मेरी ब्लॉग सूची

गुरुवार, सितंबर 23

बारिश में भीगी-बिल्ली – दिल्ली

मॉनसून मोहब्बत का वक्त या मातम का मंज़र, मैं बाढ़ या बहार की बात नहीं कर रहा केवल आम बारिश और हम लोगो की बात बता रहा हूं। मेरी दो महिला मित्र रही हैं। एक कॉलेज के जमाने में थी और दूसरी जब मैं नौकरी पेशा बन चुका हूं। कॉलेज के जमाने में हम आम युवओं की तरह हम बारिश का इतज़ार करते हैं, उसमें भीगने का, खेलने का, हसंने का और घूमने का...भीगी दिल्ली धुली-धुली सी लगती थी...खासतौर पर विजय-चौक (इंडिया गेट) पर, फिज़ा में गर्मी के बाद की ठंडक थी, रास्तों पर मस्ती की रंगीनियां। डीयू में दोस्तों के साथ पंडित की चाय– शर्मा की कचौड़ी खाना... उसमें पानी छलकना, बरिश में बाइक रेसिगं, रिग रोड पर हल्ला-गुल्ला... बहुत याद आता है।

बमुश्किल तीन-चार साल गुज़रे होगें लेकिन मस्ती का वो मज़र बदल चुका है। आज मेरी महिला मित्र को मॉनसून मातम सा लगता है, पानी मानो मुसीबत की एसिड-रेन, कार है तो ठीक वरना सब बेकार है। आखिर भीगने के बाद मैट्रो की सवारी नहीं हो सकती, मॉल के एसी से ठंड लगने का खतरा है, कपड़े चिपचिपें हो जाते है। लेकिन क्या महज़ चंद सालों में मॉनसून का मंज़र बदल गया?

आपको ये कहानी मेरी लग सकती है, लेकिन इस बेगानी कहानी का सरोकार बुद्धू डिब्बे (कम्पूटर) के आगे बैठे आप से भी है। यकीन नहीं आता, तो चलो आपको थोड़ा फ्लैश-बैक में लिये चलता हूं। छुटपन में मां हमें बताती थी, कि जब चींटी के पंख निकल आयें या चीड़ियां रेत में नहाने लगे तो समझो बारिशों का मौसम करीब हैं। कुछ याद आया !! अख़बार के उस पन्नें में बारिश में नहातें गरीब बच्चो की तस्वीरें, मस्ती करती लड़कियों के फोटो..कितना सुकून देता था। पास के सोम-बाज़ार से हरियाली-तीज की शॉपिगं, सरकारी चैलन (डीडी-न्यूज) पर रोज़ रात देखना कि, मॉनसून कितने दिनों बाद आ रहा है। पहली बारिश में मद-मस्त होकर नहाना..घर पर पूरे परिवार के साथ गर्मा-गर्म पकोड़े खाना। ये पढ़कर ही चहरे पर चमक आ जाती है ना !!

मैं स्कूल में हुआ करता था बॉबी देओल की एक फिल्म आई थी– बरसात। हिन्दी फिल्मी-फंसाने में भी बरसात बहार का सिम्बल हुआ करती थी..आज तो मुबंई में हुई आफती-बारिश पर इमरान हाशमी की फिल्मों का चलन है। कभी कक्षा पहली की किताबों में मुल्क का मासूम बच्चपन पढ़ता था, कि भारत एक कृषि-प्रधान देश है जिसकी लाइफ-लाइन मॉनसून है। त्योहार इसी शुरु होते थे..हसीं भी और खुशी भी...

