मेरी ब्लॉग सूची

मंगलवार, मई 24

किसान की किस्मत और हम लोग





वो मार्क्स के विचारों की मंडी थी, जहां से लेनिन नारे लगाते थे कि दुनिया भर के मज़दूरों और किसानों एक हो जाओ…। उन परदेसी नारों की गूंज देश में सुनाई देने लगी। एक किसान के बेटे (भगत सिंह) ने नेशनल एसेंबली (संसद) में बम फोड़ा ताकि बहरों की कौम को इंकलाब की आवाज़ सुनाई जाए, दूसरे किसान के बेटे (उधम सिंह) से लंदन जाकर जर्नल डायर का वध कर डाला ताकि गोरों को एहसास हो कि जलियावाला बाग में शांति इबादत करने वाले किसान...क्रांति की इमारत भी बना सकते हैं।


दोनों किसान पूत कांग्रेस नेता नहीं थे, सत्ता और सियासत नहीं चाहते थे, मन में क्रार्ति की सनसनाहट थी और लब्जों पर इंक़लाब के अल्फाज़..। जरूरी नहीं खादी और खा़की से ही खिलाफ़त की जाए उसके लिये माटी का मानुष ही काफी है। इसके बाद दो बड़े किसान चौधरी रहे...चरण सिंह और महेंद्र सिंह, एक ने नेहरु को जता किया कि यह हिन्द की जम्हूरियत है.. जहां पीएम का विरोध किया जा सकता है। चाचा नेहरु की खिलाफत चौधरी के साथ बाबा यानी भीमराव अंबेडकर ने भी की थी...पर दोनों की दिशा अलग थी। चरण सिंह ने लोहिया और जेपी के साथ आपातकाल में विरोध का शंखनाद किया.. लोकतंत्र के लिये लड़े..किसानों के लिये संघर्ष किया..हांलाकि बीबीसी, चरण सिंह को चेयर सिंह की संज्ञा भी देती थी..लेकिन जो भी हो उन्होनें बता दिया कि, किसान गधों की जमात नहीं शेरों की फौज है, जो किसी की भी सत्ता को संसद से सड़क पर पटक सकती है।


चरण सिंह के जाने से रिक्त स्थान को महेंद्र सिंह ने भरा..हांलाकि चौधरी साहब का सियासी वारिस खुद को अजित सिंह कहता है। लेकिन यूएस से इंजिनियरिंग करके लौटे लड़के में माटी की महक कहां मिलती हैं? गेहूं हो या गन्ना टिकैत ने किसानों की ख़ातिर कई दफा सरकारों से टक्कर ली..। एक वक्त वो भी आया जो संसद में बैठे सियासी राजा, अपनी शहरी रियाया को समझाने लगे, कि अगर गन्ने के मूल्य बढ़ेगें तो आपकी चाय-कॉफी की चीनी महंगी हो जाएगी..। गेहूं के दामों से डबल रोटी का MRP ज्यादा हो जाएगा..और महँगाई आम आदमी की कमर तोड़ देगी...।


टिकैत राजनेता नहीं थे.. पर किसानों के नेता जरुर थे। वो 80 के दशक के अख़बारों की बहस में यह नही समझा सके कि, आज भी भारत गांव में बसता है और आम आदमी उसे कहते है जो अपनी गाय के दूध से उस बच्चों की भूख मिटाता है, जिनकी शहरी मां अपनी फिगर बनाने के लिए अपनी ही औलाद को स्तनपान नहीं कराती..। वो पसीने से गन्ना उगाता है.. ताकि हर खुशी के लम्हे में कुछ मीठा हो जाए... ताकि ईद की सेवईयां और दीवाली की मिठाई का जायका बना रहे। वो अन्नदाता ही हैं जिसकी वजह से आपने ए.सी दफ़्तरों में लंच टाइम होता है। वो किसान.. देहाती..गंवार ही असल आम आदमी है जो आपको ख़ास बनाता हैं।


जब सियासी बिल्ली, 'दिल्ली' को आम आदमी की परिभाषा समझ में नहीं आई तो टिकैत ने फैसला किया इस बिल्ली के गले घंटी बाधने का..। टिकैत के नाम पर किसान टैक्टरों में भरकर पहुंचे दिल्ली बॉट-क्लब... इस किसान रैली से राजनेताओं को एहसास हो गया कि अभी भी वोट की ताकत और गन्ने के डंडे का तोड़ उसके पास नहीं हैं। लेकिन 1991 में बाद समा बदल गया। किसान और मज़दूरों के वकालत करने वाला सोवियत टूट गया, अब वोट, नोट पर बिकते हैं और नोट बम्बई के स्टॉक से आते हैं पंजाब-हरियाणा के खेतों ने नहीं। बासमती के निर्यात में वो विदेशी मुद्रा नहीं रह गई जो बीपीओं से आती हैं। आज 50 बीघा ज़मीन वाले बड़े किसानों की आमदनी उतनी भर भी नहीं रह गई है कि जिनका कोई 10वी पास लड़का अंग्रेजी बोल कर कॉलसेंटर में कमा लेता हैं।


