। मिले तो उसकी सूरत चुसे हुये आम की माफित लग रही थी। पूछा क्या हुआ, बोला यार टारगेट-मीट नहीं हो रहा। गौरे भी साले गरीब है..कहते है की घर में कार है, फोन है, पीसी है पर पैसा नहीं और लोन नहीं लेंगे। अब अगर वो लोन नहीं लेंगे तो मेरा लोन कैसे उतरेगां। भाई साहब पेशे से पायलेट हैं, पर थोड़ा लेट हो गये, जब फ्लाइंग सीखने अमेरिका गये थे तो रुपया और बाजार दोनों मजबूत थे, लौटे तो मदीं और मंहगाई से एयरलाइन की हवा निकल चुकी थी। और वो अपनी कॉकपिट से निकलकर कॉलसेंटर पहुच गए। लेकिन अब अपना एजुकेशन लोन कैसे निकले इसका जवाब जनाब के पास नहीं। हां इससे सवाल का जवाब जरुर मिल गया कि बेबर किसान या भूखे मजदूर ही नहीं मोटर-गाड़ी में बैठ, एसी की ठंडी हवा खाने वाले शहरी लोग ही कर्ज की मर्ज के मारे है। बस उसकी बेबसी साहूकारो की पोथी में नहीं, बैंक की शीट पर दिखती है। हां दोनो तरह के हम लोग चिर निंद्रा में होते है फिर चाहे वो आत्महत्या की नींद हो या नींद की गोलिया खाकर जबरदस्ती की नशेमंद रात।
भाई बोला, पापा की नौकरी ही बेहतर थी..रिटायर होते-होते सिर पर छपरा तो बन जाता था..आज तो लोन पर जीना और लोन में मर जाना ही गलोबल जन्नत है। बोला अब ठेठ हिन्दुस्तानी जुगाड़ में लगा हूं। क्या पता किसी की मुठ्ठी भरकर मैं उड़ान भरने लगूं। खैर इस खस्ता हाल की खेती भी तो इसी तर्ज पर होती है। जब प्राइवेट में मुट्ठी का जलवा है तो सरकारी साहब की क्या बात करें। अफसर की कुर्सी, आईपीएस की तरह बिकाऊ है तो पैसा वसूली में कोताही क्यों। तभी को अन्दर नहीं आता क्योंकि ढाबे की बहस तो जेएनयू में ही सिमट गई है। और जो पैसे की प्यास में प्यासा है, वो पागल हैं बागी नहीं। क्रांति के लिये पागलपन, बागपन चाहिए, जो हम नशेमंद नौजवानों में नहीं मिलता।
अब समझ आता है की लोन की लंका के चलते ढाबे का डंका कहीं खो गया। कर्ज के मर्ज से मॉल्स बन गये और माटी के खाने काल में खो गये। कभी किस्सों में क्लोन के लोग सुने थे, आज लोन के लोग देख लिये। देश ही नहीं दुनिया का यही हाल है। सियासे सिसासी लोग, भले ही दंत्तेवाड़ा तो दिल्ली से दूर कहे, पर वो है नहीं। रात बहुत हो चुकी थी, तो घर वापस हो लिये। रिंग रोड पर आइडिया का ऐड देखा पर उसकी बत्ती गुल थी। शायद एमसीडी रात में बिजली बचा रही होगी या आइडिया, सर जी भी सो रहे होंगे। खैर इस आइडिए से एहसास हुआ कि कार के साथ भी हम बेकार है, सेल है पर नई सोच नहीं, पीसी से प्यार नहीं होता और हर हाईवे पर ढाबे नहीं मिलते।
घर जाकर चैन की बंसी बजाकर सो गया, हम मीडियावालों का सनडे ओफ नहीं होता। कल ऑफिस जाना है, घर लौटना। आइडिया चले ना चले काम हो चलता ही रहेगा। आंखे लगते ही लपकर उठा, या यू कहें जज्बाती होकर जागा। लगा कि, लोन की लंका जल चुकी है, समाजवाद का सवेरा है, फिर से कॉलेज की मीत और साथियों की प्रीत के साथ हाइ-वे पर खाना खा रहा हूं, पास खड़ा किसान खुश है, दूर खड़ा मजदूर भी। ट्रक ड्राइवर भी और हम लोग भी। फिर होश आया कि वो अपना था पर सपना था, रात अभी बाकी है, मेरे दोस्त...।
घर से बाइक उठाई, दोस्त के साथ एनएच-8 की राह पर हो चले। राह तो वही थी पर रास्ते बदले-बदले से थे। ऐसा नहीं है कि गुड़ंगाव जाना कभी होता ही नहीं लेकिन इस तरह से तो नहीं ही होता। कभी चैनल की न्यूज़ के वास्ते वहां के मॉल्स की खाख छाननी पड़ती है, तो कभी दोस्तों के साथ पार्टी की पैमाशन। लेकिन इस बार गाड़ी की सवारी नहीं बाइक की राइडिंग थी, फ्रेंडली गर्ल्स नहीं दोस्तान का अंदाज। धौलाकूआं से चले और चलते रहे पर हाईवे पर ढाबा नहीं दिखा।