आज कि किताबों में भारत कृषि-प्रधान देश से वैश्विक-आर्थिक महा-शक्ति बन गया हैं। दिल्ली का यमुना-खादर जहां कभी फसलें लहराती थी, बारिश में बच्चे तैरते थे, आज अक्षरधाम मंदिर और खेल-गांव खड़ा है। बारिश अब बहार नहीं ब्रेकिंग न्यूज बनकर आती है। कल किसी चैनल पर आ रहा था – ब्रेकिगं न्यूज राजधानी में बारिश, आफत में दिल्ली। मेरे भाई मॉनसून में बारिश नहीं होगी तो क्या रेत की आंधिया चलेगी, और बारिशों में पानी गिरना भला कौन सी ब्रेकिंग-न्यूज है? ट्रैफिक जाम तो आये दिन होता है तो क्या भगवान पानी बरसाना छोड़ दें..यमुना आपके घरों तक बाढ़ लेकर नहीं पहुची है साहब, आपके उसकी ज़मीन छीनकर वहां अपना बसेरा बना लिया है। पता नहीं आज-कल अख़बारे से वो बारिश के पानी में खुशी में भीगती युवतियां और तैरते बच्चे कहा खो गये।

हम लोगों को एसी की आबो-हवा इतनी बेबस बना चकी है, कि ठंडी पुर्वा (बरसाती हवा) रास नहीं आती। डर तो इस बात का कि कहीं आते वाले पढ़ी पहली बरसात में भीगने के स्वाद ही भूल ना जाये। अपनी कार के शीशा को जरा उतारकर देखो नन्ही-बूदें कुछ कहना चाहती है। बारिश में आज भी पंछी अपने गीत गाते है, लेकिन हम एफएम के दीवानों का उनका सुर सुनाई नहीं देता। सुने भी तो कैसे, हमारे कान तो ईयर-फोन से बंद हो गये हैं। चिड़ियां के घोसलों को फ्लैटो में रहकर हम लोग बादलों को निहारना ही भूल चके हैं। भूल चुके ही बादलो में कभी परियों की कहानी दिखती थी..शक्ले पुरानी दिखती थी।

बारिश से बाहार आज भी आती है, दिल्ली पानी से धुली-धुली हो जाती है। मॉनसून मस्ती और मुहब्बत की राग-भैरवी गाता है, चंद दिनों के लिये सही गंदा-नाला बन चुकी यमुना नदीं सी नज़र आती है। परिवार वालो के पास एक दूसरे के लिये वक्त हो तो सरोईघर में पकोड़े तले जा सकते है। बेबस ट्रैफिक जाम में फंसे हम लोग अगर एक पल लिये बच्चे बन जाऐं, तो ये पानी आज भी प्यारा हैं, काग़ज की किश्ती की तरह, रिम-झिम फुहारें सनम की यादें आ भी दिलाती है, बारिश का शोर में मां की लोरी याद करते देखो.. मॉनसून के फिर मुहोब्बत हो जाएगी।

शुक्रवार, सितंबर 17

जातिगत – सच, सवाल और सरोकार

मै पहले ही आपको बता दूं, जो एतिहासिक थ्योरी मैं रखने जा रहा हूं..उससे मै भी पूरी तरह सहमत नहीं हूं और न ही वो परिपूर्ण है। किसी जाति का उत्थान कैसे होता है ? ये सवाल भारतीय समाजशास्त्र में गूढ़ रहस्य है। सविंधान सभा के कुछ सदस्यों को इसका जबाव बिट्रिश-लोकतंत्र की देन - आरक्षण में नज़र आया..हालांकि कुछ जानकार आरक्षण को महज बिट्रिश या पश्चिम की देन नहीं मानते..जब मुनस्मत्रि को पढ़ने का हक केवल सवर्णों और खासतौर पर पंडितो को दिया गया था, वहीं अगर कोई स्त्री या शूद्र इसे देख या सुन भी ले तो उसके उपर अनेक दंड दिए जाने के विधान थे, वो भी एक तरह का आरक्षित विधान ही था। जैसे हिन्दु इतिहास में परशुराम से पहले राज अधिकार महज क्षत्रियों को था..बाद में मौर्य (मयूर पालक), फिर गुप्त (गुप्ता) भी राज के ताज से नवाज़े गए।