गोरी सरकार से लोहा लेने वाले किसान (भगत सिंह-उधम सिंह) और काले बाबू और भ्रष्ट नेताओं को किसानों की ताकत दिखाने वाले (चरण सिंह-मेहद्र सिंह) को सियासी बैसाखी की जरुरत पड़ गई। बंगाल के नंदीग्राम से, यूपी के बुंदेलखंड तक, महाराष्ट्र के विर्दभ से नोएडा के भट्टापरसौल तक..आज किसान सियासी नेताओं की शंतरज़ के मोहरे भर बन गये हैं। भारत कृषि प्रधान देश था...वो अन्नदाता कभी पीएम के जय किसान के नारों में था..कभी चरण के साथ सिंह बनकर आपातकाल के खिलाफ खड़ा था, कभी टिकैत के ट्रैक्टरों से दिल्ली की घेराबंदी की ताकत रखता था..और आज उसके सपने का मदारी (राहुल गांधी) दिल्ली से बाइक पर आता है...टिकैत की मौत हो जाती है...और कृषि ज़मीनों पर छा जाता है 'माया' जाल...आज उसकी औकात बंगाल की मज़दूर यूनियन से भी कमतर है..क्या किसानों की शक्ति का अंत हो गया है....?







शायद दोनों चौधरी (चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत) ऊंची जाति के जादूगर थे, जिनका असर दलित किसानों और कृषि मजदूरों को छू नहीं पाया..या ये दोनों बड़े किसान जमीदारों के जिन्न थे जो कृषि मज़दूर की किस्मत बदल नहीं पाए..। बहुत से किसान जाट हो सकते है, लेकिन कृषि किसी खास जाति की जागीर नहीं...क्यों भारत में कोई किसान नेता नहीं जो...कृषि की नियती नहीं बदल सकता...क्यों बुदेलखंड और विदर्भ के अन्नदाता भूखे मर जाते हैं...और कलावती के घर खाना खाने वाला काँग्रेसी युवराज उनकी मौत पर राजनीति करता है...। दूध और गेहूं की कीमतों पर हल्ला बोलने वाले शहरी ज़रा उसका दर्द भी देखे.....!! शायद दोनों के बीच की असली दलाल खुद सरकार बन चुकी है..जो किसानों की सस्ती ज़मीन पर मिडिल क्लास के लिये महंगें फ्लैट बनाती हैं... किसान कर्ज नहीं चुका पाता और मिडल क्लास बैंक का लोन... चंद सालों में गांव, शहर बन जाता...खुले खेत, चिड़िया के घोंसले से फ्लैट में तब्दील हो जाते हैं...बिल्डर नोट पाता है...सरकार वोट और हम लोग सिफर.. यानी शून्य




किसानों की ज़मीन पर ही फ्लैट बनेगें, सड़क भी बनेगी और संसद वाले वोट भी उन्हीं से मागेगें...उसकी इस हालत को देखकर बचपन में पढ़ी बरगद के पेड़ की कहानी याद आ जाती है...जो बच्चे को पतंग के लिये पत्ते देता है, पेट भरने के लिये फल... उसकी टहनियों से वो घर बनाता है...और एक दिन उसके ठूठ से तने तक उखाड़कर उसकी नाव बनाकर गांव की नदी पार कर शहर चला जाता है...पेड़ की मौत हो जाती है..। क्या किसानों का भविष्य भी यही हैं..? क्या उसकी मौत पर हम मॉल बनाएगें..? क्या उनके दर्द को गूगल के चश्मे से देखा जा सकता है...? अगर आपसे सरकार आपके दोनों हाथ काटने को कहे और इसके बदले बड़ा मुआवजा दे दे..तो क्या आप अपने कमाऊ हाथ..गांधी के फोटो वाले नोटो के लिये न्यौछावर कर देगें...? अगर नहीं तो याद रखिये इस मानुष और मिट्टी का भी रिश्ता वहीं है....हाथ के बिना मरा नहीं जाता और खेती के बिना जिया नहीं जाता.....अगर इसके बाद भी आपकी आँखें नम नहीं होती तो प्लीज उन्हें डोनेट मत करना, क्योंकि वो सड़ चुकी है......!!