आखिर अब हाईवे, एक्सप्रेस-वे में तबदील हो गया है। खेतों पर ख्वाबों की इमारतें सजी है। तो भला ढाबा कैसे दिखे। पांच साल पहले अपनी जीएफ के साथ इस रोड से गुजरा करता था, आज वो लड़की गुजरा हुआ कल है। उसका दिल बदल गया है, रोड के दिन बदले गये हैं पर मेरी राय नहीं बदली। तलब आज भी ढाबे के खाने की ही लगी है। सो सड़क पर सवा सौ की रफ्तार से ढाबे की तलाश पर चलते चले। इफ्पो चौक मिल गया पर ढाबा नहीं। किसी सियाने से पूछा तो बोल साहबजी जिस सरीखे के ढाबा आप चाहते हैं, वो तो मानेसर के बाद ही मिले तो मिले।
फिर सोचा कॉलसेंटर में एक दोस्त काम करता है, अब यहां तक आ ही गये है तो उस दोस्त से भी मुक्का-लात कर लिया जाये। मिले तो उसकी सूरत चुसे हुये आम की माफित लग रही थी। पूछा क्या हुआ, बोला यार टारगेट-मीट नहीं हो रहा। गौरे भी साले गरीब है..कहते है की घर में कार है, फोन है, पीसी है पर पैसा नहीं और लोन नहीं लेंगे। अब अगर वो लोन नहीं लेंगे तो मेरा लोन कैसे उतरेगां। भाई साहब पेशे से पायलेट हैं, पर थोड़ा लेट हो गये, जब फ्लाइंग सीखने अमेरिका गये थे तो रुपया और बाजार दोनों मजबूत थे, लौटे तो मदीं और मंहगाई से एयरलाइन की हवा निकल चुकी थी। और वो अपनी कॉकपिट से निकलकर कॉलसेंटर पहुच गए। लेकिन अब अपना एजुकेशन लोन कैसे निकले इसका जवाब जनाब के पास नहीं। हां इससे सवाल का जवाब जरुर मिल गया कि बेबर किसान या भूखे मजदूर ही नहीं मोटर-गाड़ी में बैठ, एसी की ठंडी हवा खाने वाले शहरी लोग ही कर्ज की मर्ज के मारे है। बस उसकी बेबसी साहूकारो की पोथी में नहीं, बैंक की शीट पर दिखती है। हां दोनो तरह के हम लोग चिर निंद्रा में होते है फिर चाहे वो आत्महत्या की नींद हो या नींद की गोलिया खाकर जबरदस्ती की नशेमंद रात।
भाई बोला, पापा की नौकरी ही बेहतर थी..रिटायर होते-होते सिर पर छपरा तो बन जाता था..आज तो लोन पर जीना और लोन में मर जाना ही गलोबल जन्नत है। बोला अब ठेठ हिन्दुस्तानी जुगाड़ में लगा हूं। क्या पता किसी की मुठ्ठी भरकर मैं उड़ान भरने लगूं। खैर इस खस्ता हाल की खेती भी तो इसी तर्ज पर होती है। जब प्राइवेट में मुट्ठी का जलवा है तो सरकारी साहब की क्या बात करें। अफसर की कुर्सी, आईपीएस की तरह बिकाऊ है तो पैसा वसूली में कोताही क्यों। तभी को अन्दर नहीं आता क्योंकि ढाबे की बहस तो जेएनयू में ही सिमट गई है। और जो पैसे की प्यास में प्यासा है, वो पागल हैं बागी नहीं। क्रांति के लिये पागलपन, बागपन चाहिए, जो हम नशेमंद नौजवानों में नहीं मिलता।
अब समझ आता है की लोन की लंका के चलते ढाबे का डंका कहीं खो गया। कर्ज के मर्ज से मॉल्स बन गये और माटी के खाने काल में खो गये। कभी किस्सों में क्लोन के लोग सुने थे, आज लोन के लोग देख लिये। देश ही नहीं दुनिया का यही हाल है। सियासे सिसासी लोग, भले ही दंत्तेवाड़ा तो दिल्ली से दूर कहे, पर वो है नहीं। रात बहुत हो चुकी थी, तो घर वापस हो लिये। रिंग रोड पर आइडिया का ऐड देखा पर उसकी बत्ती गुल थी। शायद एमसीडी रात में बिजली बचा रही होगी या आइडिया, सर जी भी सो रहे होंगे। खैर इस आइडिए से एहसास हुआ कि कार के साथ भी हम बेकार है, सेल है पर नई सोच नहीं, पीसी से प्यार नहीं होता और हर हाईवे पर ढाबे नहीं मिलते।
घर जाकर चैन की बंसी बजाकर सो गया, हम मीडियावालों का सनडे ओफ नहीं होता। कल ऑफिस जाना है, घर लौटना। आइडिया चले ना चले काम हो चलता ही रहेगा। आंखे लगते ही लपकर उठा, या यू कहें जज्बाती होकर जागा। लगा कि, लोन की लंका जल चुकी है, समाजवाद का सवेरा है, फिर से कॉलेज की मीत और साथियों की प्रीत के साथ हाइ-वे पर खाना खा रहा हूं, पास खड़ा किसान खुश है, दूर खड़ा मजदूर भी। ट्रक ड्राइवर भी और हम लोग भी। फिर होश आया कि वो अपना था पर सपना था, रात अभी बाकी है, मेरे दोस्त...।