लेकिन सवाल जस का तस है, कि कैसे किसी जाति का उत्थान सम्भव होता है। इसके लिये कुछ तथ्यों को भी लिया जा सकता है। जैसे गुप्त काल (350ई) तक राजपूतों (ठाकुर) को उदंड लड़ाके माना जाता था, उस दौर में वो हूर्ण कहलाये। लेकिन 606ई में राजा हर्षवर्धन के पतन के बाद राजपूतों से साथ भी राजवंश जुड़ने लगा..चौहान, पाल आदि। जब पहले-पहल अरबी हमलावर (मुस्लिम) ने भारत का रुख किया तो उसका सामना राजपूतानी तलवारों से हुआ। उस वक्त जाटों (चौधरी) को आदिवासी जाति माना जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कुछ सौ साल पहले राजपूतों के लिये कहा गया था। एतिहासिक शाक्षय है, कि जब मुहम्मद गजनवी का लश्कर लौट रहा था.. तो जाट कबीलों से उन पर पीछे से हमला किया..हालांकि उसमें जाटों को मुंह की खानी पड़ी..लूट की कीमत उनकी औरतों तक को चुकानी पड़ी।

वक्त कभी एक सा नहीं रहता.मुगलो के उत्थान में जिस तरह पृथ्वीराज, राणा सांघा और महाराणाप्रताप की कहानियां किस्से बन चुकी थी..तब तक राजपूतों के सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा जाने लगा था..वैसे ही मुगलों के पतन के करीब मर्द-मराठा (शिवाजी), चंद्रवशीं-जाट (सूर्जमल) और खालसा-जटसिख (रंजीतसिहं) के राज्यों और करनामों ने भी इन जातियों को भी क्षत्रिय समाज का अभिन्न अंग बना दिया। इन्हें ब्रिटिश आर्मी में भी मार्शल रेंज माना गया।

1857 के पहले हुई आदिवासी क्रांतियों से गुर्जर लुटरे से वीर कहलाने लगे, खुद को वासुदेव कृष्ण के जोड़कर अहिर (यादव) की यदुवंशी क्षत्रिय मानने लगे..लेकिन राज ना होने की वजह से गुर्जरों और यादवों को, ठाकुर (राजपूत)- चौधरी (जाट) का सम्मान नहीं मिल पाया।

1947 में मुल्क-बंटा, नया वोटबैंक भी बना सो जातिगत सियासत ने उन्हें सम्मान दिलाने की कोशिश भी की..मैने अपने जीवनकाल में देखा, कि जब मुलायम सिंह यादव सूबे के वजीर (उत्तर-प्रदेश) बने तो उनकी सुरक्षा में लगा कोई भी जवान अहिर नहीं था। यादव (राव-साहब) ने फिर एक मुहिम चलाई और यूपी पुलिस में यादवों का आकड़ा बढ़ने लगा, कुछ लोग उसे यूपी-पुलिस में हुई भर्तियों के घोटाले से भी जोड़ते हैं। बिहार में लालू जी की सत्ता-स्थापित हुई तो..तथाकथित भूमिहार कहा - अब गाय चराने वाले लल्लू भी सूबे की सरकार संभालेंगे...। लेकिन दोनों यादवों ने यादव जाति को राज और राजनीति में स्थान दिला दिया। आज यादव भले ही ओबीसी का अंग हो, लेकिन किसी भी तर्क (आर्थिक-सामाजिक) पर पिछड़े नहीं कहलाये जा सकते हैं।

अब बात करें गांधी के हरिजनों की या बाबा के दलितों की..बाबासाहब और बहजनी को छोड़कर कोई बड़ा उलटफेर करने वाली शख्सियत इनके लिये नहीं रही। हालांकि राममोहन राय, गांधी जैसे अगड़ो-पिछड़ो के उत्थान का बीड़ा उठाया या फिर साहूजी मानंद्य कुछ समाजसुधार कार्य हुई। लेकिन बड़ा उलटफेर पूना-पैक्ट (1942) के वक्त देखने में आया। जब देश के सबसे बड़े नेता गांधी के समकक्ष अम्बेडकर ने बैठक की..और जातिगत आरक्षण की नींव भी कहीं ना कहीं उसी से पड़ी। फिर मायावती ने अपने गहनों-सियासी सोच (मनुवाद से मानववाद) और प्रशासनिक शक्ति से, ये जता दिया कि पैसा, बुद्धी और शौर्य किसी खास जाति की जागीर नहीं है।

हालांकि कुछ सियाने इसमें में कमियां निकाल लेते है, कि दलित होने की वजह से व्यक्तित्व मजबूत नहीं होता। जिस तर्ज पर सुभाष-भगत सिहं ने गांधी की आंधी के खिलाफ वैचारिक लड़ाई लड़ी थी। वो मादा बाबासाहब में नहीं था, वो तो धर्म की जंग भी हार गये और मरने से पहले हिन्दू धर्म को त्याग कर बुद्धं धर्मं गच्छामि बन गये थे। जिस जोश के साथ जेपी, चरणसिंह कांग्रेस राज के खिलाफ खड़े हुये थे वो ताकत बहनजी की बसपा ने कभी नहीं दिखाई, वो तो बीजेपी, सपा और कांग्रेसी समेत सभी घाट का पानी पी चुकी हैं। लेकिन जन्नत की हकीकत तो यही है कि, इन दोनों के अपनी जाति का जलवा पहले-पहल भारतीय लोकतंत्र में दर्ज जरुर करवा ही दिया। आज पंजाब-हरियाणा में दलित-गुरुओं के डेरो का डंका है। रोटी-बेटी का रिश्ता चाहें अभी दूर की कौड़ी हो लेकिन छुआछूत का कलंक मिट चुका हैं।

जो जातियां खुद को अगड़ी मानती है, वो भी आरक्षण की हड्डी के आगे, अपनी लालची लार टपकाये, दुम हिलाती दिखाई देती है..उसका उत्थान भी राज्य से हुआ था और दलितो का भी राजनीति से हो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे नंदवंश ने पालि, मौर्य ने प्राकृत, गुप्त ने संस्कृति, खिलजी-तुगलक ने अरबी, मुगलों से खारसी और कांग्रेस ने हिन्दी को बढ़ावा देकर राज-भाषा बना दिया। लेकिन क्या इस जातिगत अवतार का रास्ता आरक्षण की नीति से तय होगा क्योंकि विश्व इतिहास साक्षी है कि सोवियतसंघ में जिन मजदूरो-किनासो की CPSU से बुरजवा कार्ति की नींव रखी थी..बाद में वहीं अभिजात वर्ग बन गये और रुसी विभाजन का कारण बने। आरक्षण भी एक जाति में एक अभिजात वर्ग का रचयिता है। कैसे रामविसाल के बेटे को आरक्षण किया जा सका है? कैसे दलितो पर जुल्म करने वाले, अमीर किसान जात OBC हो सकते हैं? क्योंकि पढ़ा लिखा मुस्लमान कहता है कि काश वो हिन्दू होता और पिछड़ा हिन्दू होता?

इन सावलो के जवाब मेरे पास नहीं है, ऐसा नहीं है की मेने इसका जवाब खोजने की कोशिश नहीं की Y4E और आरक्षण विरोधी मुहिम, समान भारत की जंग में मैं भी लड़ा था, लेकिन जाति का जंजाल बहुत-बलवान हैं। ये सवर्णों में (बाहमण-क्षत्रिय) में लड़ाई करवा जाता है, दलितो में (अभिजात और पिछड़े) में बंटवारा कर जाता है। जाति है कि जाती नहीं..ना रोटी से ना बेटी से..ना लोकतंत्र से ना भीड़तंत्र से..ना लव-मेरिजों से ना इंटरनेट से...। इसका जवाब मेरे पास नहीं, आपके पास हो प्लीज बता दें..जाति क्यो नहीं जाती ???

गुरुवार, सितंबर 2

ये बाबरी लीला किसके लिये - इंसान, भगवान या सियासी शैतान?

दिसम्बर 1992 में, मै बहुत उत्साहित था घर के ब्लैक एंड वाइट टीवी में सरकारी डीडी पर खबरें महीनें की शुरुवात से दिखाई जा रही थी,कि देश में बहुत बड़ा होने वाला है। दिल्ली की सबसे बड़ी कोर्ट उसे रोकना चाहती थी और दिल्ली(केंद्र)के साथ साथ लखनऊ(राज्य)सरकारें उसे रोकने के दिखावें का दम भर रही थी। मैं उत्साहित था, क्योकि 5-6 साल की उम्र में आम बच्चों की तरह मुझे भी रामलीला देखना का शौक था। खासतौर पर आखरी 3-4 दिन क्योंकि उस वक्त राम-रावण का युद्ध होता है..सभी बच्चो की तरह मुझे भी मज़ा आता और मैं तालियां बजाता था। रामलीला हुये महज दो मास गजुरें थे, सो बाबरी-विवाद पांच साल के बच्चे को तमाशा या नौटकीं सा लगता था।

मै नहीं जानता था ये मोहल्ले का मेला नहीं मुल्क का मातम होगा। राम-रामण का युद्ध नहीं राम-रहीम की मानवता की मौत होगी। जिसकी लपटों में दशहरें का दहन नहीं गोधरा की रेल जलेगी, दिपावली के पटाखें नहीं मुबंई में बंम फटेंगें, ईद की सेवइयां नहीं गुजरात का सन्नाटा मिलेगा और हिन्दू-मुस्लिस (हम) से हिन्दुस्तान बनेगा नहीं हिंसा-मातम (हम) से हिंद बंटेगा। अख़बर जो खुद को बादशाहं ऐ हिन्दौस्तान कहलवा कर खुश होता था, उसी हिन्दौस्तान को आडवनी अपनी वाणी में हिन्दुस्तान कहकर कोमी खुशी का अंत करेगा। अयोध्या तो बस झांकी है अभी मधुरा-काशी बाकी है जैसे नारों पर चंद भगवा बदावत करेगें, साधवी-प्रज्ञा आंतकी बनेगी और जिहाद के जहर से कहफेआज़मी का आजमगढ़ं आतंक का अंधा कुवा बना जाएगा।

बचपन की रामलीला में तीर नकली होते थे, जिसे चलाने पर तालियां मिलती थी फिर आज अमन का अंत करने वालो को गालियो की जगह वोट क्यो मिल जाते है। मै बच्चे से बड़ा हो गया, पहली कक्षा से पत्रकार बन गया लेकिन ये इसका जवाब आज तक नहीं मिला। गांधी के रामराज्य और बीजेपी के रामराज्य में फर्क हो सकता है, लेकिन राम दोनो में कॉमन फेक्टर है। क्यों राज्य के चलाने लिये हमें राजा (राम जैसा अच्छा या रावण जैसा बुरा) की जरुरत पड़ती है, चाहे वो हिन्दुओं का राम हो या मुसलिमों का खलीफा। प्रजा, जनता क्यो नहीं बनती ?

रामलीला का एक और वाक्या याकीन याद है। जब राम-सीता की शादी होती है, रिक्षी ज्यौतिष के हिसाब से जोड़े के मंगल भविष्य की आकाशवाणी करत है, सभी गुण मिलाते, कुणलियां दिखाते है। ठीक वैसे ही मीडियां और बुद्धीजीवी मनमोहन सरकार का मगंल गान करते है। खुद अर्थशास्त्री प्रजानमत्रीं हमें भारत का भविष्य लालकिले की प्राचीन के लिखा खाते हैं..लेकिन हम लोगों को वनवास की जगह महगांई डायन मिलती हैं। सुरपनाखा की तरह राजपुत्र लक्षमण यानी तथाकथित अगड़ी क्षत्रिये जातियों (खाप-पंचायतों) ने प्रेम-विवाह या गोत्र विवाह के नाम पर प्यार करने वालो की बलि दे दी और हमारे नेता राम के समान पास खड़े देखते रहे। बाली बने भुमाफिया-उद्योपतियों ने किसाने के उनकी जमीने छीन ली, लेकिन कोई राम नहीं पहुते। राम (नेता) पहुते भी तो कैसे वो तो बह्मास्त्र प्राप्ति के लिये न्यूकलियर बिल का हवन करने मे बिजी थे। परमाणु करवार पर कानून आ सकता है जिसका फायद दशको बाद मिलेगा पर जमीन-अधिगर्हन पर नहीं जिसकी कीमत किसान आत्महत्या करके, नक्सली रास्ता अपनाकर या शहरी-बंजारे बनकर चुका रहे है।

ऐसे राम का क्या फायदा तो अपनी स्त्री को सम्मान ना दिला पाये। आपने पास बैठना का हक उससे छीन ले। ठीक वैसे ही जैसे संसद में कुछ सिलासी लोग महिला बिल पर कर रहे है। आज कोर्ट का जजमेंट बाबरी मसले पर आने वाला है, लेकिन आज मैं उत्साहित नहीं हु..उससे पहले ही अपनी विचार-लीला की कहानी सा ब्लॉक लिख रहा हु..क्योकि शायद कुछ नहीं बदला चाहे बात हर साल की रामलीला की हो या पांच साल के चुनावो की..प्रजा का काम तालियां बजाना है गालियां सुनाने के लिये तो राम-राज्य के नेता मौजूद है। हो सकता है इस दफा भी रावण के पुतले की जगह मजहबी लहु की लंका जले..कोई हनुमान इसे भी हाई-जेक कर ले जाये..और तुलसीदास बने हम लोग (मीडियां वाले) इस कथा को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर अपना पैशा निभाये। पर आपका क्या ? तुलसी को तो राजकवि का दर्ज मिल जाएगा..राम-रावण की तर्ज पर सरकार और विपक्ष की कहानी चलती रहेगी और आपकी चितायें जलती रहेगी..!!

लेकिन फिर ना जानें क्यो इस दफा देश कुछ बदला बदला सा लगता है। गूगल कहता है, कि इंडिया और भारत अलग है। ठीक वैसे ही जैसे मेरे घर का टीवी ब्लैक एंड वाइट से रंगीन हो गया है। जिसमें काला-सफेद झूठ ही नहीं..इंसान और इमान के सभी रंग दिखते है। सियाने कहते है कि हमारे देश में दो तरह लोग रहते है - मूक प्रजा जिस जीने के लिये जंनत नहीं महज जमीन नसीब हो जाये तो वो सियासी हुकमारनों की वोट-वदंना करते नहीं थकेगें और दूसरी तरफ इक्बाल की जम्हूरी जनता जो सियासी गलियारों सा विकास अपनी गलियों में भी चाहते है। मेरा सवाल प्रजा और जतना दोनों से है, कि क्या राम-बाबरी विवाद पर कोर्ट के फतवे-फरमान या फैसले से आपकी जमीन या जन्नत में कोई बुनियादीं अन्तर आता है ? अगर नहीं तो ये बवाल पर किसके लिये ? इंसान, भगवान या सियासी शैतान? अगर हां, तो ज्यादा उम्दा बात है, कि कम से कम कोर्ट के कानून का काला रंग, मज़हबी हिंसा के लाल-लहु से तो यकीनन बेहतर होगा..!!!